विज्ञान की अमूर्त दुनिया और विवेक

कोविड-19 से सम्बन्धित तथ्यों को लेकर, जिस प्रकार के असमंजस की स्थिति है, उससे हममें से कई ङ्क्षककर्तव्यविमूढ़ हैं। अनेक लोगों को मीडिया, अपनी सरकारों और विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे संगठनों के माध्यम से प्रचारित करवाये जा रहे अनेक तथ्यों पर संदेह हो रहा है। लेकिन हम प्राय: उन्हें सार्वजनिक मंचों पर रखने में संकोच महसूस कर रहे हैं।

अनेक बुद्धिजीवियों का कहना है कि वे समझ नहीं पा रहे हैं कि जो चीज़ें उनके सामने विज्ञान के हवाले से परोसी जा रही हैं, उन पर वे कैसे सवाल उठाएँ। इसका मुख्य कारण है कि हमने अकादमिक विशेषज्ञता को सहज-विवेक और अनुभवजन्य ज्ञान के साथ अन्योन्याश्रित रूप से विकसित करने के लिए कोई संघर्ष नहीं किया है। हम भूल चुके हैं कि विवेक को खरीदा नहीं जा सकता और अनुभव की प्रमाणिकता को खण्डित नहीं किया जा सकता, जबकि विशेषज्ञता अपने मूल रूप में ही बिकाऊ होती है और कथित विशुद्ध विज्ञान मनुष्यता के लिए निरर्थक ही नहीं, बल्कि बहुत खतरनाक साबित हो रहा है।

2007 का एक प्रसंग याद आता है। यह प्रसंग इसलिए अधिक प्रासंगिक है, क्योंकि इसका एक पक्ष कोविड-19 के भय को अपनी कथित मॉडलिंग से अनुपातहीन बनाने वाले इम्पीरियल कॉलेज से जुड़ा है; जबकि दूसरे का नाम कोविड के दौर में अपने शोध-पत्रों के लिए बार-बार समाचार-पत्रों में आ रहा है।

इम्पीरियल कॉलेज, लंदन के प्रोफेसर डेविड ङ्क्षकग उन दिनों ब्रिटेन की सरकार के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार थे। वे उन दिनों आनुवंशिक रूप से परिवर्तित खाद्यान्न (जीएम फूड) को ब्रिटेन सरकार द्वारा स्वीकृत करवाने के लिए प्रयासरत थे। जबकि ब्रिटेन में अनेक लोग इसका विरोध कर रहे थे। विरोध करने वालों कहना था कि वे अपने अनुभव से यह महसूस कर सकते हैं कि खाद्यान्न में किया गया आनुवंशिक फेरबदल न सिर्फ उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल रहा है, बल्कि यह पर्यावरण और जैव-विविधता के लिए भी खतरनाक है। जबकि ङ्क्षकग का कहना था कि विज्ञान से यह प्रमाणित हो चुका है कि परिवर्तित खाद्यान्न, गैर-परिवर्तित प्राकृतिक खाद्यान्न की तुलना में अधिक सुरक्षित हैं तथा जीएम (परिवर्तित) तकनीक ने दुनिया की बढ़ती आबादी का पेट भरने का एक सफल तरीका पेश किया है।

ब्रिटेन के पत्रकारों ने जब लोगों की चिन्ताओं को उठाया, तो डेविड ङ्क्षकग बिफर गये। उन्होंने विज्ञान पर सवाल उठाने के लिए मीडिया संस्थानों को खरी-खोटी सुनायी। उनका कहना था कि विज्ञान किसी भी समाज के (सुन्दर) भविष्य के निर्माण का संस्कार है। जिस हद तक हम वैज्ञानिकों और विज्ञान के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हैं, उससे समाज के अपने स्वास्थ्य का पता लगता है।

