10 साल की दास्तान

daastaan2
फोटो: विकास कुमार

किस्से-कहानियां और दास्तानें, इन दिनों फूली नहीं समा रहीं. वजह- इन्हें सुनाए जाने की कला ‘दास्तानगोई’ इस साल अपने पुनरुत्थान के दस साल पूरे कर रही है. आज से दस साल पहले तक दास्तानगोई के बारे में बहुत कम लोग जानते थे और जो जानते थे वो भी इसे ‘माजी के हसीन औराक (भूतकाल के सुंदर पन्ने) की एक चीज’ समझते थे मगर पिछले दस साल इस हवाले से एक इंकलाब के गवाह रहे हैं. इंकलाब जिसकी सुबहें उस शख्स की कोशिशों के नूर से रौशन हैं जिसका नाम है महमूद फारूकी. जिनकी वजह से आज लोग दास्तानगोई को सिर्फ जानते ही नहीं बल्कि दीवानावार जानते हैं.

गौरतलब है कि दास्तानगोई उर्दू में दास्तान यानी लंबी कहानियां सुनाने की कला है. उर्दू में अलिफ लैला, हातिमताई वगैरह कई दास्तानें सुनाई जाती रहीं मगर इनमें सबसे मशहूर हुई ‘दास्ताने अमीर हमजा’, जिसमें हजरत मोहम्मद के चचा अमीर हमजा के साहसिक कारनामों का बयान होता है. मुगलों के जमाने में हिंदुस्तान आई ये कला 18वीं और 19वीं शताब्दी में अपने चरम पर थी. बाद के सालों में इसमें गिरावट आई और 1928 में आखिरी दास्तानगो मीर बाकर अली के इंतकाल के साथ ही ये कला पूरी तरह मिट गई.

ये महमूद फारूकी का ही कमाल है कि सैकड़ों साल पुरानी एक कला जो 1928 में खत्म हो गई थी तकरीबन 80 साल बाद 2005 में फिर से जिंदा हो जाती है और 2015 में खुद में शबाब की आहटें महसूस करने लगती है. इन दस सालों में महमूद और उनकी टीम अपनी कहानियों के साथ दुनियाभर में घूमे हैं, हजार से ज्यादा शो किए हैं. लोगों को दास्तानगोई के मानी और आदाब समझाए हैं, पुरानी दास्तानें सुनाई हैं, नई दास्तानें सुनाई हैं. नए दास्तानगो और नए सुनने वाले पैदा किए हैं, और इन सबसे ऊपर कहानियों के इस मुल्क में कहानी सुनने-सुनाने की परंपरा को उसका खोया हुआ रूतबा वापस दिलाया है.

दास्तानगोई की इस कामयाबी की एक वजह है इस मुल्क का कहानियों से प्यार. ये मुल्क कहानियों से मोहब्बत करना और उनको अपना बनाना जानता है

तहलका से बातचीत में महमूद कहते हैं, ‘हम एक ऐसे आर्ट फॉर्म को जिंदा करने की कोशिश कर रहे हैं जो औपनिवेशिक काल के असर से गायब हो गया. हम एक्ट ऑफ कल्चरल रिवाइवल कर रहे हैं. जो एक राजनीतिक कार्य है. हिंदुस्तान के बुद्घिजीवियों से मेरी ये शिकायत रही है कि वो 19वीं शताब्दी के पहले के हिंदुस्तान के बारे में कुछ नहीं जानते. जदीद दास्तानगोई के दस साल पूरे होने के मौके पर जो नई दास्तान हमने तैयार की है वो राजा विक्रम की है. हिंदुस्तान में अगर किसी आदर्श राजा की हमें झलक मिलती है तो वो राजा विक्रम हैं. बात इससे जुड़ती है कि गुजरात दंगों के बाद पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ये कहा कि गुजरात में राजधर्म का पालन नहीं हुआ… तो हम अपनी दास्तानों में यही बताते हैं कि राजधर्म क्या है. नीति क्या है.’

