शिक्षा क्षेत्र में अब सरकार की परीक्षा

लोग मॉल में अक्सर ख़रीदारी और सिनेमा के लिए जाते हैं। लेकिन देश की राजधानी दिल्ली के सिलेक्ट सिटी वॉक मॉल में इस 14 से 20 नवंबर यानी राष्ट्रीय बाल दिवस से लेकर विश्व बाल दिवस तक सांकेतिक पैन्डेमिक क्लास रूम का अनावरण किया गया। इस कक्षा में बेशक बच्चे नहीं थे; लेकिन मेजें और कुर्सियाँथीं। मेजों पर किताबें, पेंसिल बॉक्स आदि थे। यह दृश्य उन लाखों बच्चों की उस दुर्दशा की ओर ध्यान आकर्षित कर रहा था, जो वैश्विक महामारी कोरोना वायरस की वजह से लम्बे समय से स्कूल नहीं गये हैं।

ग़ौरतलब है कि इस सांकेतिक पैन्डेमिक क्लास रूम का आयोजन यूनिसेफ इंडिया ने बाल दिवस सप्ताह के मौक़े पर किया था। कोरोना महामारी ने देश के बच्चों की शिक्षा को प्रभावित किया है। इस बाबत हाल ही में जारी एक देशव्यापी सर्वे ने नीति निर्धारकों, शैक्षणिक चिन्तकों और सरकारी तंत्र के सामने जो तस्वीर उकेरी है, उसके महत्त्व को समझना ज़रूरी है। असर-2021 (एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट-2021) के एक सर्वे से पता चलता है कि पिछले एक साल में सरकारी स्कूलों में दाख़िलों में सात फ़ीसदी की वृद्धि और निजी स्कूलों में नौ फ़ीसदी की गिरावट आयी है। निजी स्कूलों में यह गिरावट उल्लेखनीय है। पढ़ाई के लिए डिजिटल डिवाइस तक सबकी पहुँच नहीं थी। ख़ासकर निचली कक्षाओं में पढऩे वाले बच्चों को इसका इस्तेमाल बहुत कम करने का मौक़ा दिया गया।

राज्य सरकारें सरकारी स्कूलों में नामांकन में वृद्धि वाले आँकड़ों को अपनी उपलब्धि के तौर पर प्रस्तुत कर सकती हैं। मगर आने वाला वक़्त बताएगा कि क्या वृद्धि का यह रुझान आगे भी जारी रहेगा? और सरकारें इस रुझान को बनाये रखने के लिए क्या अतिरिक्त प्रयास करती हैं। शिक्षातंत्र में कितना सुधार करती हैं? और बजट कितना बढ़ाती हैं? ये सवाल महत्त्वपूर्ण हैं। क्योंकि केंद्र सरकार की प्राथमिकताओं में देश में शिक्षा का निजीकरण भी शामिल है। कोरोना महामारी ने अधिकतर लोगों को और अधिक ग़रीब बना दिया है।

बीते साल देश के विज्ञान और पर्यावरण केंद्र संगठन ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि 22 साल में पहली बार ग़रीबी का स्तर बढ़ेगा। भारत में भी एक करोड़ 20 लाख ग़रीब और जुड़ेंगे, जो दुनिया में सबसे अधिक हो सकते हैं। इस सन्दर्भ में यह सर्वे इसी ओर इशारा करता है कि नामांकन के मामले में निजी स्कूलों से सरकारी स्कूलों के आगे निकलने की एक अहम वजह मौज़ूदा महामारी में ग़रीबी का बढऩा और निम्न आय वाले रिहायशी इलाक़ों में सैकड़ों निजी स्कूलों का बन्द होना भी है। आय के सिकुड़ते साधनों ने अभिभावकों को यह फ़ैसला लेने को बाध्य किया होगा।

ग़ौरतलब है कि असर-2021 के लिए प्रथम नामक संस्था ने यह सर्वेक्षण सितंबर-अक्टूबर, 2021 में देश के 25 राज्यों के 581 ज़िलों और तीन केंद्र शासित राज्यों के 17,184 गाँवों के 7,299 स्कूलों के 75,234 बच्चों पर किया गया। सर्वे करने वालों ने प्राइमरी स्तर तक की शिक्षा मुहैया कराने वाले सरकारी स्कूलों के अध्यापकों और मुख्य अध्यापकों से भी बातचीत की। इसमें पाँच से 16 वर्ष की आयु-वर्ग के बच्चों से फोन पर बातचीत की गयी। यह सर्वेक्षण नामांकन, शिक्षण सामग्री तक पहुँच, डिजिटल उपकरणों की उपलब्धता और उनके इस्तेमाल आदि पर केंद्रित था। सर्वेक्षण बताता है कि पिछले एक साल में सरकारी स्कूलों में नामांकन 65.8 फ़ीसदी से बढक़र 70.3 फ़ीसदी हो गया है। बीते दो साल से लगातार सरकारी स्कूलों में नामांकन में वृद्धि और निजी स्कूलों में नामांकन में गिरावट जारी है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में साल 2018 की तुलना में 2021 में 13.2 फ़ीसदी की सबसे अधिक वृद्धि देखी गयी। केरल में यह वृद्धि दर 11.9 फ़ीसदी है। तेलगांना को छोडक़र, दक्षिणी राज्यों के सभी सरकारी स्कूलों में आठ फ़ीसदी से अधिक की वृद्धि देखी गयी है।

सन् 2006 से सन् 2018 तक यानी 12 साल में निजी स्कूलों में नामांकन में वृद्धि का रुझान लगातार बना रहा और सन् 2018 में यह दर 30 फ़ीसदी तक पहुँच गयी थी। लेकिन बीते दो साल में यह रुझान पलट रहा है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में अचानक कोई बड़ा बदलाव आ गया, जिसने भारतीय ग्रामीण मानस को यह फ़ैसला उठाने को विवश कर दिया हो? ऐसा नहीं है। कोरोना महामारी की मार यानी आर्थिक मंदी, तंगी और शहरों से गाँव वापसी, कम फीस वाले निजी स्कूलों के बन्द होने सरीखे कारण साफ़ नज़र आते हैं। 62.4 फ़ीसदी लोगों ने आर्थिक तंगी व 15.5 फ़ीसदी ने पलायन को वजह बताया।

असर की सन् 2005 से प्रकाशित हो रही रिपोर्ट हर साल देश की शिक्षा के स्तर को सरकार व अन्य लोगों के सामने सार्वजनिक करती है। कोरोना महामारी के शुरुआती दौर में भी देश में शिक्षा का स्तर चिन्ताजनक ही था। तीसरी कक्षा तक के क़रीब 70 फ़ीसदी बच्चे अभी भी सरल पाठ नहीं पढ़ पाते हैं। कोरोना-काल में तो देश में लम्बे समय तक 15 लाख स्कूलों के क़रीब 25 करोड़ बच्चे स्कूल नहीं जा सके। पहली तथा दूसरी कक्षा के ही तीन में से एक बच्चे ने स्कूल का मुँह तक नहीं देखा है। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि बच्चे पढ़ाई में कितने और पिछड़ गये होंगे?

इधर नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में कहा गया है कि अगर तीसरी कक्षा तक बच्चे पढऩा और साधारण गणित नहीं सीख लेते हैं, तो बाक़ी शिक्षा नीति का कोई मतलब नहीं रहेगा। बच्चों की सुरक्षा के मद्देनज़र ऑनलाइन पढ़ाई का बंदोबस्त किया गया; लेकिन इसके बावजूद अधिकांश राज्यों के बच्चों को पढ़ाई के स्तर पर भारी नुक़सान हुआ है। कोरोना महामारी, जो एक स्वास्थ्य संकट के तौर पर शुरू हुई और बाद में लम्बे समय तक स्कूलों के बन्द रहने के चलते तेज़ी से पढ़ाई-संकट में बदल गयी; आज भी पढ़ाई में बड़ी बाधा बनी हुई है।

यूनिसेफ इंडिया के भारत प्रतिनिधि यासुमासा किमारा के अनुसार, इस प्रतीकात्मक महामारी कक्षा में हरेक मेज उन लाखों बच्चों को समर्पित है, जिन्होंने पढ़ाई सम्बन्धित चुनौतियों का सामना किया है। दुर्भाग्यवश सबसे संवेदनशील स्कूल बन्द होने की सबसे बड़ी क़ीमत चुका रहे हैं और बहुत-से बच्चे तो पढऩा-लिखना ही भूल गये होंगे। आँकड़ों के अनुसार, सन् 2018 में 38.9 फ़ीसदी भारतीय परिवारों के पास स्मार्टफोन थे। लेकिन साल 2021 तक यह आँकड़ा 67.6 फ़ीसदी तक पहुँच गया है। लगभग 28 फ़ीसदी परिवारों ने बताया कि उन्होंने बच्चों की पढ़ाई के लिए ही इसे ख़रीदा, मगर 26.1 फ़ीसदी बच्चे, विशेषतौर पर युवा इसका इस्तेमाल करने के लिए अभी भी संघर्षरत हैं। यानी यह साफ़ हो गया है कि स्मार्टफोन से पढ़ाई सभी बच्चे नहीं कर पा रहे हैं। इसमें नेटवर्क से लेकर इंटरनेट रिचार्ज कराने के लिए पैसों का अभाव और कुछ जगह पैसा होने पर भी इंटरनेट कनेक्शन की उपलब्धता का न होने जैसी दिक़्क़तें सामने आयी हैं। अब जब सरकारी स्कूलों में बीते दो साल से दाख़िले लगातार बढ़े हैं, तो सरकार के समक्ष अभिभावकों के इस आकर्षण को बनाये रखने की चुनौती है; जो चाहे विवशता के चलते ही बनी है। इस सन्दर्भ में दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार अभिभावकों का सरकारी शिक्षातंत्र पर भरोसा बनाने के लिए बेहतर क़दम उठाती नज़र आती है। हाल ही में देश के मेडिकल कॉलेजों में दाख़िले के लिए आयोजित नीट परीक्षा के नतीजे घोषित हुए, जिसमें दिल्ली के सरकारी स्कूलों के 496 छात्र उत्तीर्ण हुए हैं। दूसरे राज्यों की सरकारों और केंद्र सरकार को भी दिल्ली सरकार की शिक्षा नीति से सीख लेनी चाहिए।

दिल्ली सरकार ने छात्रों के लिए कौशल पाठ्यक्रम (स्किल कोर्सेस) भी शुरू किये हैं। संरक्षक कार्यक्रम (मेंटोर प्रोग्राम) भी शुरू हो गया है। यहाँ पर दृष्टि (विजन) के साथ-साथ मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति का होना भी मुख्य भूमिका निभाता है। शिक्षा के विस्तृत सरकारी ढाँचे को नये उपकरणों से लैस करना अनिवार्य है। सरकारी स्कूलों में अध्यापकों के रिक्त पदों को जल्द-से-जल्द भरा जाना चाहिए; यह वक़्त की माँग है।

कहने का मतलब यह है कि यह कोरोना-काल में बच्चे पढ़ाई में पीछे रह गये हैं। शिक्षा और बच्चों के शैक्षणिक व बुध्दि के विकास की भरपायी के लिए प्रभावशाली, परिणामोन्मुख प्रयासों के लिए भी अध्यापकों की आवश्यकता भी है। बजट भी बढ़ाना होगा। जहाँ तक केंद्रीय शिक्षा बजट का सवाल है, तो यह केंद्र सरकार की नीयत पर सवाल खड़े करता है। वित्त वर्ष 2020-2021 में शिक्षा मंत्रालय का बजट 99,300 करोड़ था, जो कि वित्त वर्ष 2021-2022 में घटकर 93,224 करोड़ कर दिया गया। जबकि केंद्र सरकार को मालूम है कि महामारी के दौरान बच्चों की शिक्षा प्रभावित हुई है।

राष्ट्रीय स्तर पर सन् 2018 में 30 फ़ीसदी से कम बच्चे निजी ट्यूशन लेते थे; लेकिन मौज़ूदा साल 2021 में यह अनुपात क़रीब 40 फ़ीसदी हो गया है। निजी ट्यूशन का मतलब अभिभावकों की जेब पर अतिरिक्त भार पडऩा है, जो कि इस दौर में और भी कठिनाई भरा है। सैकड़ों अभिभावक महँगी ब्याज दर पर क़र्ज़ लेकर अपने बच्चों को ट्यूशन भेजते हैं। स्कूलों में अगर पढ़ाई का स्तर बढिय़ा हो, तो इस ट्यूशन के रुझान में कमी लायी जा सकती है। फ़िलहाल चुनौती यह है कि कोरोना महामारी ने बच्चों की शिक्षा का जो नुक़सान किया है, उसकी भरपाई के लिए केंद्र सरकार के अलावा राज्य सरकारें क्या क़दम उठाती हैं?