राहुल का दल

कांग्रेस को भाजपा से लड़ सकने वाला संगठन बनाने में जुटे हैं राहुल गाँधी

हाल के महीनों में कांग्रेस में लीक से हटकर नियुक्तियाँ करके नये और युवा चेहरे पार्टी में लाये गये हैं। लाये जा रहे नेताओं को देखने से लगता है कि पार्टी में भविष्य की योजना के साथ कुछ हो रहा है। निश्चित ही इसके पीछे राहुल गाँधी हैं, जो अपना एक दल (टीम) तैयार कर रहे हैं। प्रक्रिया थोड़ी धीमी है। लेकिन साफ़ झलकता है कि बदलाव ठोस तैयारी के साथ किये जा रहे हैं, जिनमें जाति, क्षेत्र, युवा प्रतिनिधित्व के अलावा आरएसएस-भाजपा विचारधारा पर आक्रमण कर सकने की कुव्वत वाला प्रतिबद्ध संगठन तैयार करने की कोशिश झलकती है। राहुल की इस कोशिश से वरिष्ठ नेता ख़ुद को उपेक्षित महसूस करते हुए बाग़ी तेवर अपनाये हुए हैं। लेकिन तय है कि राहुल इससे बेपरवाह हैं। कांग्रेस में ऐसा नेतृत्व राज्यों में उभारा जा रहा है, उसके बाद राष्ट्रीय स्तर की बारी है। राहुल गाँधी की इस कोशिश को इसलिए साहसपूर्ण कहा जाएगा; क्योंकि वह यह सब विपक्ष में रहते हुए कर रहे हैं।

लखीमपुर में किसानों की हत्या के तुरन्त बाद राहुल गाँधी का प्रियंका गाँधी को वहाँ भेजना और उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा रोके जाने पर पीडि़तों से मिलने जाने की ज़िद करना और माँग न माने जाने पर वापसी के बजाय गिरफ़्तारी देकर जेल में रहना दर्शाता है कि कांग्रेस एक नये तेवर के साथ सामने आने की कोशिश में जुटी है। राहुल गाँधी ने ख़ुद यही किया। जब लखनऊ हवाई अड्डे पर उतरने के बाद जब उन्हें निजी वाहन से लखीमपुर खीरी जाने देने की उत्तर प्रदेश सरकार ने इजाज़त देने से इन्कार किया, तो वह हवाई अड्डे ही धरने पर बैठ गये। आख़िरकार सरकार को झुकना पड़ा और उन्हें उनके निजी वाहन से जाने की मंज़ूरी देनी पड़ी।

राहुल का यह तरीक़ा अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना भर नहीं है, बल्कि वह आम समाज और आरएसएस-भाजपा की विचारधारा के बीच एक लकीर खींचने की कोशिश कर रहे हैं। राहुल यह बताना चाह रहे हैं कि आरएसएस-भाजपा की यह विचारधारा देश के भविष्य के लिए अच्छी नहीं है। वह तात्कालिक चुनावी लाभ वाली कांग्रेस नहीं, वैचारिक प्रतिबद्धता वाली कांग्रेस बनाना चाह रहे हैं। वैसे ही, जैसे आरएसएस वैचारिक रूप से एक प्रतिबद्ध संगठन है। हाँ, राहुल गाँधी वैचारिक भिन्नता के साथ अपने काम में जुटे हैं।

ऐसा संगठन बनाने के लिए राहुल गाँधी नेताओं को खोने का जोखिम भी ले रहे हैं। क्योंकि इन दिनों राजनीति में वैचारिकता पर सत्ता हावी है, और जो जा रहे हैं, वो सत्ता न पा सकने की टीस से भरे हैं। यही वजह है कि वैचारिकता उनके लिए गौण हो गयी है। भाजपा के बड़े नेताओं के बयान देखिए, वे जब भी कांग्रेस और राहुल गाँधी को निशाने लेते हैं, तो चुनाव जीतने-हारने की बात करते हैं। वे एक तरह से कांग्रेस के नेताओं पर चुनावों में पार्टी की हार का मानसिक दबाव बनाने की कोशिश करते हैं। ऐसा करके वे कांग्रेस नेताओं में एक तरह की कुंठा और निराशा पैदा करके उनके मन में यह भरने की कोशिश करते हैं कि कांग्रेस में उनका राजनीतिक भविष्य सुरक्षित नहीं है। यानी कह सकते हैं किऐसा करके वे उन्हें बिना कहे पार्टी छोडऩे के लिए उकसाने की कोशिश करते हैं। राहुल सत्ता की इस कुंठा से प्रभावित न होने वाला दल (टीम) बनाना चाहते हैं। भले ही इसके पीछे उनकी यह भी सच हो कि राजनीति की मूल लड़ाई तो सत्ता के लिए ही होती है।