दास्तानगोई के पुनरुत्थान के दस साल पूरे होने के मौके पर ‘राजा विक्रम के इश्क की दास्तान’ का प्रीमियर दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में चार और पांच अप्रैल को हुआ. जिसमें महमूद फारूकी और दारैन शाहिदी ने मिलकर दर्शकों को राजा विक्रम की दास्तान सुनाई. 120 मिनट की इस लंबी दास्तान के दोनों शो सुपरहिट रहे. इस दास्तान को ‘बेताल पच्चीसी’ और ‘सिंघासन बत्तीसी’ के पारंपरिक किस्सों के गहन अध्ययन के साथ मशहूर लोक-कथाकार एके रामानुजन की लोक कहानियों एवं खुुदा-ए-सुखन मीर तकी मीर की शायरी के संगम से तैयार किया गया है. पत्रकार के रूप में चर्चित रहे दारैन शाहिदी दास्तानगोई से अपने जुड़ाव के बारे में कहते हैं, ‘दास्तानगोई करके जो आत्मिक संतुष्टि मुझे मिलती है वो दास्तानगोई से मेरे जुड़ाव का हासिल है. इस जुड़ाव के जरिए मुझे अपने बुजुर्गों अपने पुरखों की जबान, उनकी तहजीब को पढ़ने, सुनने, समझने, अपने अंदर समाने और फिर लोगों के सामने पेश करने का मौका मिलता है. इस काम में अद्भुत आनंद है. महमूद के शब्दों में कहूं तो पिछले दस साल में हमें मिली कामयाबी बुुजुर्गों की जूतियां सीधी करने का सदका है.’

~Also Read~

[egpost postid=”20129″]

दास्तानगोई के मैदान में महमूद मशहूर उर्दू आलोचक शमसुर्रहमान फारूकी से प्रेरणा लेकर उतरे थे. 2005 में दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में उन्होंने अपने साथी हिमांशु त्यागी के साथ मिलकर पहली दास्तान सुनाई थी. ये एक रिवायती दास्तान थी यानी कि अमीर हमजा की सैकड़ों साल पुरानी दास्तान थी. ये परफॉर्मेंस बहुत कामयाब रही थी और इसी के बाद दास्तानगोई के सिलसिले संजीदगी से शुरू हुए. महमूद की हमसफर अनूषा रिजवी ने जदीद दास्तानगोई की महफिल को डिजाइन किया. इसका मंच, लाइट, परिधान वगैरह उन्हीं की देन है. हिमांशु त्यागी के बाद दानिश हुसैन दास्तानगोई में महमूद के दीर्घकालिक सहयोगी बने. महमूद और दानिश ने मिलकर दूसरी पीढ़ी के कई युवा दास्तानगो भी तैयार किए. जिनमें अंकित चड्ढ़ा, योजित सिंह, नदीम, पूनम, फौजिया, मनु, अशहर, रजनी, फिरोज और नुसरत समेत कई दूसरे नाम हैं.

जदीद दास्तानगोई के सफर में एक अहम पड़ाव रिवायती दास्तानों से हटकर समकालीन विषयों पर दास्तानें तैयार करना और सुनाना था. इससे दास्तानगोई अपने दौर में हस्तक्षेप का भी एक अहम जरिया बनती दिखाई दी. इस तरह की दास्तानों में सआदत हसन मंटो पर आधारित दास्तान मंटोइयत, बिनायक सेन की अलोकतांत्रिक गिरफ्तारी पर आधारित, दास्तान-ए-सेडीशन, मुल्क के बंटवारे पर आधारित दास्तान-ए-तकसीम-ए-हिन्द, विजयदान देथा की कहानी पर आधारित दास्तान, चौबोली, एलिस इन वंडरलैंड पर आधारित दास्तान बेहद कामयाब रहीं. महमूद की ही प्रेरणा से उनके सबसे होनहार शागिर्दों में से एक अंकित चड्ढा ने भी कई नई और एकदम अनूठी दास्तानें लिखीं जिन्हें खूब सराहा गया. इन दास्तानों में अमीर खुसरो की दास्तान, कबीर की दास्तान, मोबाइल फोन की दास्तान, कॉरपोरेट जगत की दास्तान और उर्दू शायर मजाज लखनवी की दास्तान प्रमुख हैं.

