हम अपने ही दुश्मन क्यों हैं?

भारतएक ऐसा देश है, जहाँ सभी मज़हबों के लोग रहते हैं। यहाँ रहने वाले लोगों के मज़हब ही विभिन्न नहीं हैं, बल्कि नाना प्रकार के संस्कार, त्योहार हैं। अपनी-अपनी बोलियाँ-भाषाएँ हैं। अपनी-अपनी संस्कृति, सभ्यता है। अलग-अलग तरह का खानपान है और अलग-अलग वेशभूषा है। अनेक पहलुओं पर तमाम मतभेद भी रहते हैं। परन्तु सभी भाईचारे के साथ रहते हैं। फिर भी कई बार ऐसी स्थितियाँ आती हैं, जब यह अगल-अलग खाँचों में रखने वाली चीज़ें हमारे बीच खटास पैदा कर देती हैं और यह खटास कई बार झगड़े का कारण तक बन जाती है। हालाँकि समझदार लोग न तो कभी किसी दूसरे व्यक्ति का अपमान करते हैं और न ही किसी दूसरे के मज़हब या उसकी भाषा-भूषा से चिढ़ रखते हैं। मगर कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अलगाव फैलाने में, लोगों को आपस में लड़ाने में दिलचस्पी रखते हैं। ऐसे लोग किसी के हितैषी नहीं होते; न राष्ट्र के और न राष्ट्र के लोगों के। इस तरह के लोग सिर्फ भारत में ही नहीं हैं, बल्कि पूरी दुनिया में हैं। ये लोग खुले मंचों पर विश्व बन्धुत्व की बात करते हैं और परदे के पीछे हमारी एकता में, हमारी मोहब्बत में ज़हर घोलते हैं। दरअसल, ऐसे लोगों का मकसद सिर्फ और सिर्फ अपना स्वार्थ साधना होता है। लेकिन दु:ख इस बात का होता है कि आम लोग अनेक बार ऐसे चन्द चालाक लोगों के जाल में फँस जाते हैं और आपस में झगड़ा कर बैठते हैं।

अगर आप गौर करेंगे, तो पाएँगे कि ऐसे कई झगड़े मज़हबी दीवारों की ओट लेकर कराये जाते हैं। हालाँकि किसी के बहकावे में झगड़ा करने वाले आम लोग नुकसान होने के बाद पछताते भी हैं। दरअसल, हम मज़हब के चक्कर में इतने भावुक हो जाते हैं कि यह भी नहीं समझ पाते कि जिस ईश्वर के लिए हम आपस में झगड़ रहे हैं, वह एक ही है और हम सबके अन्दर है। उसका कोई स्वरूप न होते हुए भी, वह सर्वव्यापी है। उसे किसी ने भले ही न देखा हो, पर वह सबको देख रहा है। ज़रा सोचिए, उस एक परम् सत्ता को, उस एक परमेश्वर को अलग-अलग समझने की हमारी मूर्खता से उसको कितना दु:ख होता होगा? उस ईश्वर ने हमें अपनी परम् प्रिय सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ वाहक बनाया है। हमें उस सृष्टि की सत्ता सौंपी है। क्योंकि हम इंसान हैं। सबसे अधिक बुद्धिमान हैं। सृष्टि में सभी जीव-जन्तुओं में सबसे अधिक बलवान हैं। सबसे अधिक मज़बूत हैं। फिर क्यों हम ही सबसे ज़्यादा नादानी का काम कर रहे हैं? हमने ज़मीन से लेकर ऐसी हरेक चीज़ तक बाँट रखी है, जिसे बाँटा ही नहीं जा सकता। सब कुछ बाँटने की मूर्खता में वह तो नहीं बँटा, जो हमने बाँटने की कोशिश की; मगर हम खुद बँट गये। मेरा एक शे’र है-

‘खुदा बाँटा, ज़मीं बाँटी, ज़ुबाँ-मज़हब सभी बाँटे

मगर इंसान खुद ही बँट गया ये ही हकीकत है।’