राहुल गाँधी नयी कांग्रेस में आरएसएस-भाजपा की विचारधारा को चुनौती दे सकने वाला दल तैयार कर रहे हैं। भाजपा चाहे जो कहे, किन्तु सच यही है कि उसका थिंक टैंक मानता है कि एक संगठन के तौर पर भाजपा और आरएसएस को चुनौती दे सकने वाली विचारधारा वाला राजनीतिक दल कांग्रेस ही है, जो भाजपा के लिए राजनीतिक रूप से ज़्यादा गम्भीर चुनौती वाला साबित हो सकता है।

आरएसएस से जुड़े एक वरिष्ठ पत्रकार व विचारक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा- ‘वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा के सामने बिना किसी प्रतिबद्ध राजनीतिक विचारधारा के दल हैं। इसलिए उसके सामने की चुनौती कमज़ोर है। हाँ, यह महसूस किया जा सकता है कि कांग्रेस में उसके नेता (राहुल गाँधी) सीधे इस (आरएसएस) विचारधारा को प्रतिबद्ध चुनौती देने वाला संगठन खड़ा करना चाहते हैं। यह आसान नहीं है। लेकिन कर पाये तो बड़ी चुनौती बनेंगे। आपने देखा होगा कि वह (राहुल) कमोवेश हरेक बयान, हर पत्रकार वार्ता में आरएसएस के विरोध वाला बयान ज़रूर देते हैं।‘

याद कीजिए, इसी साल जुलाई में कांग्रेस के सोशल मीडिया सेल के वॉलंटियर्स सम्मलेन में राहुल गाँधी ने बिना नाम लिये उनके मित्र रहे और कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले गये ज्योतिरादित्य सिंधिया को सुनाते हुए क्या कहा था- ‘जिन्हें डर लग रहा है, वो पार्टी से जा सकते हैं। कई निडर लोग हैं, जो कांग्रेस में नहीं हैं। ऐसे लोगों को कांग्रेस में आना चाहिए। और वैसे कांग्रेसी, जो भाजपा से डरे हुए हैं; उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाना चाहिए। हमें ऐसे लोगों की ज़रूरत नहीं है, जो आरएसएस की सोच में विश्वास रखते हैं या उससे डरते हैं। हमें निडर लोगों की ज़रूरत है। यह हमारी विचारधारा है।‘

सवाल यही है कि क्या राहुल गाँधी अपनी इस विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध एक ऐसी कांग्रेस बना पाएँगे, जो आरएसएस और भाजपा की विचारधारा को चुनौती देते हुए परास्त कर सके? हाल के वर्षों में कांग्रेस में यह नये तरीक़े का तेवर है। कन्हैया कुमार जैसे युवा नेता का कांग्रेस में आना और जिग्नेश मेवाणी का कांग्रेस के साथ आना राहुल की सोच का बड़ा उदाहरण है। दलित, पिछड़े, वामपंथी, मुस्लिम और सवर्ण समुदायों में भी अपनी और पार्टी की स्वीकार्यता मज़बूत करके आरएसएस और सत्ता के विरोध के लिए युवाओं का यह राजनीतिक सम्मिश्रण राहुल गाँधी के राजनीतिक प्रयोग का बड़ा उदाहरण है। दलित किसी समय कांग्रेस का वोट बैंक रहे हैं। राहुल उसे पार्टी में वापस लाना चाहते हैं। पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाना इसका उदाहरण है।

