शीतयुद्ध का पुनर्जन्म !

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राष्ट्रपति विक्तोर यानुकोविच पहले भूमिगत, फिर बर्खास्त, और उसके बाद वांछित होने के बाद अब रूस में प्रकट हो गए हैं. सत्ता एक कार्यवाहक सरकार ने संभाल ली है. 25 मई को नए चुनाव होंगे. यूलिया तिमोशेंको जेल से छूट गई  हैं. 2004 वाली पहली ‘नारंगी क्रांति’ की वही नेत्री थीं. जर्मनी चहक रहा है. अमेरिका बहक रहा है. रूस दहक रहा है.

उधर, जो यूक्रेन इन घटनाओं के केंद्र में है उसकी हालत बिलखने जैसी है. वह दिवालिया हो जाने के कगार पर है. दो टुकड़ों में टूट भी सकता है. वह तत्काल 35 अरब डॉलर की सहायता मांग रहा है. अमेरिका, यूरोपीय संघ, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष–सभी उसे सहायता देने के लिए उद्यत दिख रहे हैं.

गृहयुद्ध की चपेट में आने से बाल-बाल बच गए यूक्रेन में घटनाक्रम पिछले दिनों तूफानी गति से घूमा.10 वर्षों में तीन सत्तापलट और तीन-तीन सरकारों का अधूरा कार्यकाल देख चुके इस देश में हुई हालिया हिंसा में 83 लोगों की जान चली गई. वहां हिंसा का जो उबाल सारी दुनिया ने देखा, उसकी आग में घी वास्तव में एक ऐसी घटना से पड़ा, जो हुई ही नहीं. भूतपूर्व सोवियत गणतंत्र और अब यूरोपीय संघ में शामिल लिथुआनिया की राजधानी विल्नियस में 28-29 नवंबर 2013 को एक शिखर सम्मेलन हुआ था. यूक्रेनी राष्ट्रपति विक्तोर यानुकोविच को वहां एक ‘साझेदारी समझौते’ पर हस्ताक्षर करना था.यह समझौता यूरोपीय संघ में उनके देश की पूर्ण सदस्यता का मार्ग प्रशस्त कर देता. लेकिन, यानुकोविच शिखर सम्मेलन में पहुंचे ही नहीं.

1200 पृष्ठों वाला यह समझौता, यूरोपीय संघ के अनुसार, किसी देश के सामने रखा गया अब तक का ‘सबसे व्यापक’ एवं उदार साझेदारी समझौता है. इसमें यूरोपीय संघ और यूक्रेन के बीच ‘मुक्त व्यापार क्षेत्र’ के निर्माण से लेकर हर तरह के आर्थिक, राजनीतिक, तकनीकी एवं कानूनी सहयोग के वे सारे प्रावधान हैं, जो किसी देश को यूरोपीय संघ की दुर्लभ पूर्ण सदस्यता पाने के सुयोग्य बनाते हैं. यूरोपीय संघ यूक्रेन को निकट भविष्य में ही अपनी पूर्ण सदस्यता का न केवल वचन दे रहा था, उसे अगले सात वर्षों में सवा अरब यूरो के बराबर सहायता का अलग से प्रलोभन भी दे रहा था. ऐसा विशिष्ट सम्मान पहले शायद ही किसी देश को मिला है. कारण यही हो सकता था कि भू-राजनीतिक, आर्थिक, सामरिक और प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से रूस के इस दक्षिणी पड़ोसी का यूरोप के लिए इस समय जो महत्व है, वह किसी और देश का नहीं. ललचा-फुसला कर उसे रूसी छत्रछाया से बाहर निकालना और अमेरिकी प्रभुत्व वाले पश्चिमी खेमे का अभिन्न अंग बनाना सुखद भविष्य के बीमे के समान है.

