रोशनी घोटाले की उलझनें

जम्मू-कश्मीर में रोशनी कानून के तहत ज़मीनों के आवंटन को लेकर घोटाला सामने आया है, जिस पर खूब राजनीतिक बवाल मचा हुआ है। भाजपा, जो इस मामले में कश्मीर के राजनीतिक दलों के नेताओं को जमकर निशाने पर रख रही थी; अब महसूस कर रही है कि जम्मू क्षेत्र के हज़ारों गरीब गैर-मुस्लिम लाभार्थी उससे नाराज़ हो सकते हैं। अब वह चाहती है कि इस मामले का गरीबों और अमीरों के हिसाब से वर्गीकरण कर दिया जाए और सिर्फ अमीरों पर कार्रवाई हो। विपक्ष का आरोप है कि जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में प्रशासन की संशोधन वाली याचिका के पीछे भाजपा ही है। घोटाले के विभिन्न पहलुओं पर विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की रिपोर्ट :-

जम्मू-कश्मीर में रोशनी कानून के तहत ज़मीनों पर अवैध कब्ज़ों या उन्हें ओने-पौने दामों में खरीदने का मामला अब राजनीतिक रंग लेता जा रहा है। भाजपा कश्मीर के प्रमुख दलों के उन नेताओं, जिनके नाम इस ज़मीन घोटाले में सामने आये हैं; पर लगातार हमलावर है। वहीं घाटी के नेता इसे अपने खिलाफ षड्यंत्र बता रहे हैं। मामला जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में है। हालाँकि लगता है कि यह मुद्दा खुद भाजपा के गले की भी फाँस बन गया है। क्योंकि रोशनी कानून के तहत ज़मीनों के आवंटन के 70 फीसदी से ज़्यादा मामले जम्मू क्षेत्र में हैं; जहाँ भाजपा का दबदबा है। इस आवंटन के लाभार्थियों में बड़ी संख्या में गरीब भी शामिल हैं। शायद इसे देखते हुए ही जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने अब जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट में एक याचिका डालकर गरीबों से जुड़े मामलों की जाँच राज्य के एंटी करप्शन ब्यूरो से करवाने की गुहार लगायी है। आरोप है कि भाजपा इस तरह राजनीतिक आधार पर इस मामले में बंदरबाँट करना चाहती है और विरोधियों को परेशान करना चाहती है।

वैसे तो इस तरह के कानून दूसरे प्रदेशों में भी हैं, जिनमें सरकारी ज़मीनों पर अवैध कब्ज़ों को एक कीमत तय करके स्थायी करने की अभियान चलाये जाते हैं। दिलचस्प यह है कि उनमें भी घोटालों के आरोप लगते रहे हैं। जम्मू-कश्मीर का मामला घाटी के नेताओं के गुपकार घोषणा के बाद ज़्यादा ज़ोर-शोर से उभरा; क्योंकि भाजपा ने इस घोषणा को देश के खिलाफ बताया है। गुपकार आन्दोलन से जुड़े नेता भी यही आरोप लगा रहे हैं कि रोशनी एक्ट में घोटाले का आरोप उन्हें बदनाम करने की शाज़िश है। हालाँकि पूरा मामला सामने आने के बाद भाजपा के नेता परेशान दिख रहे हैं; क्योंकि उन्हें लगता है कि जम्मू क्षेत्र में बड़ी संख्या में जिन गरीबों से ज़मीन वापस लेने की बात की जा रही है, वो उसके खिलाफ जा सकते हैं।

भाजपा इस मुद्दे को राज्य में चल रहे ज़िला विकास परिषदों (डीडीसी) के चुनाव में बड़ा मुद्दा बनाना चाहती थी, लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान उसके सामने आया कि इस योजना के तहत लाभान्वित होने वाले ज़्यादा लोग उसके प्रभाव वाले जम्मू क्षेत्र से हैं और इनमें भी बड़ी तादाद गैर-मुस्लिमों की है। भाजपा डीडीसी चुनावों में प्रचार करने जब लोगों के पास पहुँची, तो लाभार्थियों ने उनके सामने अपनी ज़मीनें जाने की चिन्ता ज़ाहिर की। भाजपा खेमे में इससे चिन्ता पैदा हुई है। उसे लगता है कि ऐसे लोग उसके खिलाफ जा सकते हैं।

इसके बाद जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने 4 दिसंबर को हाई कोर्ट में एक समीक्षा याचिका डाली है। राजस्व विभाग के विशेष सचिव नज़ीर अहमद ठाकुर की तरफ से 4 दिसंबर को दायर याचिका में लगभग दो महीने पुराने फैसले को संशोधित करने के लिए कहा गया है। इस याचिका में कहा गया है कि बड़ी संख्या में आम (गरीब) लोग अनायास ही पीडि़त होंगे; जिनमें भूमिहीन कृषक और छोटे घरों में रहने वाले लोग शामिल हैं। अब कोर्ट बिस याचिका पर सुनवाई करेगा। याचिका में कहा गया है कि लाभार्थियों के बीच आम लोगों और धनी लोगों के बीच अन्तर करने की ज़रूरत है। प्रशासन चाहता है कि भूमिहीन मज़दूरों या निजी उपयोग के एक घर के लिए आवंटित भूमि को पहले की स्थिति के हिसाब से रखने की अनुमति दे दी जाए। फिलहाल इस मामले में उच्च न्यायालय ने 16 दिसंबर की तारीख तय की है।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, दिलचस्प यह भी है कि जम्मू-कश्मीर सरकार ने रोशनी अधिनियम के लाभार्थियों की अब अलग-अलग सूची जारी करनी शुरू कर दी है। प्रशासन अब रोशनी के लाभार्थियों को गरीब और अमीर की श्रेणी में विभाजित करना चाहता है। आरोप है कि इसके पीछे भाजपा है। अपनी संशोधित याचिका में जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने कहा कि इन दो वर्गों के लोगों के बीच अन्तर करने की ज़रूरत है। निजी उपयोग में सबसे अधिक आवास वाले घर में भूमिहीन लोगों के हैं। लिहाज़ा प्राथमिक मापदण्ड दो वर्गों के बीच अन्तर करने का होगा। याचिका में भूमिहीन कृषक और एकल आवास मालिकों जैसे लोगों को रोशनी के तहत मिली ज़मीन में बने रहने के लिए एक उपयुक्त तंत्र तैयार करने की अनुमति देने की प्रार्थना की गयी है। यही नहीं इसमें यह आशंका भी जतायी गयी है कि उच्च न्यायालय के फैसले से सीबीआई की पूछताछ लम्बे समय तक चल सकती है।  बता दें इस घोटाले के आरोप राजनीति से शुरू नहीं हुए, बल्कि जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने इसी साल अक्टूबर में 25 हज़ार करोड़ रुपये के इस घोटाले की जाँच सीबीआई को करने के आदेश दिये। यही नहीं, अदालत ने इस कानून के तहत आवंटित सारी ज़मीनों को शुरू से रद्द करने को भी कहा। इस भूमि घोटाले के तहत हुए तमाम आवंटन और प्रक्रियाएँ निरस्त कर दी गयी हैं और जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट ने इसे पूरी तरह गैर-कानूनी और असंवैधानिक करार दिया। कोर्ट के आदेश के बाद प्रदेश में हड़कम्प मच गया है। क्योंकि इन आवंटन में बड़े लोगों के नाम सामने आये हैं, जिनमें पूर्व मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक, ब्यूरोक्रेट्स और अन्य रसूखदार लोग शामिल हैं।

यहाँ यह जानना भी ज़रूरी है कि रोशनी कानून कब और कैसे आया था? इसका पूरा नाम जम्मू-कश्मीर राज्य भूमि (ऑक्युपेंट्स का स्वामित्व अधिकार) अधिनियम-2001 को उस समय की नेशनल कॉन्फ्रेंस की फारूक अब्दुल्ला सरकार लायी थी और इसका मकसद पानी आधारित बिजली परियोजनाओं के लिए पैसा जुटाना था। लिहाज़ा इसे रोशनी नाम दिया गया। कानून के तहत भूमि का मालिकाना हक उसके अनधिकृत कब्ज़ेदारों को इस शर्त पर दिया जाना था कि वे लोग बाज़ार भाव पर सरकार को भूमि का भुगतान करेंगे और इसकी कट ऑफ 1990 तय की गयी थी। आरम्भ में सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा करने वाले किसानों को कृषि उद्देश्यों के लिए स्वामित्व अधिकार दिये गये थे। बाद में इसके लिए बने अधिनियम में दो बार संशोधन किया गया। यह संशोधन 2002 में बनी मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीडीपी-कांग्रेस की साझा सरकार और उसके बाद गुलाम नबी आज़ाद के नेतृत्व में बनी इसी साझा सरकार के कार्यकाल के दौरान किये गये। जो कट ऑफ पहले 1990 तय की गयी थी, उसके इन संशोधनों में क्रमश: 2004 और फिर 2007 कर दिया गया। इस कथित घोटाले में बड़े राजनीतिकों के अलावा कई बिजनेसमैन और अफसरशाहों के नाम सामने आये हैं। फारूक अब्दुल्ला सरकार के समय आयी इस योजना के तहत 1990 से हुए अतिक्रमणों को इस एक्ट के दायरे में कट ऑफ सेट किया गया, अर्थात् 1990 के बाद हुए सरकारी ज़मीन के अतिक्रमण को स्थायी करके लिए उन लोगों, जिन्होंने उस ज़मीन पर कब्ज़ा किया है; से पैसा लिया जाएगा। बता दें उस दौरान राज्य सरकार ने किसानों को मुफ्त में उन कृषि भूमियों के पट्टे दे दिये थे, जिन पर किसानों ने कब्ज़े किये हुए थे।

‘तहलका’ की जुटाई जानकारी के मुताबिक, इस योजना के तहत ढाई लाख एकड़ से ज़्यादा अवैध कब्ज़े वाली ज़मीन को हस्तांतरित करने की योजना बनायी गयी। ज़मीन को बाज़ार कीमत की महज़ 20 फीसदी दर पर कब्ज़ेदारों को सौंपने का नियम बना। कुल मिलाकर इसकी कीमत 25,000 करोड़ रुपये बनती थी। आरोप है कि फारूक सरकार के बाद जो सरकारें सत्ता में आयीं, उन्होंने भी इस योजना के तहत लाभ लिये। दिलचस्प यह भी है कि 2016 में भाजपा ने पीडीपी के साथ जम्मू-कश्मीर की सत्ता में साझेदारी की। बाद में सरकार टूट गयी। इसके बाद जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल सत्यपाल मलिक के नेतृत्व वाली राज्य प्रशासनिक परिषद् (एसएसी) ने 2018 में रोशनी एक्ट रद्द कर दिया। कहा गया कि इस योजना में जो आवेदन या प्रक्रियाएँअभी अधूरी हैं, उन सबको निरस्त माना जाए। बाद में जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में मामला पहुँचा, जिसने रोशनी योजना को गैर-कानूनी, अन्यायपूर्ण, असंवैधानिक और असंगत करार दे दिया। हाई कोर्ट के आदेश के बाद रोशनी के तहत तमाम प्रक्रियाएँ और आवंटन गैर-कानूनी हो गये।

हाई कोर्ट के फैसले के बाद जहाँ राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो गये, वहीं हाई कोर्ट की न्यायमूर्ति गीता मित्तल और राजेश बिंदल की पीठ ने इस मामले में सीबीआई जाँच के आदेश दिये। पीठ ने अपने आदेश में हर आठ हफ्ते में मामले की जाँच की स्टेटस रिपोर्ट देने को भी कहा। अब राज्य के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा ने कहा है कि सभी लोगों से ज़मीन वापस ली जाएगी। इस मामले की शुरुआती जाँच सीबीआई ने इसी 4 दिसंबर को आरम्भ की। प्रथम चरण में जम्मू तहसील के क्षेत्र में 784 कनाल 17 मारला ज़मीन की जाँच शुरू की गयी है। यह ज़मीन जम्मू विकास प्राधिकरण (जेडीए) को हस्तांतरित की गयी थी।