हालाँकि इसके बावजूद राहुल गाँधी की यह कोशिश महज़ पुरानी पीढ़ी की जगह नयी पीढ़ी को पार्टी की कमान देने भर की नहीं है। वह नेताओं का चयन बहुत सोच-समझकर कर रहे हैं। उनका ज़्यादा ज़ोर कांग्रेस को ऐसे नेताओं का संगठन बनाने की लगती है, जो संगठन के प्रति तो प्रतिबद्ध हों ही, समाज के बँटवारे की सोच के भी ख़िलाफ़ हों और गाँधी की अहिंसा और सबको साथ लेकर चलने की सोच में भरोसा रखते हों। चूँकि राहुल तोडऩे की सोच को आरएसएस-भाजपा की विचारधारा कहते हैं, लिहाज़ा माना जा सकता है कि वह कांग्रेस की गाँधीवादी विचारधारा को मज़बूती से आधार रूप में सामने लाना चाहते हैं।

यहाँ महत्त्वपूर्ण यह है कि राहुल गाँधी जो फ़ैसले कर रहे हैं, वह तुरन्त नतीजे देने वाले नहीं हैं। रणनीतिक रूप से सही होते हुए भी इनके नतीजे देर से मिलेंगे। हालाँकि राजनीतिक जानकारों का मानना है कि वह नतीजे स्थायी साबित हो सकते हैं। राहुल वामपंथ की ढलान को देखकर उसका वोट बैंक कांग्रेस में लाना चाहते हैं। वह दलित और पिछड़ा वर्ग का कांग्रेस का पुराना वोट बैंक वापस लाना चाहते हैं और मज़बूत क्षेत्रीय दलों में चले गये मुस्लिमों को साथ लाना चाहते हैं।

राहुल पिछले दो लोकसभा चुनावों में भाजपा के साथ चले गये उस मतदाता को कांग्रेस में लाना चाहते हैं, जो भाजपा की विचारधारा से तो नहीं जुड़ा है; लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से प्रभावित होकर भाजपा को मतदान करने लगा है। राहुल गाँधी समझते हैं कि देश की वर्तमान स्थिति में इनमें से बड़ा वर्ग भाजपा से छिटक रहा है। यही कारण है कि वह मोदी सरकार पर हर उस मुद्दे को लेकर प्रहार करते हैं, जो इस बड़े मतदाता वर्ग को प्रभावित करता है। इसमें महँगाई से लेकर बेरोज़गारी, कोरोना महामारी की दूसरी लहर में ऑक्सीजन से हुई मौतों और कालाबाज़ारी, अर्थ-व्यवस्था का कमज़ोर होने जैसे मुद्दे शामिल हैं।

हाल के महीनों में राहुल गाँधी कांग्रेस में ऐसे लोगों को लाये हैं, जिन्होंने विभिन्न मंचों पर अलग तरह से काम किया। इनमें एक शिमोगा के युवा श्रीनिवास बी.वी. भी हैं, जो थे तो क्रिकेटर; लेकिन उन्होंने कोरोना मरीज़ों के लिए आपातकाल सेवा में उल्लेखनीय योगदान देकर नाम कमा लिया। बता दें कि राहुल गाँधी ने श्रीनिवास को युवा कांग्रेस का ज़िम्मा सौंप दिया है। भाजपा सहित दूसरे दलों में ऐसे प्रयोग देखने को नहीं मिले हैं। ज़मीनी स्तर पर समाज सेवा और कार्यों में नाम कमाने वाले व्यक्ति को किसी राष्ट्रीय राजनीतिक दल की युवा विंग का मुखिया बना देने का ऐसा उदाहरण देश की राजनीति में कम ही देखने को मिलता है।

यदि हाल की ही बात करें, तो राहुल गाँधी अभिजात (एलीट) परिवारों की जगह ग़रीब या आम पृष्ठभूमि वाले नेताओं को साथ जोड़ रहे हैं। कन्हैया कुमार की ही बात करें, तो वह एक आँगनबाड़ी कार्यकत्री के पुत्र हैं। हालाँकि भाजपा के नेता उन्हें टुकड़े-टुकड़े गैंग का अगुआ बताते रहे हैं। लेकिन छात्र मुद्दों को पुरज़ोर तरीक़े से उभारने वाले कन्हैया कुमार को छात्र राजनीति का ‘पोस्टर ब्यॉय’ भी कहा जाता रहा है। लेकिन राहुल गाँधी ने उनका चयन एक और बड़े कारण से किया है, वह यह कि कन्हैया कुमार आरएसएस की सोच के कट्टर विरोधी हैं।