 मगर हमने इस बात को कभी स्वीकार नहीं किया कि सब कुछ बाँटने के चक्कर में हम खुद ही बँट गये। बँट ही नहीं गये, बल्कि एक-दूसरे से इतने कट गये कि अपना ज़मीर, ईमान सब कुछ बर्बाद कर बैठे। इतने नीचे गिर गये कि आज हमारी तुलना हमारे ही द्वारा जानवरों से की जाने लगी है! ताज्जुब की बात यह है कि हम इस बात पर न तो ज़रा भी शॄमदा होते हैं और न ही परेशान। इतना ही नहीं हम उलटा फख्र करते हैं कि हम सर्वश्रेष्ठ हैं।  सबसे महान् हैं। काहे के सर्वश्रेष्ठ? काहे के महान्? जब हम खुद को ही नहीं पहचान पा रहे हैं। बड़ी मोहब्बत और जतन से बनायी उस परमेश्वर की दुनिया में अराजकता, वैमनस्य, ईश्र्या, घृणा, अपराध, अमानवीयता, भेदभाव की फसल बो रहे हैं। जिसे हमें और हमारी नस्लों को कभी-न-कभी काटना पड़ेगा। फज़ा में ज़हर घोल रहे हैं। जिसका शिकार न केवल मानव जाति, वरन् बेकुसूर प्राणी भी होंगे। एक-न-एक दिन इसका परिणाम घातक ही होना है। किसके लिए? किसलिए? मज़हबों के लिए। और अपने-अपने मज़हबों का परचम लहराने के लिए। क्या बकबास काम है। मज़हब कहते हैं कि इंसान अच्छाइयों से, मोहब्बतों से, ज्ञान से, दूसरों की मदद करने से बड़ा होता है और हम अपने ही मज़हबों के विपरीत चलकर अपने को बड़ा साबित करने की कोशिश कर रहे हैं। किसलिए? सिर्फ सत्ता के लिए। अपने वर्चस्व के लिए। जबकि हम यह बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि यह दुनिया हमेशा के लिए हमारी नहीं है। इस दुनिया पर हमारी सत्ता कब तक रहेगी? शायद हम हैं, तभी तक। फिर किस बात की मारा-मारी? फिर किस बात के लिए दंगे-फसाद, खून-खराबा? क्या हम एक अपराध नहीं कर रहे हैं? जब हम अच्छी तरह जानते हैं कि हमारा कर्म हमारे यश-अपयश का कारण बनेगा; हमारे भविष्य को सुधारने-बिगाडऩे का कारण बनेगा। यहाँ तक कि अगर हम गलत रास्ते पर चलेंगे; उसकी बनायी दुनिया को बर्बाद करेंगे; किसी को सतायेंगे, तो ईश्वर हमें दण्डित करेगा। फिर भी हम बाज़ नहीं आ रहे। किसलिए? सिर्फ चन्द दिनों के सुख हासिल करने के लिए। सिर्फ अपनी चन्द ज़रूरतें पूरी करने के लिए हम अपना भविष्य यानी या कहें कि प्रारब्ध खराब कर रहे हैं। आिखर हम अपने ही दुश्मन क्यों हैं?

हमारे पुरखों, सन्त-महात्माओं ने हम इंसानों को सही रास्ते पर लाने के लिए, मोहब्बत बनाये रखने के लिए, सृष्टि की हिफाज़त के लिए ग्रन्थों को रचा। उन ग्रन्थों को अपनी-अपनी मान्यता, धाॢमकता का ज़रिया बना लिया, और फिर अपनी नाक का सवाल। क्या पागलपन है। जब सभी मज़हब कहते हैं कि ईश्वर एक ही है; तो फिर हम इस बात को क्यों स्वीकार नहीं करते? जब सभी मज़हब कहते हैं कि हमें सभी प्राणियों में प्यार बाँटना चाहिए; तो हम नफरत क्यों फैला रहे हैं? जब सभी मज़हब कहते हैं कि हमें एक-दूसरे से भेदभाव नहीं करना चाहिए; तो हम भेदभाव क्यों करते हैं? क्या हम अपने ही मज़हब के िखलाफ नहीं हैं? क्या हम सही अर्थों में इंसान हैं?