सरकारी मकानों पर भी कब्ज़े

रोशनी ज़मीन घोटाले से इतर जम्मू-कश्मीर में सरकारी आवासों में अवैध रूप से रहने का मामला भी सामने आया है। इसे लेकर अदालत में एक जनहित याचिका दायर की गयी है। यह मामला जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में चल रहा है। जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय की न्यायाधीश गीता मित्तल और न्यायमूर्ति राजेश बिंदल की खण्डपीठ ने केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) प्रशासन को पूर्व मंत्रियों, पूर्व विधायकों, निर्वासितों और अन्य सहित सरकारी आवासों के अनधिकृत रहने वालों का पूरा विवरण प्रदान करने का निर्देश दिया। अदालत ने सरकार को ऐसे अवैध रूप से कब्ज़े वाले घरों में किये गये किराये, बिजली और नवीनीकरण के ब्यौरे को प्रस्तुत करने का भी आदेश दिया। अदालत ने 22 दिसंबर को मामले को सूचीबद्ध किया। अभी तक जो सूची प्रशासन ने अदालत में सौंपी है उसमें जम्मू-कश्मीर के भाजपा अध्यक्ष रविंद्र रैना और पूर्व उप मुख्यमंत्री कविंदर गुप्ता सहित कई राजनीतिक व्यक्तियों के नाम हैं। 2 सितंबर, 2020 तक की गयी सूची में भाजपा और अन्य राजनीतिक दलों के कई पूर्व मंत्रियों और विधायकों के नाम शामिल हैं, जो सरकारी आवासों पर अवैध रूप से कब्ज़ा कर रहे थे; जो उन्हें उनकी आधिकारिक क्षमता में आवंटित किये गये थे। इसे लेकर जनहित याचिका प्रोफेसर एस.के. भल्ला ने दायर की है। राजनेताओं और पूर्व नौकरशाहों के सरकारी आवास पर अवैध रूप से कब्ज़ा करने के मामले में यह जनहित याचिका दायर की गयी थी। यद्यपि जम्मू-कश्मीर सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी आवास प्रदान करने वाले नियमों को समाप्त कर दिया है, लेकिन सम्पत्ति विभाग की प्रस्तुत सूची में उल्लेख किया गया है कि पूर्व मुख्यमंत्री जी.एम. शाह के परिवार का जम्मू के पॉश गाँधी नगर इलाके में एक बंगले पर कब्ज़ा है। इनमें से कई नेताओं को आवंटन का आधार सुरक्षा-कारण बताया गया है।

क्या है मामला

इस मामले की शुरुआत मार्च, 2014 में तब हुई, जब कैग ने उस समय की जम्मू-कश्मीर विधानसभा में अपनी रिपोर्ट पेश की। यह रिपोर्ट रोशनी कानून से जुड़ी थी। इसमें सन् 2007 से सन् 2013 के बीच कब्ज़े वाली ज़मीनों के हस्तांतरण में अनियमितता का आरोप था। कैग ने कहा कि नेताओं और नौकरशाहों को फायदा पहुँचाने के लिए मनमाने तरीके से कीमत में कटौती की गयी। कैग ने यह भी कहा कि बिजली क्षेत्र में निवेश हेतु संसाधन जुटाने का उद्देश्य धरा रह गया। इसमें लक्ष्य 25,448 करोड़ रुपये का था; जबकि महज़ 76 करोड़ रुपये ही जुटे। वैसे इससे भी पहले सेवानिवृत्त प्रोफेसर एस.के. भल्ला ने एडवोकेट शेख शकील के ज़रिये 2011 में इस मसले पर जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी; जिसमें उन्होंने सरकारी और वन भूमि में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी के आरोप लगाये थे।

यह करीब-करीब 20.55 लाख कनाल (102,750 हेक्टेयर) ज़मीन का मामला थी; जिस पर लोग बसे थे। इसमें से 16.02 लाख कनाल भूमि जम्मू क्षेत्र, जबकि 4.44 कनाल भूमि कश्मीर क्षेत्र में पड़ती थी। वैसे इसमें से महज़ 15.85 फीसदी (6.04 लाख कनाल) ज़मीन ही मालिकाना हक के लिए मंज़ूर की गयी थी, जिसमें से 5.71 लाख कनाल जम्मू और 33,392 कनाल भूमि कश्मीर में थी। इसके बाद अचानक लक्ष्य 25,448 करोड़ रुपये का राजस्व जुटाने के लक्ष्य को समेटकर 317.55 करोड़ कर दिया गया; जिसमें से ज़मीन देने के बाद सरकार के पल्ले 76.46 करोड़ रुपये आये। मौज़ूद ब्यौरे के मुताबिक, 76.46 करोड़ रुपये में से 54.05 करोड़ रुपये कश्मीर क्षेत्र से, जबकि जम्मू क्षेत्र से 22.40 करोड़ रुपये ही जुटे। हालाँकि कश्मीर से 123.49 करोड़ रुपये, जबकि जम्मू क्षेत्र से 194.06 करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य था। कैग ने अपनी रिपोर्ट में सवाल उठाया कि नियमों को ताक पर रखते हुए करीब 340,091 कनाल को कृषि भूमि घोषित कर एक भी पैसा लिए बिना हस्तांतरित कर दिया गया। कैग की रिपोर्ट के मुताबिक, कश्मीर क्षेत्र में ज़्यादातर ज़मीन व्यापारिक घरानों को और रिहायशी उद्देश्य से दी गयी। कैग रिपोर्ट में यह एक बहुत दिलचस्प बात कही कि रोशनी कानून के तहत 348,160 कनाल के हस्तांतरण के बाद भी ज़मीनों पर कब्ज़े के लिए और मामले आते रहे; क्योंकि नवंबर 2006 में 2,064,972 कनाल की तुलना में मार्च 2013 में 2,046,436 कनाल पर अतिक्रमण था। सरकार ने कैग की रिपोर्ट पर कहा कि इस मामले की छानबीन करके कार्रवाई करेगी; लेकिन कुछ नहीं हुआ।  जम्मू-कश्मीर सरकार ने 23 नवंबर से जम्मू और कश्मीर राज्य भूमि (ऑक्युपेंट्स के लिए निहित स्वामित्व) अधिनियम के तहत लाभार्थियों के नामों को प्रकाशित करना शुरू कर दिया। ज़ाहिर है जैसे ही नाम सार्वजनिक हुए तो बवाल मच गया। पहली सूची में चार नेशनल कॉन्फ्रेंस नेताओं, एक पूर्व पीडीपी नेता, दो कांग्रेस नेताओं और कश्मीर के पूर्व नौकरशाहों और व्यापारियों के नाम थे। जैसे ही सूची बाहर आयी, भाजपा ने इसे गुपकार घोषणा से जोड़कर कश्मीर के नेताओं को निशाने पर रख लिया। यह सूची डीडीसी चुनावों से ऐन पहले सार्वजनिक हुई; लिहाज़ा विपक्ष ने इस पर सवाल उठाते हुए इसे राजनीति से प्रेरित बताना शुरू कर दिया।

विभिन्न रिपोट्र्स के मुताबिक, इस साल फरवरी तक करीब 30,500 लोगों को रोशनी एक्ट के तहत लाभ हुआ। अतिक्रमण करने वालों की सूची में पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला और उनके पूर्व मुख्यमंत्री बेटे उमर अब्दुल्ला के भी नाम शामिल हैं। हालाँकि दोनों ने इन आरोपों को सिरे से खारिज किया है। इसके अलावा नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी और कांग्रेस के दफ्तरों को भी रोशनी कानून के तहत मिली ज़मीन पर बना बताया गया है। तीनों पार्टियाँ इन आरोपों को गलत बता चुकी हैं।

पूर्व वित्त मंत्री हसीब द्राबू और अन्य के नाम हैं। हालाँकि द्राबू भी इसे गलत बता चुके हैं। उनके अलावा कांग्रेस के राज्य कोषाध्यक्ष के.के. अमला और उनके परिवार के तीन सदस्यों, पूर्व मंत्रियों सज्जाद किचलू और हारून चौधरी सहित नेशनल कॉन्फ्रेंस के चार नेताओं के नाम भी शामिल हैं। आरोप यह भी लग रहे हैं कि भाजपा नेताओं ने भी कथित तौर पर ज़मीन ली है, लेकिन उन्हें बचाने की कोशिश हो रही है और जानबूझकर उनके नाम सूची में सामने नहीं लाये गये हैं। अब सच क्या है? यह तो जाँच के बाद ही पता चलेगा।

न तो श्रीनगर और न जम्मू में बना मेरा घर रोशनी एक्ट के अधीन है। वे (भाजपाई) झूठा मामला बना रहे हैं। इन लोगों को हार का डर सता रहा है, इसलिए ये लोग ऐसी तरकीबें इस्तेमाल कर रहे हैं। वे हमें झुकाना चाहते हैं। लेकिन ऐसा नहीं हो पायेगा। मुझ पर लगे सभी आरोप बे-बुनियाद हैं। इलाके में सिर्फ मेरा ही घर नहीं है, बल्कि सैकड़ों घर हैं। फारूक अब्दुल्ला

पूर्व मुख्यमंत्री एवं जेकेएनसी नेता

जम्मू में पीडीपी का कार्यालय एक सरकारी इमारत में है, जिसका पीडीपी मासिक किराया चुकाती है। आपको (मीडिया) भाजपा के दिल्ली स्थित पार्टी मुख्यालय के बारे में भी बताना चाहिए। यदि भाजपा ज़मीन हड़पने के मामले में गम्भीर है, तो उसे बड़ी मछलियों के पीछे जाना चाहिए; न कि उन गरीबों के पास, जिनके पास 5 मरले की ज़मीन भी नहीं है।महबूबा मुफ्ती

पूर्व मुख्यमंत्री एवं पीडीपी नेता