ऐसे ही जिग्नेश मेवाणी हैं। दलित नेता के तौर पर उनकी पहचान है। उन्हें भी वामपंथ के क़रीब माना जाता रहा है। प्रधानमंत्री मोदी के गृह राज्य गुजरात से ताल्लुक़ रखने वाले मेवाणी दलितों में अच्छा असर रखते हैं। कांग्रेस को समर्थन देने के बाद मेवाणी ने कहा कि वह अगला चुनाव कांग्रेस के टिकट पर लड़ेंगे। मेवाणी को भी आन्दोलनकारी तबीयत का नेता माना जाता है और वह भी आरएसएस-भाजपा के सख्त विरोधी हैं। कांग्रेस को समर्थन देने के बाद मेवाणी ने कहा भी कि हम राज्य की जनता के बीच जाएँगे और उससे बात करेंगे। हमारा उद्देश्य राज्यों में एक जन-आन्दोलन छेडऩा है, जो देश को भाजपा शासन से हो रही तबाही से मुक्ति दिलाने में मदद देगा। हम पानी, स्वास्थ्य, सफ़ार्इ, शिक्षा और मानवाधिकारों के मुद्दों पर बात करेंगे।

मूलत: राहुल गाँधी की कोशिश कांग्रेस को राज्यों में खड़ा करने की है। इसमें क्षेत्रीय दल उनके लिए रुकावटें डाल सकते हैं। यह दल नहीं चाहते कि राज्यों में कांग्रेस मज़बूत हो। ऐसा होता है, तो इसका सबसे बड़ा नुक़सान इन क्षेत्रीय दलों को ही उठाना पड़ेगा। इसलिए ये सभी दल कांग्रेस का समर्थन करते हुए बहुत सावधानी बरतते हैं। हालाँकि वो भाजपा के बराबर ही कांग्रेस की भी निंदा करते हैं।

राहुल जब कांग्रेस अध्यक्ष बने थे, तब पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का काफ़ी दख़ल रहता था। कहते हैं कि उनमें यह सहयोग की कमी थी, अपनी प्रासंगिकता बनाये रखने की कोशिश ज़्यादा थी। कुछ नेताओं ने दबाव की राजनीति करने की कोशिश भी की। राहुल इससे प्रसन्न नहीं थे और अपने हिसाब से काम करना चाहते थे। लेकिन ऐसा सन् 2019 के लोकसभा चुनाव तक नहीं हो पाया। यही कारण था कि जब कांग्रेस लगातार दूसरे आम चुनाव में 55 सीटों तक सिमट गयी, तो बिना देरी किये उन्होंने इस हार की ज़िम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया। हालाँकि चुनावों में हार की नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए ख़ुद इस्तीफ़ा दे दिया; लेकिन पार्टी के कुछ युवा नेताओं के मुताबिक, वरिष्ठ नेताओं की चुनाव में भूमिका बहुत नकारात्मक थी।

लेकिन अब वक़्त बदला हुआ लगता है। अध्यक्ष नहीं होते हुए भी राहुल गाँधी पार्टी के फ़ैसले कर रहे हैं। हाल के महीनों में प्रदेशों में जो नये अध्यक्ष बने हैं, वे सभी राहुल गाँधी की पसन्द के हैं। अमरिंदर सिंह जैसे  मुख्यमंत्री को हटा दिया गया है, जो अब बाग़ी सुर अपनाये हुए हैं।

कांग्रेस मामलों का विशेषज्ञ माने जाने वाले वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं- ‘राहुल गाँधी संगठन में बदलाव की स्पष्ट तौर पर कोशिश कर रहे हैं। भले कुछ लोग भूल गये हों, किन्तु सच यह है कि उपाध्यक्ष बनते ही राहुल गाँधी ने जनवरी, 2014 के जयपुर सम्मलेन में ही अपने भाषण में कांग्रेस में बदलाव की बात कही थी।‘

राहुल संगठन में महिलाओं को भी प्रोत्साहित कर रहे हैं। हाल में बिना राजनीतिक पृष्ठभूमि के युवाओं को राहुल गाँधी कांग्रेस में लाये हैं। कांग्रेस की महिला विंग की राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुकीं अनिता वर्मा कहती हैं- ‘राहुल गाँधी में एक नयी कांग्रेस बनाने का भरपूर जज़्बा है। वह अपना काम कर रहे हैं। कांग्रेस कार्यकर्ताओं और देश के युवाओं को उनसे बहुत उम्मीदें हैं। क्योंकि वह भारत को एक सूत्र में बाँधना चाहते हैं और मज़बूत राष्ट्र बनाने की परिकल्पना करते हैं।‘

