सियासी भँवर में झारखण्ड, हेमंत सरकार का जाना तय!

यह ख़बर झारखण्ड समेत पूरे देश को कभी भी सुनने के लिए मिल सकती है कि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की सदस्यता जा चुकी है और वह मुख्यमंत्री नहीं रहे। बस इंतज़ार है, राज्यपाल की घोषणा का। दरअसल झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन खदान लीज मामले में फँसे हुए हैं। ऑफिस ऑफ प्रॉफिट मामले में उनकी विधानसभा से सदस्यता जानी तय है। अर्थात् राज्य में एक बार फिर नयी सरकार का गठन होगा। झारखण्ड जैसे पिछड़े राज्य में लगातार राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण क़ायम रहना अत्यंत दु:खद है।

सन् 2014 में भाजपा को बहुमत हासिल हुआ। जब भाजपा नेता रघुवर दास ने सन् 2019 में मुख्यमंत्री के पाँच साल का कार्यकाल पूरा किया, तो लगा कि झारखण्ड की राजनीति अब परिपक्व हो गयी है। यहाँ राजनीतिक स्थिरता आ गयी है। सन् 2019 चुनाव में भी झारखण्ड की जनता ने परिपक्वता दिखाते हुए झामुमो के नेतृत्व में महागठबंधन को प्रचंड बहुमत से जिताया। झामुमो, कांग्रेस और राजद की हेमंत सोरेन के नेतृत्व में सरकार बनी। सरकार गठन के कुछ दिन बाद कोरोना संकट आ गया। इस संकट के टलते ही राजनीतिक अस्थिरता का माहौल दिखने लगा। महज़ ढाई साल बाद 2022 में झारखण्ड की राजनीति इस क़दर सियासी भँवर में फँसी कि साल गुज़रते-गुज़रते विकास की गाड़ी डगमगाने लगी है। अगस्त के दूसरे पखवाड़े से तो राज्य में केवल सरकार गिराओ और सरकार बचाओ का माहौल बना हुआ है।

सवाल उठ रहे हैं कि क्या एक बार फिर नयी सरकार का गठन होगा? महागठबंधन का अगला मुख्यमंत्री कौन होगा? क्या महागठबंधन में फूट होगी? क्या भाजपा जोड़तोड़ करके सरकार बनाने में कामयाब हो जाएगी? इसी राजनीतिक उथल-पुथल में सब लगे हैं, और इससे नौकरशाह भी अछूते नहीं हैं। नतीजतन इसका सीधा असर राज्य के विकास कार्यों पर हो रहा है।

भाजपा ने फरवरी में राज्यपाल से मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के ख़िलाफ़ खदान लीज मामले को लेकर शिकायत की थी। उन पर ऑफिस ऑफ प्रॉफिट का आरोप लगाया गया था। राज्यपाल ने चुनाव आयोग से मंतव्य माँगा था। चुनाव आयोग ने सभी पक्षों की दलील सुनने के बाद पिछले महीने 25 अगस्त को अपना मंतव्य राज्यपाल को भेजा। सूत्रों के मुताबिक, आयोग ने हेमंत सोरेन की सदस्यता समाप्त करने की सिफ़ारिश की है। अब फ़ैसला राज्यपाल को लेना है, जिसका सत्ता पक्ष, विपक्ष और आम लोगों को बेसब्री से इंतज़ार है। चुनाव आयोग ने राज्यपाल रमेश बैस को अपनी रिपोर्ट में क्या दिया है? इसकी अभी तक अधिकारिक सूचना नहीं है। लेकिन अब भाजपा के लोग ख़ुश हैं और अन्दरख़ाने कोई खिचड़ी पक रही है। झामुमो और कांग्रेस के नेताओं की साँसें अटकी हुई हैं और वे राज्यपाल से मुख्यमंत्री की सदस्यता सम्बन्धित रिपोर्ट को सार्वजनिक करते हुए अस्थिर माहौल को व्यवस्थित करने की माँग मीडिया के ज़रिये कर रहे हैं।

बता दें कि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सरकार बचाने की हर कोशिश में लगे हैं। गठबंधन को मज़बूती से बाँधे रखने के लिए उन्होंने 25 अगस्त से 5 सितंबर तक विधायकों को एक साथ रखा था। विधायकों को तीन दिन के लिए रायपुर भी शिफ्ट किया गया। अन्त में 5 सितंबर को तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने झारखण्ड विधानसभा का विशेष सत्र (ख़त्म हो चुके मानसून सत्र की अवधि बढ़ाकर) बुलाकर ख़ुद का बहुमत साबित कर दिया। उन्होंने विधानसभा में 81 विधायकों में 48 का समर्थन लेकर जनता को सन्देश दिया कि उनके नेतृत्व वाली सरकार को बहुमत हासिल है।

अगर हेमंत की सदस्यता गयी, तो इस बहुमत के कोई मायने नहीं रहेंगे। किसी भी परिस्थिति में जब नयी सरकार का गठन होगा, तो उसके मुखिया को एक बार फिर बहुमत साबित करना होगा। चाहे हेमंत दोबारा मुख्यमंत्री पद क्यों न सँभाल रहे हों। हालाँकि हेमंत सोरेन के पास न्यायालय जाने का रास्ता है। लेकिन इससे भी तत्काल कोई समाधान निकलने की उम्मीद नहीं है।