पूतिन का माथा ठनका
समझौते की शर्तों पर वार्ताएं 2007 से ही चल रही थीं. नौ दिसंबर 2011 को हुए 15वें यूक्रेनी-यूरोपीय शिखर सम्मेलन में यूक्रेनी राष्ट्रपति यानुकोविच ने स्वयं मान लिया था कि समझौते की शर्तों और शब्दावली पर अब कोई मतभेद नहीं रहा. तब भी, दो वर्ष बाद अंतिम क्षण में वे मुकर गए!  मुकर इसलिए गए, क्योंकि इस बीच रूसी राष्ट्रपति व्लादीमीर पूतिन का माथा ठनकने लगा था. लंबे समय तक शांत रहने के बाद उन्हें लगने लगा था कि यूक्रेन को यूरोपीय संघ का हिस्सा बनने से यदि अब न रोका गया, तो शायद कभी न रोका जा सकेगा. उन्होंने यूक्रेन को कुछ धमकियां दीं और साथ ही कुछ ऐसे प्रलोभन भी दिए, जो यूरोपीय संघ के प्रलोभनों से भी बढ़-चढ़ कर थे.

राष्ट्रपति पूतिन इस बात की अनदेखी नहीं कर सकते थे कि यूरोपीय संघ की सदस्यता केवल यूरोपीय संघ तक ही सीमित नहीं रहती. संघ का लगभग हर देश या तो अमेरिकी नेतृत्व वाले ‘उत्तर एटलांटिक संधि संगठन’ नाटो का भी सदस्य है या फिर देर-सवेर नाटो का भी सदस्य बन कर अपने यहां अमेरिकी सैनिकों और प्रक्षेपास्त्रों की तैनाती को स्वीकार करता है. ढाई दशक पूर्व बर्लिन दीवार गिरने के बाद विभाजित जर्मनी का एकीकरण होते ही उस समय के सोवियत संघ ने तो अपने नेतृत्व वाले ‘वार्सा सैन्य संगठन’ का तुरंत विघटन कर दिया, जबकि अमेरिका ने नाटो का विघटन करने से साफ मना कर दिया. विघटन तो क्या, इस बीच उत्तरी अमेरिका व यूरोप ही नहीं, सारे विश्व को नाटो का कार्यक्षेत्र बना दिया गया है. उस के सैनिक अफगानिस्तान तक में लड़ रहे हैं.

किएव के मैदान चौक पर जमा प्रदर्शनकारी और हिंसा
किएव के मैदान चौक पर जमा प्रदर्शनकारी और हिंसा

रूस की घेरेबंदी
रूस तभी से भन्नाया हुआ था, जब 19 नवंबर 2010 को नाटो ने एक ऐसी नई रणनीति पारित की जिसका उद्देश्य रूस के पड़ोसी पूर्वी यूरोप के देशों में प्रक्षेपास्त्र-भेदी रक्षाकवच के तौर नए किस्म के रॉकेट तैनात करना है. कहा यह गया कि ये रॉकेट तीन हजार किलोमीटर दूर तक के ईरान जैसे देशों द्वारा चलाए गए प्रक्षेपास्त्रों को आकाश में ही नष्ट कर दिया करेंगे. रूस का कहना था कि यह रक्षाकवच हमारी घेरेबंदी के समान है. यदि उद्देश्य यूरोप को रक्षाकवच प्रदान करना ही है, तो एक यूरेशियाई देश होने के नाते हमें भी इस योजना में शामिल किया जाए. हम सब मिल कर यह कवच बनाएं. लेकिन, अमेरिका और उसके पिछलग्गू नाटो देशों ने रूस को इसमें शामिल करना उचित नहीं समझा.

फरवरी 2012 से नाटो की इस योजना पर काम शुरू हो गया है. 2020 तक पोलैंड, चेक गणराज्य और बाल्टिक देशों सहित कई देशों में दर्जनों अमेरिकी रॉकेट तैनात किये जाएंगे. अमेरिका और यूरोपीय संघ उन्हें यूक्रेन में भी देखना चाहेंगे. नाटो के इस रक्षाकवच का कमान केंद्र जर्मनी में रामश्टाइन स्थित अमेरिकी वायुसैनिक अड्डे को बनाया गया है. अमेरिका और रोमानिया ने 31 जनवरी 2012 को एक अलग समझौता किया है. इसके अंतर्गत अमेरिका 2015 से रोमानिया के देवेशेल्यू वायुसैनिक अड्डे पर 24 ‘एसएम-3’ प्रक्षेपास्त्र-भेदी रॉकेट तैनात करना शुरू कर देगा.