अंकित कहते हैं, ‘नए विषयों पर दास्तानें लिखना मेरे लिए दास्तानगोई के फॉर्म को समझने और सीखने की एक प्रक्रिया थी. साथ ही नई दास्तानों को सुनने के बाद लोगों ने खुद आकर मुझसे कहा है कि क्या आप फलां-फलां विषय पर दास्तान लिख सकते हैं. तो इन दास्तानों को लिखना फॉर्म के विकास में एक महत्वपूर्ण पड़ाव था.’

जदीद दास्तानगोई के दस साल पूरे करने के सिलसिले में हमें ये समझना जरूरी है कि यह काफी अर्सा पहले मर चुकी एक कला के दोबारा नए सिरे से जिंदा होने की परिघटना है. इसलिए पिछले दस सालों में कला और संस्कृति की दुनिया में दास्तानगोई ने एक बिल्कुल नया अध्याय जोड़ा है. साथ ही इस कला ने लोगों को फिर से वाचिक परंपरा यानी ओरल ट्रेडिशन के नजदीक ले जाने का काम किया है. देश के तमाम छोटे-बड़े शहरों में लोगों को जबान और बयान की ताकत समझाई है. दास्तानगोई ने खास-ओ-आम के भेद को मिटाते हुए हिंदुस्तान का परिचय फिर से कहानियों की उस अनमोल विरासत से कराया है जो बदलते वक्त के साथ बिसरा दी गई थीं. अंग्रेजी की आंधीवाले इस दौर में दास्तानगोई ने अवाम को उर्दू की अजमत और हुस्न का एहसास करवाया है. इस सिलसिले में महमूद फारूकी कहते हैं, ‘पिछले दस सालों में अगर दास्तानगोई को अविश्वसनीय सफलता मिली तो इसलिए क्योंकि पूरे हिंदुस्तान में हर छोटी-बड़ी जगह उर्दू के चाहनेवाले फैले हुए हैं. ये दास्तानें अगर हम उर्दू के अलावा किसी और जबान में सुनाते तो हमें कुछ खास हिस्सों में तो कामयाबी मिलती मगर पूरे हिंदुस्तान में इस तरह की कामयाबी न मिलती. इस कामयाबी की एक और वजह है- इस मुल्क का कहानियों से प्यार. ये मुल्क कहानियों से मोहब्बत करना और उनको अपना बनाना जानता है. अगर ऐसा न होता तो हातिमताई या अलिफ लैला या लैला मजनूं या मुल्ला नसीरूद्दीन की कहानियों पर यहां फिल्में और सीरियल क्यों बनते. इन कहानियों का भला हिंदुस्तान से क्या ताल्लुक. दरअसल कहानियां सुनना सुनाना, कहानियों में बात कहना इस देश की परंपरा में है.’

आधुनिक दास्तानगोई के दस साल मुकम्मल होना निश्चित तौर पर महमूद फारूकी और उनकी टीम के लिए बड़ी कामयाबी है, और इस कामयाबी का जश्न 2015 में पूरे साल अलग-अलग आयोजनों द्वारा मनाया जाएगा. 4-5 अप्रैल को दिल्ली में हुई राजा विक्रम की दास्तान इसी सिलसिले का पहला आयोजन थी. इसके साथ ही आगे के दस सालों के लिए भी महमूद के सामने कई लक्ष्य हैं. वे अगले दस सालों में हिंदुस्तान के हर बड़े शहर में कम से कम दो दास्तानगो तैयार कर देना चाहते हैं. इसके साथ ही महमूद चाहते हैं कि वे इस विशाल देश में जगह जगह छिपे कहानियों के खजाने को लोगों के सामने लाएं, और उनके जरिए से लोगों को अपनी तारीख, अपनी तहजीब, अपनी रिवायत से परिचित करवाएं जिसे लोगों ने अंग्रेजों और अंग्रेजियत के प्रभाव में आकर न जाने कब भुला दिया था.

तवील होने लगी हैं इसलिए रातें

कि लोग सुनते-सुनाते नहीं कहानी भी