हर स्थिति से निपटेगी सरकार
अगर हेमंत की सदस्यता गयी, तो गठबंधन दोबारा हेमंत सोरेन को अपना नेता चुनकर मुख्यमंत्री बना सकता है। अगर प्रतिबन्ध नहीं लगा, तो ही हेमंत सोरेन अपनी ख़ाली हुई बरहेट विधानसभा सीट से छ: माह के भीतर फिर से निर्वाचित होकर इस पद पर क़ायम रह सकते हैं। हालाँकि भाजपा नेताओं का दावा है कि हेमंत सोरेन को कुछ वर्षों के लिए चुनाव लडऩे से अयोग्य क़रार भी दिया जा सकता है। ऐसा होने पर हेमंत सोरेन के लिए दोबारा मुख्यमंत्री बनना मुश्किल होगा। तब गठबंधन दल को नया नेता चुनना होगा।

राजनीतिक गलियारे में वैकल्पिक मुख्यमंत्री के तौर पर हेमंत के परिवार के विभिन्न सदस्यों के नामों पर चर्चा हो रही है। हेमंत सोरेन के छोटे भाई बसंत सोरेन भी विधायक हैं; लेकिन उन पर भी ऐसा ही एक मामला होने के कारण उनकी सदस्यता पर भी ख़तरा मँडरा रहा है। हेमंत सोरेन की भाभी एवं स्वर्गीय दुर्गा सोरेन की पत्नी सीता सोरेन भी विधायक हैं। लेकिन उनके नाम पर भी परिवार में सहमति बनना आसान नहीं है। ऐसे में गुरुजी यानी शिबू सोरेन से लेकर उनकी पत्नी रूपी सोरेन और हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन तक के नामों की चर्चा है। इन सभी विकल्पों पर झामुमो ने चर्चा कर अन्दरख़ाने तैयारी कर रखी है।

जारी रहेगी सियासत
केवल हेमंत सोरेन के अलावा सत्ता पक्ष और विपक्ष को मिलाकर राज्य के अन्य कई विधायकों की सदस्यता भी ख़तरे में है। चुनाव आयोग ने हेमंत के छोटे भाई बसंत सोरेन की सदस्यता पर भी मंतव्य राज्यपाल को भेज दिया है। वहीं भाजपा के समरी लाल जाति प्रमाण-पत्र को लेकर कटघरे में हैं। चुनाव आयोग ने उनसे स्पष्टीकरण माँगा है। झामुमो के विधायक सह पेयजल मंत्री मिथिलेश ठाकुर पर भी कम्पनी में पद पाने का आरोप है। चुनाव आयोग ने उपायुक्त ने रिपोर्ट माँगा था, जो भेजा जा चुका है। कभी भी आयोग क़दम उठा सकता है।

इसके अलावा भाजपा के बाबूलाल मरांडी और कांग्रेस के प्रदीप यादव पर विधानसभा न्यायाधिकरण में दलबदल का मामला चल रहा है। चर्चा है कि हेमंत सोरेन की सदस्यता जाने के बाद विधानसभा अध्यक्ष भी बाबूलाल मरांडी के मामले में जल्द फ़ैसला सुना देंगे, जो कि हेमंत के पक्ष में नहीं रहने की उम्मीद है। हाल के दिनों में कांग्रेस के तीन विधायक- इरफ़ान अंसारी, नमन विल्सन कोंगाड़ी और राजेश कच्छप कोलकाता में 49 लाख रुपये की नक़दी के साथ पकड़े गये थे। उन पर भी कैश कांड और दलबदल का मामला चल रहा है।

अधिकतर सरकारें रहीं अस्थिर
सन् 2000 में बिहार से कटकर झारखण्ड अलग राज्य बना था। इन 22 वर्षों में झारखण्ड पर 11 मुख्यमंत्रियों ने शासन किया है। अब 12वें मुख्यमंत्री बनने की चर्चा हो रही है। भाजपा और झामुमो के नेता पाँच-पाँच बार मुख्यमंत्री बने हैं। भाजपा के अर्जुन मुंडा और झामुमो के शिबू सोरेन को तीन-तीन बार मुख्यमंत्री बनने का मौक़ा मिल चुका है।

हेमंत सोरेन भी दूसरी बार मुख्यमंत्री बने हैं। वहीं भाजपा के बाबूलाल मरांडी एक बार मुख्यमंत्री बने, तो एक बार निर्दलीय मधु कोड़ा भी मुख्यमंत्री रह चुके हैं। भाजपा के रघुवर दास पाँच साल मुख्यमंत्री रहने वाले पहले और अब तक इकलौते नेता हैं। इतना ही नहीं, इन 22 वर्षों में तीन बार राष्ट्रपति शासन भी राज्य में लगा है।

राज्य में स्थिर सरकार ज़रूरी
सन् 2020 में झारखण्ड के साथ दो अन्य राज्यों- छत्तीसगढ़ और उत्तराखण्ड का भी गठन हुआ था। दोनों राज्यों में झारखण्ड जैसी स्थिति नहीं है। वहाँ पिछले 22 वर्षों में विकास का पहिया तेज़ी से घूमा है। विकास के कई काम हुए हैं। लेकिन झारखण्ड गठन का उद्देश्य भी विकास ही था; लेकिन यह राज्य हर मामले में इन राज्यों के मुक़ाबले पिछड़ा हुआ है।

युवा हो चुके राज्य के लोगों को अभी भी यही उम्मीद है कि यहाँ भी राजनीतिक परिपक्वता आएगी। राज्य में स्थिर शासन होगा। विकास होगा। जिन कारणों और सोच से अलग राज्य का गठन किया गया था, क्या उन्हें कभी कोई पूरा करेगा? अगर हाँ, तो वह दिन कब आएगा? झारखण्ड की जनता राज्य में विकास की जोह रही है, जिसके लिए राज्य में एक स्थिर सरकार का होना ज़रूरी है।