हाशिये पर शिक्षा

विश्वभर में कोविड-19 से संक्रमित मरीज़ों की संख्या बढ़ रही है,ऐसी परिस्थितियों में स्कूली छात्रों के अभिभावकों की चिन्ताओं ने भी विश्वव्यापी मुद्दे का रूप ले लिया है। यूनेस्को का अनुमान है कि कोविड-19 के कारण विश्व के करीब 190 देशों में किये गये लाकडॉउन के चलते शैक्षणिक संस्थानों के बन्द होने का करीब 154 करोड़ छात्रों पर गम्भीर असर हुआ है। इतने बड़े पैमाने पर शैक्षणिक सस्थाओं के बन्द होने से छात्रों की शिक्षा व कुशलता पर अभूतपूर्व असर देखा जा रहा है, विशेषतौर पर हाशिये पर रहने वाले तबकों के बच्चों पर जो कि अपनी शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, सुरक्षा सम्बन्धी ज़रूरतों के लिए मुख्यत: स्कूलों पर ही अश्रित हैं। इस समय  दुनिया भर की सरकारों, शिक्षण संस्थान व अभिभावकों के बीच यह बहस ज़ोरों पर है कि ऐसे समय में जब कोविड-19 का कोई कारगर उपचार नहीं है, तो ऐसे समय में बच्चों की पढ़ाई शुरू करने के लिए स्कूल कॉलेज कब खोले जाएँ? कोरोना से सबसे प्रभावित मुल्क अमेरिका सहित ब्रिटेन, चीन, कनाडा जैसे मुल्कों में अभिभावकों ने ऐसे हालात में स्कूल खोलने के खिलाफ मुहिम शुरू की है।

विद्याॢथयों की उपस्थिति हुई कम

गौरतलब है कि यूरोप के कई देशों ने मई मध्य-जून में स्कूल खोलने की पहल की मगर वहाँ हाज़िरी बहुत कम देखने को मिली। उन देशों ने स्कूल तो खोले मगर नियम-कायदों के साथ। जैसे कि न्यूजीलैंड में भी स्कूल खुल गये हैं और यहाँ बच्चों को सामाजिक दूरी व बार-बार हाथ धोने की सलाह दी गयी है। ऑस्ट्रेलिया में स्कूलों में बच्चों के अभिभावकों को जाने की इजाज़त नहीं दी गयी है। जर्मनी के स्कूलों में बच्चों को खुद का कोरोना टेस्ट करने के लिए कोरोना जाँच किट उपलब्ध करवायी जा रही है। वियतनाम के स्कूलों में टेम्परेचर चेक के बाद केवल मास्क लगाकर ही अन्दर जाने दिया जाता है। जापान के स्कूलों में तो फेसशील्ड या मास्क अनिवार्य कर दिया गया है। सिंगापुर में सब बच्चों को थर्मामीटर के ज़रिये बुखार नापकर ही क्लास में जाने की अनुमति है। चीन के हैंगजाउ में जब स्कूल खुले तो बच्चों को मास्क के साथ ही सामाजिक दूरी के लिए खास डिजाइन के हैड-गियर पहनाये गये। स्कूल के बाहर वेलकम बैक भी लिखा हुआ था। बच्चे मास्क के साथ ही साथ सेनिटाइजर व गारवेज बैग के साथ स्कूलों में नज़र आये। डेनमार्क में जब स्कूल खुले, तो बच्चों की संख्या बेहद कम थी। स्विजरलैंड में अभिभावकों पर बच्चों को स्कूल से कुछ दूर छोडऩे की शर्त रखी गयी। नीदरलैंड में स्कूलों में डेस्क के चारों और प्लास्टिक की शील्ड लगायी गयी। आस्ट्रेलिया के न्यू साउथवेल्स में सप्ताह में एक दिन स्कूल आने का नियम बनाया गया। ब्रिटेन में भी जब स्कूल खुले तो कम उपस्थिति देख स्कूल प्रशासन हैरान रह गया और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को अभिभावकों से स्कूल में बच्चों को भेजने की अपील तक करनी पड़ी। वहाँ जून में स्कूल खोलने के सरकारी फैसले से अधिकांश अभिभावक नाखुश नज़र आये और इसके विरोध में अभिभवकों ने सोशल मीडिया पर मुहिम छेड़ दी। फेसबुक पर इस मुहिम ने तेज़ी पकड़ी। ‘जून-टू-सून’ हैशटैग के साथ बच्चों के जूतों तक की तस्वीरें पोस्ट की गयीं। एक ब्रिटिश महिला का यह बयान गौरतलब है- ‘बच्चों और बूढ़ों को जब घर में रहने की सलाह दी गयी है, तो स्कल खोलना वाजिब नहीं है। बच्चे अर्थ-व्यवस्था का हिस्सा नहीं हैं, तो उनकी ज़िन्दगी का खतरा क्यों मोल लें?’ जहाँ तक भारत का सवाल है, यहाँ भी अभिभावक अपने बच्चों को कम-से-कम आने वाले दो-तीन महीनों तक स्कूल भेजने के पक्ष में नहीं हैं। स्पेन में सितंबर तक स्कूल बन्द हैं। लेकिन अपवाद के तौर पर कुछ छात्र-छात्राओं के लिए कक्षाएँ लगायी जा रही हैं।