लगता है कि राहुल गाँधी अब ठान चुके हैं कि अध्यक्ष पद सँभालने से पहले ही वह अपने हिसाब से कांग्रेस को तैयार कर देंगे। सम्भावना यही है कि साल के आख़िर में या विधानसभा चुनाव के बाद वह अध्यक्ष का पद सँभाल लेंगे। तब तक वह ज़्यादातर राज्यों में अपने हिसाब से अध्यक्ष बना चुके होंगे और राष्ट्रीय स्तर पर नया और युवा संगठन बनाने की राह पर होंगे। लखीमपुर खीरी की घटना के बाद राहुल गाँधी और पार्टी महासचिव प्रियंका गाँधी ख़ूब चर्चा में हैं। दोनों ने बता दिया है कि भाजपा को टक्कर देने का समय आ गया है। इसके बाद उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में कांग्रेस संगठन में जान पड़ती दिख रही है।

फ़िलहाल कांग्रेस नये दौर में क़दम रख चुकी है। राहुल गाँधी इसका चेहरा हैं। उनके और पार्टी के सामने भीतरी चुनौतियाँ भी हैं; हारे हुए राज्यों में तो हैं ही, जहाँ कांग्रेस सत्ता में है, वहाँ भी हैं। बदलाव शुरू में जोखिम भरे लगते हैं; लेकिन बाद में अच्छे नतीजे देते हैं। राहुल इसी सोच के साथ संगठन में बदलाव करते दिखते हैं।

हाल में लखीमपुर घटना पर राहुल गाँधी के निर्णय का समर्थन करते हुए शिव सेना के नेता संजय राउत ने उनसे मुलाक़ात की थी और कहा था कि इससे पूरे विपक्ष में नयी ऊर्जा का संचार हुआ है। कांग्रेस यही चाहती है कि विपक्ष पार्टी को विपक्ष के मुख्य चेहरे के रूप में स्वीकार करे और इसके लिए सक्रियता दिखानी होगी। निश्चित ही लखीमपुर खीरी की घटना पर जबरदस्त राजनीतिक दबाव बनाकर कांग्रेस ने विपक्षी ताक़त को धार दी है। देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले समय में देश और प्रदेशों की राजनीति अख़्तियार करती है और राहुल गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस क्या भूमिका अदा करने की स्थिति में पहुँचती है।

जी-23 से जुड़े नेताओं में बेचैनी क्यों?

क्या जी-23, जिसमें ज़्यादातर कांग्रेस के बुजुर्ग नेता हैं; राहुल गाँधी को कोई नुक़सान कर सकते है? यह जितना बड़ा सवाल है, उतना ही छोटा इसका जवाब है- ‘बिलकुल नहीं।‘ इनमें से ज़्यादातर नेता दफ़्तरों में बैठकर पार्टी के लिए काम करते रहे हैं और राज्यसभा के सदस्य रहे हैं। चन्द नेताओं को छोड़ दें, तो बाक़ी ऐसे हैं, जो अपने बूते चुनाव भी नहीं जीत सकते। राहुल गाँधी की इनमें से कुछ बड़े नेताओं से वैचारिक दूरी रही है। तबसे जब कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सत्ता में था। यह दूरी योजनाओं को लेकर बनी थी। राहुल गाँधी योजनाओं को जिस तरीक़े से लागू होता देखना चाहते थे, वैसा हुआ नहीं; या उन्हें कोष (फंड) देने में कुछ मंत्रियों ने कंजूसी की, या बाधाएँ डालीं।