कल्पना करें कि यदि चीन नेपाल में इसी तरह का कोई रक्षाकवच बनाने लगे, तो भारत क्या उसे बधाई देगा?  साफ है कि रूसी राष्ट्रपति व्लादीमीर पूतिन भी भूल नहीं सकते थे कि 1962 में जब ख्रुश्चेव ने क्यूबा में सोवियत परमाणु राकेट भेजे, तो अमेरिका ने किस तरह आसमान सिर पर उठा लिया था. इसलिए रूस ने पिछले वर्ष ‘इस्कांदर एम’ नाम की अपनी 10 रॉकेट प्रणालियां– जिन्हें नाटो की शब्दावली में ‘एसएस-26 स्टोन’ कहा जाता है– यूरोपीय संघ वाले पूर्वी यूरोपीय देशों के निकट तैनात कर दीं. 280 किलोमीटर मारकदूरी वाले ये रॉकेट परमाणु और पारंपरिक, दोनों तरह के अस्त्र ले जा सकते हैं, हालांकि वे सही मायने में प्रक्षेपास्त्रभेदी नहीं हैं. उन्हें चलायमान प्रक्षेपण-वाहनों पर से दागा जाता है.

ukशीतयुद्ध की वापसी
इस तरह देखें तो बर्लिन दीवार गिरने के पहले का पूर्व-पश्चिम शीतयुद्ध एक बार फिर लौट आया है. एक बार फिर अमेरिका और उसके पिछलग्गू रूस को नीचा दिखाने के लिए उसकी घेरेबंदी करने लगे हैं. रूस को वे तौर-तरीके अपनाने पर पुनः मजबूर होना पड़ रहा है, जिनसे उसका सोवियत-काल कलंकित हुआ था. यूक्रेन भूतपूर्व सोवियत संघ का एक ऐसा बहुत ही महत्वपूर्ण अंग रहा है, जिसके खेत न केवल अन्न के अंबार और कारखाने शस्त्र-भंडार रहे हैं, बल्कि जिसने सोवियत-काल में लेओनिद ब्रेज़नेव जैसे कई चोटी के नेता भी दिए थे. रूस और यूक्रेन का सदियों लंबा साझा इतिहास है. 1654 में यूक्रेन स्वेच्छा से जारशाही रूस का हिस्सा बना था. उस समय बोखदान ख्मेल्नित्स्की नाम के एक यूक्रेनी राष्ट्रनायक ने तत्कालीन पोलिश राजशाही के विरुद्ध विद्रोह का झंडा उठा कर यूक्रेन का जारशाही रूस में विलय कराया था. इसी कारण पूर्वी यूक्रेन में आज भी रूसी भाषा की प्रधानता और रूस के साथ निकटता के प्रति व्यापक समर्थन है. पूर्वी यूक्रेन का ओदेसा शहर रूसी जलसेना के काला सागर बेड़े का आज भी मुख्यालय है.

यूक्रेन को रूस से अलग करने का पहला प्रयास प्रथम विश्वयुद्ध के अंतिम वर्ष, 1918 में, उसके तब के और अब के भी प्रतिद्वंद्वी जर्मनी ने ही किया था. इस वर्ष, यानी जुलाई-अगस्त 1914 में, प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने की शतवार्षिकी पड़ रही है. जर्मनी की ही सहायता और संभवतः उसी के पैसे से रूसी समाजवादी क्रांति के महानायक व्लादीमीर लेनिन स्विट्जरलैंड में अपने निर्वासन को त्याग कर 1917 में रूस लौटे थे. युद्ध का अंतिम वर्ष आने तक जर्मनी उत्तर में बाल्टिक सागर से लेकर दक्षिण में काला सागर तक के अपने कब्जे वाले भूभाग पर अपनी पसंद के कई पिछलग्गू देश बना चुका था. यूक्रेन उनमें सबसे प्रमुख था.