भारत में कब खुलेंगे शिक्षण संस्थान

भारत में स्कूल कब खुलेंगे? इसे लेकर बराबर कयास लगाये जा रहे हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय भी इस मुद्दे पर राज्य के मंत्रियों व शिक्षा अधिकारियों के साथ कई बैठकें कर चुका है। एक कयास यह भी लगाया गया कि भारत में जुलाई से स्कूल खुल सकते हैं और अभिभावकों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। अभिभावकों ने किसी राज्य में मामले शून्य होने या टीका आने तक बच्चों को स्कूल नहीं भेजने की मुहिम छेड़ दी है। पैरेंट्स एसोसिएशन के चेंज डॉट आर्ग पर शुरू ऑनलाइन हस्ताक्षर अभियान को कई लाख अभिभावकों का समर्थन मिला है। गौरतलब है कि कोरोना वायरस के संक्रमण की रोकथाम के लिए उठाये गये उपायों के तहत देश भर में 16 मार्च से 1.5 लाख स्कूल बन्द हैं और करीब 25 करोड़ बच्चे स्कूल बन्द होने से प्रभावित हैं। देश में स्कूल कब खुलेंगे? इसे लेकर बेशक अभी तक कोई आधिकारिक घोषणा नहीं की गयी है; लेकिन देश में जिस तरह से कोविड-19 संक्रमितों का आँकड़ा रोज़ बढ़ रहा है। इसके चलते यह फैसला लेना सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है। हरियाणा के फरीदाबाद में इसी मुद्दे पर बीते दिनों एक ज़िला स्तरीय बैठक बुलायी गयी। इस बैठक में सरकारी व निजी स्कूल प्रबन्धन समिति के सदस्यों और ज़िला शिक्षा अधिकारियों ने हिस्सा लिया। इसका निष्कर्ष यह निकला कि वर्तमान हालात में जुलाई में ज़िले में स्कूल खोलना बुद्धिमत्ता नहीं होगी। फरीदाबाद ज़िले में संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं। ऐसे हालात में अगर स्कूल खोल दिये जाएँगे, तो कोरोना वायरस पर काबू पाना मुश्किल हो जाएगा। बैठक में यह भी साफ कहा गया कि ज़िले के अधिकांश सरकारी व निजी स्कूलों में सामाजिक दूरी की पालन कराना भी एक बहुत बड़ा मसला बन सकता है। मुल्क में सरकारी स्कूलों में एक ही सेक्शन में इतने बच्चे होते हैं कि सामाजिक दूरी वाले नियम का पालन कैसे कराया जाएगा? यह बहुत अहम सवाल है। दरअसल सरकार भी इस मुद्दे पर पसोपेश में है। पैरेंट सर्कल के एक सर्वे में खुलासा किया गया कि अधिकतर अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजने के पक्ष में नहीं हैं। राधिका के दो बच्चे एक निजी स्कूल में पढ़ते हैं। उनका मानना है कि इसमें कोई दो राय नहीं कि स्कूल में जाकर पढऩे से बच्चे का विकास कई तरह से होता है; लेकिन अगर हालात इस पक्ष में नहीं है। ऐसे में बच्चों के हित में हमें कदम उठाने की ज़रूरत है। क्योंकि बच्चों की उम्र यह सब सोचने-समझने और निर्णय लेने की नहीं है। ‘नो वैक्सीन, नो स्कूल’ मुहिम के बीच ही अमेरिका में शीर्ष वैज्ञानिकों की इस मुद्दे पर राय जानी गयी, तो 70 फीसदी वैज्ञानिक सिंतबर-अक्टूबर से पहले स्कूल खोलने के पक्ष में नहीं हैं। उनकी राय में इससे पहले स्कूल-कॉलेज खोलना बच्चों के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। सार्वजनिक संस्थानों को तो खोला जा सकता है; लेकिन बच्चों को खतरे में नहीं डाला जा सकता।