मेडिकल साइंस की दुनिया की सबसे पुरानी और प्रमुख पत्रिका द लान्सेन्ट के प्रधान सम्पादक रिचर्ड होर्टन ने ‘द गाॢजयन’ के 11 दिसंबर, 2007 अंक में इस प्रसंग पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए डेविड ङ्क्षकग की आलोचना की थी। रिचर्ड होर्टन ने उस समय जो कहा था, वह आज अधिक प्रासंगिक है। होर्टन ने लिखा था कि डेविड ङ्क्षकग को एकपक्षीय, सर्वसत्तात्मक नज़रिये से विज्ञान को नहीं देखना चाहिए। उन्हें यह समझना चाहिए कि विज्ञान प्रयोगों और समीकरणों की किसी अमूर्त दुनिया में मौज़ूद नहीं है। विज्ञान लोकतांत्रिक बहस की अराजकता का हिस्सा है।

हमने बाद में भारत के अनुभव से भी पाया कि परिवर्तित खाद्यान्न किस प्रकार खाने वालों के स्वास्थ्य और पर्यावरण व जैव विविधता के लिए तो खतरा हैं ही, वो किसानों को भी बर्बाद कर देते हैं। पिछले वर्षों में भारत में हज़ारों किसान बीटी कॉटन बीजों के कारण आत्महत्या करने पर मज़बूर हो गये। भारत व अन्य देशों में जीएम खाद्यान्न के दुष्प्रभावों के कारण इनके उत्पादन पर प्रतिबन्ध है। ब्रिटेन में भी सरकार ने प्रोफेसर ङ्क्षकग की बात नहीं मानी। वहाँ भी परिवर्तित खाद्यान्न आज तक प्रतिबन्धित है। विज्ञान ज्ञान के सतत् विकास का एक चरण है। या कहें कि आज उपलब्ध ज्ञान के घनीभूत रूप का एक नाम है। यह एक तरह से ज्ञान का व्यवहारिक पक्ष है। बहसों और विमर्शों से ही सुन्दर, कल्याणकारी विज्ञान का विकास हो सकता है।

विज्ञान का जन्म और विकास भी वैसे ही हुआ है, जैसे कभी धर्म का हुआ था। धर्म भी अपने समय में उपलब्ध सर्वोत्तम ज्ञान का घनीभूत रूप था। वह भी अपने समय के ज्ञान का व्यावहारिक पक्ष था। समस्या तब पैदा होती है, जब इनका प्रयोग शक्तिशाली तबका अपना हित साधने के लिए करने लगता है। यही धर्म के साथ हुआ था, यही आज विज्ञान के साथ हो रहा है।

दुनिया के कुछ सबसे अमीर लोग व संस्थाएँ विज्ञान की नयी-नयी खोजों के सहारे मनुष्य जाति को अपने कब्ज़े में लेना चाहती हैं। कोविड-19 के भय को अनुपातहीन बनाने में भी इन्हीं से सम्बद्ध संस्थाओं की भागीदारी सामने आ रही है।

धर्म या विज्ञान के समर्थन और विरोध का सवाल नहीं है। ऐसा कौन होगा, जो खुद को अधाॢमक कहना चाहेगा? ऐसा कौन होगा, जो स्वयं को अवैज्ञानिक कहना चाहेगा? लेकिन हम पंडा-पुरोहित, सामंतों-राजाओं से धर्म की मुक्ति के लिए लड़े हैं और हममें से कुछ ने नास्तिक कहलाने का खतरा उठाया है। कुछ ने धर्म से पीछा छुड़ाने के लिए खुद को सत्य का खोजी, तो कुछ ने आध्यात्मिक कहना पसन्द किया। कुछ लोग धर्म और अन्धविश्वासों में विज्ञान की तलाश करते हैं। मसलन, कुछ लोग कोविड-19 का इलाज गौमूत्र में तलाश रहे थे। यह मूर्खता हो सकती है, और इस तरह की हरकतों के मानवद्वेषी निहितार्थ भी होते हैं। लेकिन धर्म में विज्ञान की तलाश करना उतना बुरा नहीं है, जितना कि विज्ञान को धर्म बनाने की कोशिश करना। आप देखेंगे, जो लोग गौमूत्र से कोविड-19 का इलाज ढूँढ रहे थे, वे ही लॉकडाउन के दौरान सडक़ों पर डण्डा लेकर सबसे पहले विज्ञान का पालन करवाने निकले थे। जैसे धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल हुआ है, वैसे ही आज विज्ञान का राजनीतिक इस्तेमाल हो रहा है। मेरे एक सम्पादक मित्र ने कहा कि वह विज्ञान पर आस्था रखते हैं, इसलिए इस विषय पर मेरा लेख प्रकाशित करने में उन्हें थोड़ा संकोच हो रहा है। मैं उन्हें कहना चाहता हूँ कि आस्था से अधिक अवैज्ञानिक चीज़ कोई और नहीं है। हम विज्ञान की ओर इसलिए आये थे कि यह हमें विवेक और तर्क पर आधारित सत्य की खोज के लिए प्रेरित करेगा। अगर विज्ञान से हम आस्था ग्रहण कर रहे हैं, तो ज़रूर कोई भारी गड़बड़ है।