एक ऐसा भी अवसर आया, जब राहुल गाँधी ने पत्रकार वार्ता के बीच में ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार के एक अध्यादेश की प्रति को यह कहकर फाड़ दिया कि यह नीति कांग्रेस की सोच का प्रतिनिधित्व नहीं करती। यूपीए-1 में तो चीज़ें ठीक ही रहीं; लेकिन यूपीए-2 में कुछ ऐसी चीज़ें हुईं जिनसे राहुल राहुल नाराज़ रहे। इसमें कोई दो-राय नहीं कि यूपीए की सन् 2009 में सत्ता में वापसी का श्रेय बहुत कुछ उन योजनाओं को जाता था, जो सोनिया गाँधी की राष्ट्रीय सलाहकार समिति ने सुझायी थीं। हालाँकि दूसरी बार सत्ता में आने के बाद यूपीए-2 के कार्यकाल में चीज़ें वैसी नहीं रहीं, जैसी यूपीए-1 में थीं। भले बड़े काम हुए; लेकिन यही वह दौर था, जब पार्टी के कुछ मंत्रियों ने राष्ट्रीय सलाहकार समिति (सोनिया गाँधी) और कांग्रेस के घोषणा-पत्र से बाहर जाकर चीज़ें करने की कोशिश की। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) भी इसके प्रति व्यावहारिक नहीं दिख रहा था। इस दौर में वे मंत्री या नेता गाँधी परिवार की निजी बातचीत में निंदा करते देखे गये, जो उनके समर्थक समझे जाते थे। प्रणब मुखर्जी समानांतर सत्ता केंद्र के रूप में उभरने की कोशिश में थे और पी. चिदंबरम का भी रूख़ बदला था; जिन्होंने मनरेगा जैसी योजना को कमज़ोर कर दिया। मंत्रिमंडल के फेरबदल ने भी गाँधी परिवार के ज़्यादातर क़रीबियों को ठिकाने लगा दिया गया था। सभी को मुफ़्त राशन जैसी सोनिया गाँधी की महत्त्वाकांक्षी योजना को प्रभावित कर दिया गया। इतना ही नहीं, एक तरह से कांग्रेस संगठन का ही प्रतिनिधित्व करने वाली सोनिया गाँधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार समिति की गाँवों में रोज़गार वाली मनरेगा योजना और किसान क़र्ज़ माफ़ी जैसी लोकलुभावन योजनाओं को उपदान के लिए अपनी ही सरकार से समुचित पैसा नहीं मिल पाया। राहुल गाँधी के क़रीबी ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश की इसके लिए पी. चिदंबरम से खुली लड़ाई चली। उस समय की यह लड़ाई आज कांग्रेस संगठन में बदलाव की बयार लाती दिख रही है। इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी और मनमोहन के साथ काम कर चुके वरिष्ठ नेता पार्टी के फ़ैसलों में अपना अधिकार चाहते हैं। लेकिन उनमें से कुछ ने जो कुछ सत्ता में रहते हुए किया था, वह सब अब उनके सत्ता के बाहर रहते हुए राहुल गाँधी कर रहे हैं। इनमें से कुछ को राज्य सभा की अवधि पूरी होने पर घर में बैठना पड़ा है और अन्य को राहुल गाँधी की तरफ़ से लिए जाने वाले फ़ैसलों की कोई जानकारी नहीं होती। यह नेता अब सवाल उठा रहे हैं कि पार्टी का कोई अध्यक्ष नहीं, तो फ़ैसले कौन कर रहा है? ज़ाहिर है उनके निशाने पर राहुल गाँधी हैं। लेकिन राहुल गाँधी उनकी आलोचना पर कोई संज्ञान न लेकर चुपचाप का कर रहे हैं। ऐसे में बुज़ुर्ग नेताओं के पास फडफ़ड़ाने के अलावा और कोई चारा नहीं है। कभी ये नेता सीडब्ल्यूसी की बैठक बुलाने की माँग कर देते हैं, तो कभी पंजाब के मुख्यमंत्री पद से अमरिंदर सिंह को हटाने की आलोचना करके राहुल गाँधी को घेरने की कोशिश करते हैं। लेकिन राहुल गाँधी इन सबसे बेख़बर-से अपने फ़ैसले लेने में व्यस्त हैं।

राहुल के निर्णय

1. दलित चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाया।

2. वरिष्ठ नेता अमरिंदर सिंह को बाहर किया।

3. इस साल छ: राज्यों में पसन्द के अध्यक्ष बनाये।

4. कन्हैया कुमार, जिग्नेश मेवाणी जैसे दलित नेताओं को पार्टी में लाये।

5. कोरोना मरीज़ों की सेवा करके नाम कमाने वाले क्रिकेटर श्रीनिवास बी.वी. को युवा कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया।