हरियाणा सरकार पर लटकी तलवार

किसान आन्दोलन कहीं हरियाणा की भाजपा-जजपा (भारतीय जनता पार्टी-जननायक जनता पार्टी) सरकार की बलि न ले ले। सत्ता पक्ष इसकी आशंका से डरा है, वहीं विरोधी इसमें सम्भावना टटोल रहे हैं। राज्य में खाप पंचायतों ने जिस तरह से आक्रामक रुख अपनाया है, उससे स्थितियाँ कुछ बदलने लगी हैं। कृषि उत्पाद के न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी पर शुरू हुआ किसान आन्दोलन अब तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून बनाने पर अटक गया है। इस स्थिति के लिए केंद्र सरकार ही ज़िम्मेदार है। उसने मर्ज़ को बढऩे दिया और सोचा कैसा भी नासूर हो, उसे ऑपरेशन से ठीक किया जा सकता है। यह उसका वहम रहा। उसके ऑपरेशन की कोई प्रक्रिया काम नहीं आयी। क्योंकि उसने पंजाब और हरियाणा में जारी किसान आन्दोलन को ज़्यादा गम्भीरता से नहीं लिया। अगर समय रहते न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बातचीत कर मामले को सुलझा लिया गया होता, तो आज यह नौबत नहीं आती।

12 दौर की बातचीत के बाद अब सिलसिला टूटा हुआ-सा है। सिलसिला शुरू होगा, लेकिन कब? कोई नहीं जानता। आखिर समझौता बातचीत से ही निकलेगा, जिसके लिए दोनों पक्ष तैयार है; लेकिन कदम वापसी को लेकर मामला फँस गया है। गेंद सेंटर लाइन पर है, किसी पाले में नहीं। लिहाज़ा पहल में कुछ समय लग सकता है। इसके बरअक्स हरियाणा में किसान आन्दोलन अब गति पकडऩे लगा है। हज़ारों की संख्या में राज्य के लोगों की मौज़ूदगी बताती है कि राज्य में कुछ होने वाला है।

आन्दोलन अब गैर-राजनीतिक नहीं रहा, इसमें किसी तरह के संशय की बात नहीं रही। मंच से चाहे कोई राजनीतिक दल का नेता सम्बोधित न करता हो, लेकिन अन्दरखाने आन्दोलन में राजनीतिक दलों की घुसपैठ हो चुकी है। स्पष्ट है आन्दोलन लम्बा खिंचेगा और समझौते में कोई न कोई अडंग़ा आता रहेगा। भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता और अब आन्दोलन के एकछत्र नेता के तौर पर उभरे राकेश टिकैत ने अक्टूबर तक का समय दे दिया है। इतना लम्बा समय देने के पीछे कोई तर्क नहीं, बल्कि सरकार को यह अहसास कराना है कि किसान आन्दोलन की लम्बे खिंचने से पस्त नहीं होने वाले। हरियाणा में अब आन्दोलन को मज़बूती देने के लिए खाप पंचायतों के दौर में इन दो माँगों के अलावा मौज़ूदा भाजपा-जजपा सरकार को गिराने की बातें होने लगी हैं। ऐसी खाप महापंचायतों में सरकार गिराने का आह्वान किया जाने लगा है। बाकायदा लोगों से हाथ खड़े करवा इसकी हामी भरायी जाने लगी है। राज्य के चरखी दादरी में हाल ही में हुई खाप पंचायत में संयुक्त किसान संघर्ष समिति के सदस्य दर्शन पाल ने माँगों से ज़्यादा राज्य की भाजपा-जजपा सरकार को गिराने का वादा लोगों से ले लिया। इससे पहले कई खाप पंचायतें जजपा कोटे से बने उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला के सामाजिक बहिष्कार की घोषणा कर चुकी है। उनके गाँवों में घुसने पर पाबंदी लग चुकी है।