मनुष्यता की रक्षा के लिए हमें विज्ञान की मुक्ति के लिए संघर्ष छेडऩा चाहिए। खुद को विशुद्ध वैज्ञानिक सोच का कहना, कट्टर धार्मिक कहने के समान है। आज जब विज्ञान धर्म बनने लगा है, तो हमें दुनिया को सुन्दर बनाने के उसके दावों पर संदेह करना ही होगा।

भारत का एक उदाहरण 

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) खडग़पुर ने अपने संकाय सदस्यों को कहा है कि ऐसे किसी विषय पर न लिखें, न बोलें, जिसमें सरकार की किसी भी मौज़ूदा नीति या कार्रवाई की प्रतिकूल आलोचना होती हो। संस्थान ने अपने अध्यापकों को यह छूट दी है कि वे विशुद्ध वैज्ञानिक, साहित्यिक या कलापरक लेखन कर सकते हैं; लेकिन उन्हें इस प्रकार का लेखन करते हुए यह ध्यान रखना है कि उनका लेखन किसी भी प्रकार से प्रशासनिक मामलों को नहीं छुए।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दुनिया के उन प्रमुख संस्थानों में शुमार है; जिसके अध्यापकों को विज्ञान विषयक विशेषज्ञता के लिए जाना जाता है। भारत समेत, दुनिया के कई देशों में इन दिनों ऐसे प्रतिबन्ध लगे हुए हैं, जो आम लोगों के अनुभवजन्य ज्ञान और विवेक को ही नहीं, कथित विशेषज्ञों (मसलन, आईआईटी के उपरोक्त अध्यापकों) को भी सवाल उठाने से रोक रहे हैं। इसलिए मुख्य सवाल यह है कि किसके पक्ष का विज्ञान, किसके पक्ष की विशेषज्ञता, किसके पक्ष की पत्रकारिता को रोका जा रहा है? ईश्वर और धर्म की ही तरह विज्ञान और विशेषज्ञता की निष्पक्षता पर सिर्फ वही भरोसा कर सकते हैं; जो या तो उससे लाभान्वित हो रहे हों, या फिर मूर्ख या तोतारटंत हों।

हम सभी को सोचना होगा कि कोविड-19 के बहाने विमर्श और बहसों पर जिस समय रोक लगायी जा रही थी, जिस समय विशेषज्ञता और विज्ञान के नाम पर करोड़ों लोगों को बेरोज़गारी, भूख और बदहाली की ओर धकेला जा रहा था, उस दौरान हमारी ज़िम्मेदारी क्या थी? क्या हमने उसे पूरा किया है? अभी भी अवकाश है। क्या हम अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करने का इरादा रखते हैं?

(लेखक असम विश्वविद्यालय के रवींद्रनाथ टैगोर स्कूल ऑफ लैंग्वेज एंड कल्चरल स्टडीज में प्राध्यापक हैं और सबाल्टर्न अध्ययन तथा आधुनिकता के विकास में दिलचस्पी रखते हैं। डॉ. रंजन अनेक चर्चित पुस्तकें लिख चुके हैं और करीब दो दशक तक मीडिया संस्थानों में सेवाएँ दे चुके हैं।)