जर्मनी सोच रहा था कि वह यूक्रेन के अत्यंत उपजाऊ खेतों के अनाज से अपनी जनता और पश्चिमी मोर्चें पर अपने सैनिकों के पेट भरेगा. लेकिन, उसका यह ख्याली पुलाव पक नहीं पाया. यूक्रेनी जनता ने जर्मनी की कठपुतली सरकार को चलने नहीं दिया. युद्ध में जर्मनी और उसके साथी ऑस्ट्रिया की हार होते ही लेनिन की लाल सेना ने 1920 में यूक्रेन पर कब्जा कर लिया. दिसंबर 1922 में रूसी दबदबे वाले कई देशों को मिला कर सोवियत संघ की स्थापना होने के साथ ही यूक्रेन एक सोवियत गणतंत्र बन गया. 1991 में वह दुबारा एक स्वतंत्र देश तब बना, जब बर्लिन दीवार गिरने और जर्मनी के फिर एक होने के साथ ही स्वयं सोवियत संघ का विघटन हो गया. जर्मनी, यूरोपीय संघ और अमेरिका तभी से उसे रूस से परे हटाने और अपने गुट में मिलाने के लिए मचल रहे हैं.

‘चलो पश्चिम’ चला नहीं
यूक्रेनी नेता और जनता भी नई स्वाधीनता के समय से ही इस उलझन में हैं कि किसका हाथ पकड़ा और किसका छोड़ा जाए. एक तरफ यूरोपीय संघ द्वारा दिखाया जा रहा कथित असीम संभावनाओं का सब्जबाग है, तो दूसरी तरफ रूस के साथ सदियों पुरानी स्लाव उद्भव वाली जातीय बिरादरी. इसी दुविधा के बीच तथाकथित ‘नारंगी क्रांति’ (ऑरेंज रिवल्यूशन) के बाद 2004 में हुए चुनावों में अभी-अभी अपदस्थ राष्ट्रपति विक्तोर यानुकोविच को उस समय राष्ट्रपति बने विक्तोर युश्चेंको के हाथों मात खानी पड़ी थी. युश्चेंको और उस समय मात्र 44 वर्ष की उनकी सुंदर युवा प्रधानमंत्री यूलिया तिमोशेंको ने– जनवरी 2005 में अपना पदभार संभालते हुए– यूरोपीय संघ और नाटो, दोनों की  सदस्यता पाने पर लक्षित ‘चलो पश्चिम’ नीति अपनाने की घोषणा की थी. लेकिन, दोनों नेता न तो जनता को वैसा स्वच्छ प्रशासन दे पाए और न देश की आर्थिक दशा ही सुधार पाए, जिसके वादे पर वे चुनाव जीते थे. सात ही महीनों के भीतर राष्ट्रपति युश्चेंको और डॉलर-करोड़पति उनकी महिला प्रधानमंत्री यूलिया तिमोशेंको के आपसी संबंधों में भी कुछ ऐसे मरोड़ आ गए कि राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री की छुट्टी कर दी. इस सबसे न तो यूरोपीय संघ ने और न ही नाटो ने उस समय ‘चलो पश्चिम’ वाली उनकी बातों को गंभीरता से लिया.

लेकिन, 2010 में हुए पिछले चुनावों के बाद स्थिति एकदम बदल गई. तत्कालीन राष्ट्रपति युश्चेंको मतदान के पहले दौर में ही औंधे मुंह गिरे. दूसरे दौर में यूलिया तिमोशेंको रूस-समर्थक समझे जाने वाले उन्हीं विक्तोर यानुकोविच से हार गईं जिनके विरुद्ध 2004 में उन्होंने ‘नारंगी क्रांति’ का नेतृत्व किया था. यानुकोविच स्पष्ट बहुमत के साथ नए राष्ट्रपति बने. फरवरी 2010 में अपने पदारोहण के समय उन्होंने कहा कि यूक्रेन अपने आप को ‘रूस और यूरोपीय संघ के बीच सेतु समझता है,’ इसलिए दोनों के प्रति तटस्थ रहेगा. यूलिया तिमोशेंको को उन्होंने 2011 में इस आरोप में जेल भिजवा दिया कि पिछली सरकार में प्रधानमंत्री रहने के दौरान उन्होंने अपने पद का भारी दुरुपयोग किया था. जर्मनी सहित पश्चिमी देशों ने उन्हें जेल से छुड़ाने के लिए एड़ियां घिस डालीं, पर सफल नहीं हो पाए.

रूस ये सारी घटनाएं तब तक शांतिपूर्वक देखता रहा, जब तक यूरोपीय संघ ने यह घोषणा नहीं कर दी कि नवंबर 2013 में लिथुआनिया की राजधानी विल्नियस में एक ऐसा शिखर सम्मेलन होगा जिसमें भूतपूर्व सोवियत गणराज्यों मोल्दाविया और आर्मेनिया के साथ-साथ यूक्रेन भी यूरोपीय संघ की सह-सदस्यता जैसे साझेदारी समझौते पर हस्ताक्षर करेगा.