जजपा की यह हालत भारी दवाब और विरोध के बावजूद सरकार में बने रहने की वजह से बनी है। जैसे-जैसे आन्दोलन लम्बा खिंचता जाएगा, वैसे-वैसे हरियाणा में संयुक्त सरकार के लिए संकट बढ़ता जाएगा। खाप पंचायतों के इस दौर में राकेश टिकैत की भूमिका प्रमुख रही है। लगभग हर पंचायत में वे मुखर होकर केंद्र सरकार को चुनौती देते नज़र आये। आन्दोलनकारी जो सुनना चाहते हैं, टिकैत वही बोल रहे हैं। आन्दोलन में हरियाणा सरकार की भूमिका पर उनका रोष देखते ही बनता है। मुख्यमंत्री का नाम लेकर वह कई सभाओं में संकेत दे चुके हैं, जवाब में उन्हें भीड़ से जबरदस्त समर्थन मिलता है। क्या राज्य सरकार को अस्थिर करने से उनकी माँगें पूरी हो जाएँगी? क्या दुष्यंत चौटाला के सरकार से हटने और आन्दोलनकारियों के समर्थन में आने से तीनों कृषि कानून वापस या न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी रूप देने का एजेंडा इससे पूरा होगा? हरियाणा में खाप और महापंचायतों के इस दौर से भाजपा-जजपा सरकार पर तलवार तो लटकी है, लेकिन यह गिरेगी! इसकी सम्भावना काफी कम लगती है। कल को क्या राजनीतिक समीकरण बनते हैं, इस बारे में कहना मुश्किल है। लेकिन सरकार मुश्किल में है, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता।

समर्थन वापसी का मतलब राज्य में मध्यावधि चुनाव के आसार ज़्यादा बनते हैं। कांग्रेस तो इसके लिए तैयार हो सकती है, पर भाजपा और जजपा बिल्कुल नहीं। कांग्रेस तो खुले तौर पर आन्दोलन को समर्थन और कृषि कानूनों को रद्द करने की माँग का समर्थन कर रही है। मौज़ूदा स्थिति में कांग्रेस बहुमत के लिए आँकड़ा जुटा लेगी, इसमें भी संशय है। पर सवाल हरियाणा का नहीं, बल्कि किसान आन्दोलन पर किसी समझौते का है; जिसके लिए फिलहाल कोई रास्ता खुलता नहीं दिख रहा है।

कोई दो माह से दुष्यंत का ऐसा कोई बयान नहीं आया, जिससे उनकी भावी रणनीति का पता चल सके। वह सरकार में बने रहकर किसानों का समर्थन करना चाहते हैं; लेकिन यह आन्दोलन समर्थकों को मंज़ूर नहीं है। देश में किसानों के कद्दावर नेता रहे पूर्व उप प्रधानमंत्री देवीलाल के पोते के सामने स्थिति बड़ी विकट हो चली है। किसानों पर आधारित पार्टी जजपा को भविष्य में इसका खामियाज़ा उठाना पड़ सकता है।

देवीलाल की किसान हितैषी विरासत का कुछ हिस्सा इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) के पास जा सकता है। पार्टी के एकमात्र विधायक अभय चौटाला तीनों कृषि कानूनों को रद्द न करने के विरोध में सदस्यता से इस्तीफा दे चुके हैं। वह दिल्ली की ट्रेक्टर रैली में भी शामिल हो चुके हैं।

अब अभय चौटाला के पास खोने को कुछ नहीं और पाने को बहुत कुछ है। कांग्रेस विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाने की तैयारी कर रही है। हरियाणा में आन्दोलन से जुड़े नेता दुष्यंत पर सरकार से समर्थन वापस लेने का दबाव बना रहे हैं। किसानों के दिल्ली कूच से पहले ही दुष्यंत पर किसानों के समर्थन में आने का जबरदस्त दबाव है; लेकिन वह सरकार में रहकर आन्दोलन को मूक समर्थन देकर सुरक्षित रहना चाहते हैं। किसान विरोध के इस बवंडर में भाजपा नेता भी बच नहीं पा रहे हैं। कृषि कानूनों के समर्थन में करनाल ज़िले में मुख्यमंत्री मनोहर लाल की जनसभा का हश्र सामने है। हेलीपैड खोद दिया गया और मुख्यमंत्री को ऊपर से ही वापस जाना पड़ गया। भाजपा प्रदेशाध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़ समेत सभी को वहाँ से जान बचाकर भागने की नौबत आ गयी।

पूरे राज्य में विरोध की हालत कमोबेश एक जैसी ही है। भाजपा सांसद नायब सिंह सैनी को भी आन्दोलनकारियों का विकट विरोध झेलना पड़ा। अब यह हालत हो चली है कि सरकारी कार्यक्रमों को भी सोच-समझकर बनाया जाने लगा है। क्योंकि पता नहीं कहाँ विरोध हो जाए। कृषि कानूनों पर आन्दोलन की शुरुआत हरियाणा से हुई थी।

पिपली (कुरुक्षेत्र) में पहली बार हरियाणा भाकियू के प्रमुख नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने इसकी शुरुआत की थी। तब किसानों पर बल प्रयोग भी हुआ था। उसके बाद पंजाब में आन्दोलन की अलख जगी और बड़ी तेज़ी से फैला। उसके बाद आन्दोलन पंजाब का ही हो गया और इसे 26 जनवरी से पहले उसी का माना जाता रहा है। दिल्ली में 26 जनवरी को लाल िकला प्रकरण के बाद लगने लगा आन्दोलन अब अन्तिम चरण में है; लेकिन गाज़ीपुर सीमा पर भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत हमले से बचकर जिस तरह भावुक हुए, उसके बाद आन्दोलन की दिशा और दशा दोनों बदल गयीं।  बदली परिस्थिति में अब पंजाब के साथ-साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा हरियाणा का पक्ष भी काफी मज़बूत होने लगा है। पंजाब के किसानों के दिल्ली कूच से पहले मुख्यमंत्री मनोहर लाल स्पष्ट कहते थे कि आन्दोलन पंजाब के किसानों का है, इसमें हरियाणा के किसानों की भागीदारी नाममात्र की है; लेकिन आज स्थिति कुछ और है।

कृषि कानूनों के पक्ष में रैलियाँ और जनसभाएँ कर किसानों को जागरूक करने की सरकार की मुहिम अब बन्द हो चुकी है। आन्दोलनकारी अब आर-पार की लड़ाई के लिए उतर चुके हैं। आन्दोलन को 50 से ज़्यादा किसान-मजदूर यूनियनों का समर्थन है। बातचीत में 40 यूनियनों के प्रतिनिधि हिस्सा लेते हैं। लेकिन इतने लोगों से बातचीत करके कोई निष्कर्ष निकल जाए, इसमें भी शंका ही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मिल-बैठकर बातचीत का सन्देश दिया है, लेकिन वह खुद आगे नहीं आ रहे हैं; जबकि किसान संगठन उनसे सीधे बातचीत करने के इच्छुक हैं। उन्हें पहल करके किसान नेताओं को बातचीत का न्यौता देना चाहिए। ऐसे में समाधान की कुछ उम्मीद और ज़्यादा बढ़ जाती है। देश में गृह युद्ध जैसे हालात न पैदा हों, इसके लिए सकारात्मक पहल करने की ज़रूरत है।

नरेश टिकैत की भूमिका

कृषि कानूनों पर बातचीत के लिए सबसे बड़े संगठन के तौर पर भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) है। इसमें पंजाब-हरियाणा के पदाधिकारी केंद्र सरकार से बातचीत करते हैं, पर ऐसा लगता है, जैसे भाकियू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नरेश टिकैत नहीं है। केंद्र सरकार को उन्हें विशेष तौर पर बातचीत में शामिल करने का आमंत्रण देना चाहिए। वह राकेश टिकैत के मुकाबले कुछ लचीले और किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की क्षमता रखते हैं। ऐसा संकेत वह कई बार दे चुके हैं। राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के बावजूद उनके रुख को समर्थन नहीं मिल रहा है। पिता महेंद्र सिंह टिकैत के बाद वही भाकियू के सर्वेसर्वा हैं, लेकिन आन्दोलन की कमान राष्ट्रीय प्रवक्ता के तौर पर उनके भाई राकेश टिकैत चला रहे हैं। गाज़ीपुर सीमा पर हुए प्रकरण के बाद वह जिस तरह से राष्ट्रीय किसान नेता के तौर पर उभरे हैं, उससे अन्य नेता गौण हो गये हैं। हालाँकि वह खुद को एक सदस्य के तौर पर बताते हैं, लेकिन कौन नहीं जानता कि अब आन्दोलन का प्रमुख चेहरा वही हैं।

प्रधानमंत्री दिखाएँ दरियादिली

दिल्ली की सीमाओं पर ढाई माह से ज़्यादा के आन्दोलन और दर्ज़न भर बार बातचीत के दौर के बाद प्रधानमंत्री एक फोन कॉल की दूरी की बात कहते हैं। अपने लिए नहीं, बल्कि कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के लिए। क्या नरेंद्र मोदी ऐसी पहल खुद के लिए नहीं करनी चाहिए? इसमें संकोच की किस बात का है, उन्हें दरियादिली दिखानी चाहिए। जब अमित शाह, नरेंद्र सिंह तोमर और पीयूष गोयल से किसान नेताओं की बातचीत किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँची, तो कुछ बदलाव की ज़रूरत है। प्रमुख किसान नेता सीधे प्रधानमंत्री से बात करने के इच्छुक हैं। पहल में देरी नहीं करनी चाहिए; क्योंकि जैसे-जैसे आन्दोलन लम्बा खिंचेगा वह और ज़्यादा मज़बूत होगा, जो देश के लिए अहितकारी साबित होगा।