दिशा-निर्देश

राष्ट्र सरकारों, अभिभावकों, शिक्षाविदों, स्कूल प्रबन्धकों, वैज्ञानिकों की राय पर नज़र डालने के अलावा यह जानना भी अहम है कि यूनेस्को, यूनिसेफ, विश्व बैंक और वल्र्ड फूड प्रोग्राम ने फिर से स्कूल खोलने को लेकर दिशा-निर्देश जारी किये हैं। इन दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि स्कूल बन्द करने से अभी तक इस बीमारी के संक्रमण दर को रोकने वाले प्रभाव को जानने के लिए हमारे पास पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं। लेकिन स्कूल बन्द होने से बच्चों की सुरक्षा और पढ़ाई पर जो प्रतिकूल प्रभाव पड़े हैं, उसके दस्तावेज़ हमारे पास हैं। यही नहीं, शिक्षा तक बच्चों की पहुँच में बीते कुछ दशकों में जो प्रगति हासिल की थी, अब उसके खोने की ही खतरा नहीं मँडरा रहा, बल्कि खराब हालात में स्थिति पूर्णतया उलट भी सकती है। यह भी गौर करने वाला बिन्दु है कि बच्चों के लिए स्कूल महज़ पढऩे वाला स्थान ही नहीं होते, बल्कि उन्हें वहाँ पौष्टिक आहार, स्वास्थ्य, साफ-सफाई जैसी सेवाएँ भी मुहैया करायी जाती हैं। मानसिक स्वास्थ्य और मनोवैज्ञानिक सहयोग भी उपलब्ध कराया जाता है। स्कूल जाने से बच्चों की बीच में पढ़ाई छोडऩे की सम्भावना कम होती है; खासकर लड़कियों के मामले में उनकी जल्दी शादी होने के अवसर भी कम हो जाते हैं और स्कूल जाते रहने पर बच्चों को हिंसा से भी संरक्षण मिलता है। दिशा-निर्देश इस पर भी रोशनी डालते हैं कि स्कूल बन्द होने की सबसे अधिक चोट सबसे अधिक संवेदनशील बच्चों को ही लगती है और पिछले संकटों से हम जानते हैं कि जितने लम्बे समय तक वे बच्चे स्कूल से बाहर रहते हैं, उनके फिर से स्कूल लौटने की सम्भावना उतनी ही कम होती है। यूनेस्को की शिक्षा सहायक महानिदेशक स्टेफिना गिनोनी ने एक समाचार एजेंसी को दिये एक साक्षात्कर में बताया था कि कोविड-19 महामारी के कारण स्कूल बन्द करने वाला निर्णय बीच में स्कूल छोडऩे में वृद्धि की सम्भावना, गैर आनुपातिक तौर से किशोर लड़कियों को अधिक प्रभावित करेगा। शिक्षा में लैंगिक फासले को बढ़ायेगा और यौन शोषण, छोटी आयु में गर्भधारण करने और छोटी आयु में जबरन विवाह वाले मामलों में भी बढ़ोतरी भी आयेगी, जिससे सावधान रहने की ज़रूरत है। यूनेस्को ने राष्ट्रों के शिक्षा मंत्रियों को कोविड-19 महामारी के दौरान फिर से स्कूल खोलने के लिए योजना बनाते समय इन दिशा-निर्देशों को ध्यान में रखने की सलाह दी गयी। इसमें नीति सुधार, वित्तीय ज़रूरतों, सुरक्षा नियमों का पालन, भलाई, संरक्षण और सबसे अधिक हाशिये पर रहने वाले बच्चों का विशेष खयाल रखने वाले बिन्दु शामिल हैं। इसके अलावा स्कूल बन्द होने से सबसे अधिक गरीब मुल्कों के बच्चों के बारे में भी पता होना चाहिए। इन मुल्कों के जिन बच्चों को दिन में केवल एक समय का ही भोजन नसीब था; वह स्कूल में ही मिलने वाला भोजन था। लेकिन अब वो भी मिलना निश्चित नहीं रह गया। कोविड-19 के कारण स्कूल बन्द होने से दुनिया भर में करीब 370 मिलियन (3,700 लाख) बच्चे स्कूल में मिलने वाले इस पौष्टिक आहार को नहीं ले पा रहे हैं; जो ऐसे गरीब परिवारों के बच्चों के लिए जीवन-रेखा है।