उल्लेखनीय है कि ‘संयुक्त राज्य यूरोप’ बनने का आकांक्षी यूरोपीय संघ अभी से इतना भारी-भरकम, समस्या-ग्रस्त और अहंकारी हो गया है कि बेरोजगारी और ऋणों के बोझ से कराह रहे अपने वर्तमान 28 सदस्य देशों के बीच ही संगति नहीं बैठा पा रहा है. ऐसे में, भूतपूर्व सोवियत संघ का हिस्सा रहे देशों को अपने साथ बांधने का 2009 से ‘पूर्वी साझेदारी’ (ईस्टर्न पार्टनरशिप) नाम से एक ऐसा जोखिम भरा कार्यक्रम भी चला रहा है, जिसके अंतर्गत यूक्रेन, आर्मेनिया और मोल्दाविया के अतिरिक्त बेलारूस, जार्जिया और अजरबैजान पर भी सदस्य बनने के लिए डोरे डाले जा रहे हैं. आर्मेनिया, अजरबैजान और जार्जिया तो यूरोप में पड़ते ही नहीं, एशिया में पड़ते हैं, तब भी उन्हें यूरोपीय संघ की तरफ खींचा जा रहा है. रूस इसे अपनी घेरेबंदी नहीं तो और क्या माने?

रूसी चाबुक और चाशनी
विल्नियस  में 28 नवंबर के यूरोपीय शिखर सम्मेलन से कुछ ही दिन पहले रूस ने अचानक कुछ ऐसे नए नियमों की घोषणा कर दी, जिन के कारण यूक्रेन और रूस के बीच की सीमा पर ट्रांजिट यातायात लगभग ठप पड़ गया. यूक्रेन से मांस और रेलवे वैगनों का आयात भी रोक दिया गया. अस्त्र-शस्त्र बनाने वाली यूक्रेनी कंपनियों के साथ सहयोग बंद कर देने की धमकी दी गई. रूस की सरकारी गैस कंपनी ‘गाजप्रोम’ ने कहा कि यूक्रेन गैस-आपूर्ति के एक अरब अस्सी करोड़ डॉलर के बराबर बकाये का अविलंब भुगतान करे, वर्ना गैस की आपूर्ति बंद कर दी जाएगी. यूक्रेन के आर्थिक जगत और स्वयं राष्ट्रपति यानुकोविच के हाथ-पैर फूलने लगे. उन्होंने रूसी राष्ट्रपति पूतिन से कई मुलाकातें व टेलीफोन वार्ताएं कीं. आखिरकार जब उन्होंने तय कर लिया कि 28 नवंबर को वे विल्नियस  शिखर सम्मेलन में नहीं जाएंगे और यूरोपीय संघ के साथ समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करेंगे, तब रूसी राष्ट्रपति ने भी उन्हें पुरस्कृत करने का मन बना लिया. उन्होंने आश्वासन दिया कि यूक्रेन के लिए रूसी प्राकृतिक गैस की दर एक-तिहाई घटा दी जाएगी और अपनी आर्थिक समस्याओं से निपटने के लिए उसे 15 अरब डॉलर के बराबर उदार ऋण दिए जाएंगे.

तब तक यूक्रेन की राजधानी कियेव के केंद्रीय चौक ‘मैदान’ पर उन लोगों की भीड़ जुटनी शुरू हो गई थी जो रूस और राष्ट्रपति यानुकोविच के विरोधी थे और यूरोपीय संघ के फ्रांस और जर्मनी जैसे देशों की चमक-दमक से चकाचौंध थे. इस प्रचार के बहकावे में आ गए थे कि केवल यूरोप-अमेरिका का लोकतंत्र ही मोक्ष-तंत्र है, बाकी सब परलोकतंत्र है. न तो देख पा रहे थे और न देखना चाहते थे कि यूरोपीय संघ की सदस्यता उन के देश को एक नए शीतयुद्ध के भंवर में घसीट सकती है. तीन महीनों से लगातार हर दिन भीड़ जुटती रही. चौबीसों घंटे धरने और प्रदर्शन चलते रहे. कड़ाके की सर्दी, बर्फ और बरसात की अनदेखी होती रही. सैकड़ों, हजारों, कभी-कभी एक लाखों लोग उमड़ते रहे. तोड-फोड़, आगजनी, अराजकता का राज बढ़ता गया.

क्लिच्को, तिमोशेंको और यानुकोविच
क्लिच्को, तिमोशेंको और यानुकोविच

बॉक्सिंग विश्व चैंपियन अगला राष्ट्रपति­?
भीड़ को डटे रहने का भाषण पिलाने और किंकर्तव्यविमूढ़ सरकार के साथ वार्ताएं चलाने में एक नाम सबसे नामी बन गया– विताली क्लिच्को. आयु 43 वर्ष. कद दो मीटर. हैवीवेट बॉक्सिंग के कई बार के विश्व चैंपियन. प्रथमाक्षर संक्षेप के अनुसार ‘ऊदार’ नाम की पार्टी के सर्वेसर्वा. जर्मन शहर हैम्बर्ग में एक मार्केटिंग मैनेजमेंट कंपनी ‘केएमजी’ के मालिक– और कुछ लोगों के अनुसार, यूक्रेन में जर्मनी के एजेंट भी. विताली क्लिच्को 1996 से हैम्बर्ग में रहते रहे हैं. वहां अब भी उनका एक घर है. जर्मन चांसलर अंगेला मेर्कल से भी मिलते रहते हैं. मेर्कल चाहती हैं कि वे ही यूक्रेन के अगले राष्ट्रपति बनें. जर्मनी के साथ-साथ उन्हें यूरोपीय रूढ़िवादी पार्टियों के संघ का भी आशीर्वाद प्राप्त है. जर्मनी के म्युनिक शहर में हर साल जनवरी में होने वाले अंतरराष्ट्रीय रक्षानीति सम्मेलन में इस बार अमेरिकी विदेशमंत्री जॉन केरी और नाटो के महासचिव रासमुसन सहित अनेक पश्चिमी नेता विताली क्लिच्को के साथ मिल-बैठने के लिए बेचैन होते देखे गए.

क्लिच्को और उनकी पार्टी के प्रमुख सदस्यों को राजनीति का ककहरा जर्मन चांसलर मेर्कल की पार्टी सीडीयू द्वारा संचालित ‘कोनराड आदेनाउएर प्रतिष्ठान’ ने सिखाया है. यह प्रतिष्ठान ही उनकी पार्टी को जर्मनी की ओर से ‘लॉजिस्टिक सपोर्ट’ देता है. इस ‘समर्थन’ के लिए चांसलर मेर्कल के साथ क्लिच्को की सबसे नयी मुलाकात गत 17 फरवरी को बर्लिन में हुई थी. ‘जर्मनी और यूरोपीय संघ वर्तमान संकट के एक सकारात्मक अंत के लिए योगदान देने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे,’ चांसलर मेर्कल ने क्लिच्को का मनोबल बढ़ाते हुए कहा. 2010 में उन्हें जर्मनी के एक सरकारी अलंकरण वाले क्रॉस से विभूषित भी किया जा चुका है. कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि कियेव के मैदान-चौक पर जो दंगे हुए हैं और जो खून बहा है, उन्हें विताली क्लिच्को के माध्यम से जर्मनी ने ही भड़काया है. जर्मनी क्लिच्को को यूक्रेन का वह यशस्वी नेता बनते देखना चाहता है, जो यूक्रेन को एक दिन यूरोपीय संघ की गोद में बिठा कर ही दम लेगा. चीन के बाद संसार की दूसरी सबसे बड़ी निर्यात-प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देश जर्मनी की नजर चार करोड़ 70 लाख जनसंख्या वाले यूक्रेन के उस बाज़ार पर है, जहां फिलहाल सब कुछ बेचा जा सकता है. उसके प्राकृतिक संसाधनों का निर्बाध दोहन हो सकता है. वे सस्ते इंजीनीयर, डॉक्टर तथा औद्योगिक कुशलकर्मी भी वहां मिल सकते हैं जिनकी जर्मनी में भारी कमी पड़ने वाली है.

‘अमेरिका तुम्हारे साथ है’
28 देशों वाला यूरोपीय संघ एक ऐसी मालगाड़ी है, जर्मनी जिसका इंजन है. इंजन जहां जाएगा, मालगाड़ी भी वहीं पहुंचेगी ही. बाद में अमेरिका भी वहां पहुंचने और बहती गंगा में हाथ धोने से नहीं चूकता. 1990 वाले दशक में तत्कालीन युगोस्लाविया को खंडित करने के अभियान में यह रणनीति खरी उतर चुकी है. अब बारी है सीधे रूस के पड़ोस में सेंध लगाने की. वियतनाम युद्ध में भाग ले चुके 77 वर्षीय अमेरिकी सेनेटर जॉन मैकेन ने गत दिसंबर में कियेव के मैदान-चौक पर जमा यानुकोविच-विरोधियों को संबेधित करते हुए कहा– ‘यूक्रेन के लोगों, यही मौका है! स्वतंत्र दुनिया तुम्हारे साथ है! अमेरिका तुम्हारे साथ है!’

अमेरिका  के एक भूतपर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ज़्बिग्नियेव ब्रेज़िन्स्की अपनी पुस्तक ‘द ग्रैंड चेस बोर्ड’ (शतरंज की महाबिसात) में वर्षों पहले लिख चुके हैं कि अमेरिका क्यों यूक्रेन का साथ देगा– ‘यूक्रेन के बिना रूस मिल-मिलाकर बस एक एशियाई साम्राज्यवादी देश रह जायेगा.’ मध्य एशियाई देशों के झगड़ों में घसीटे जाने का खतरा तब उस पर मंडराया करेगा. लेकिन, यदि यूक्रेन को वह अपने नियंत्रण में रख पाता है, तो वह एक ‘शक्तिशाली साम्रज्यवादी सत्ता’ कहलाएगा. ब्रेज़िन्स्की का यह कथन अमेरिका की विदेशनीति का आज भी आधारभूत सिद्धांत है. यानी, रूस को कमजोर करना है, तो बस यूक्रेन को उससे अलग कर दो.

भाड़े के क्रांतिकारी
जर्मनी और यूरोप के ही नहीं, अमेरिका के भी दर्जनों सरकारी और गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) कियेव में दंगाइयों की भीड़ जमा करने, भीड़ को खिलाने-पिलाने और घायलों की दवा-दारू के लिए खुले हाथ पैसे लुटा कर यही कर रहे हैं. ऐसे ही एक धन्नासेठ जॉर्ज सोरोस ने एक ऑनलाइन पत्रिका से कहा कि उनके बनाए ट्रस्ट स्लोवाकिया में व्लादीमीर मेचियर, क्रोएशिया में फ्रान्यो तुजमान और युगोस्लाविया में स्लोबोदान मिलोशेविच को गिराने में हाथ बंटा चुके हैं. उनका ‘ओपन सोसायटी फाउन्डेशन’ अब यही काम यूक्रेन में कर रहा है. अमेरिका की पूर्व विदेशमंत्री मैडलेन ऑल्ब्राइट जैसे बहुत से वर्तमान या पुराने सरकारी प्रतिनिधियों सहित अनेक नामी-गिरामी लोग इस फाउंडेशन को अपना सहयोग देते हैं. कोका-कोला, एक्सन मोबाइल या वॉशिंगटन टाइम्स जैसी बड़ी-बड़ी कंपनियां भी किसी-न-किसी ट्रस्ट, फाउन्डेशन या एनजीओ की आड़ लेकर यूक्रेन में सक्रिय हैं.

कहने की आवश्यकता नहीं कि बाहर से जो स्वतःस्फूर्त जन-आन्दोलन लगता है, वह भीतर से पूर्व-पश्चिम शीतयुद्ध वाले दिनों को पुनर्जीवित करने की सुनियोजित योजना है. फिलहाल यह योजना सफल होती लग रही है. पश्चिमी गुट का पलड़ा भारी है. लेकिन, इस गुट के प्रमुख देश जर्मनी की ही कहावत है, ‘शाम बीतने से पहले दिन की प्रशंसा नहीं करनी चाहिये.’ वैसे भी, देखने में यही आता है कि सत्ता-पलट क्रांतियां अंततः भ्रांतियां ही सिद्ध होती हैं.