राजनीति में भेदभाव का असर विकास पर

लोकतंत्र में भले जनता किसी भी राजनीतिक दल को जिताती हो पर दूसरे राजनीतिक दल यदि वे केंद्र में हैं तो उनके लिए पराजय मानना कठिन हो जाता है। यह स्थिति दिल्ली, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, जम्मू-कश्मीर और कमोबेश तमिलनाडु में दिखती ही है। प्रधानमंत्री ने सबका साथ, सबका विकास का मंत्र पूरे देश के लिए दिया। सिर्फ किसी एक पार्टी या विचारधारा पर इसमें जोर नहीं है लेकिन नुकसान वह जनता-जनार्दन झेलती है जिसके फैसले से कोई पार्टी सत्ता की कुर्सी पर पहुंचती है।

देश की राजधानी दिल्ली में यही सब अर्से से चल रहा है । दिल्ली में कूडा उठाना और स्वच्छता अभियान से जुड़े पूर्वी दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन के कर्मियों ने इस साल नौ अक्तूबर को अपनी हड़ताल कुल 28 दिन तक हड़ताल पर रहने के बाद उठा ली। ये कर्मचारी दरअसल 2015 से ही अपनी मांग वेतन वृद्धि, स्थायी नौकरी आदि के लिए हड़ताल पर है। गतिरोध खत्म करने के लिए सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा। दिल्ली में म्युनिसिपल कारपोरेशन में भाजपा जीती है। दिल्ली सरकार की फाइल उपराज्यपाल तक जाती है। और लौटने में खासी देर लगती है। केंद्र सरकार ने साफ कह दिया है कि वह कोई वित्तीय मदद नहीं दे सकती।

दिल्ली सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को भरोसा दिया कि वह दो दिन में 500 करोड़ रुपए जारी करेगी। जिससे वर्तमान संकट दूर हो। लेकिन यह पर्याप्त नहीं है क्योंकि पूर्वी और उत्तरी सिविक समितियों को कुल 7000 करोड़ रुपए मात्र का पैकेज इस मसले को खत्म करने के लिए चाहिए।

चुनावों में दो-तिहाई से भी ज़्यादा मतों से दिल्ली में जीती एक सरकार को ठीक से राजकाज न करने देना बताता है कि देश किस तरह भेदभाव की राजनीति है। लोकतांत्रिक संस्थाएं किस तरह अनुपयोगी साबित की जा रही हैं। दिल्ली में जो कुछ हो रहा है वह भारतीय राजनीति की एक नई संस्कृति है। एक पार्टी दिल्ली में जीतती है अपार बहुमत से । दिल्ली का है विशेष दर्जा और चरित्र। थोड़ी बहुत असहजता का अंदेशा भी है। दिल्ली के उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच अधिकारों और ताकतों के बंटवारे को लेकर असुविधाएं हैं। ऐसे कौन से क्षेत्र है जहां असहमतियां हंै। कैसे उनका पता लगे और कैसे दिखे कि उपराज्यपाल एक निरंकुश वायसराय की तरह काम कर सकते है। वे चाहें तो हर कदम पर चुनी हुई सरकार के काम में बाधा दे सकते हैं।

इधर सुप्रीम कोर्ट ने एक संवैधानिक पेंच निकाल दिया है। इसके तहत संवैधानिक स्तर पर तमाम भ्रष्टाचार में दिल्ली का जो स्तर होना चाहिए वह तर्क से भी परे है। चुनाव आयोग आज बेहद खोखला और अविश्वसनीय संस्थान है। वह एक आदेश जारी करता है, जिससे प्राकृतिक न्याय के तमाम आसार खत्म हो जाते हैं और आप विधायक अयोग्य करार दिए जाते हैं लेकिन संस्थागत तोड़-मरोड़ के लिए किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाता। हमारे लोकतंत्र में जो गंभीर रोक-टोक थे वे भी अब लगभग फेल हैं।

आप के कुछ सदस्यों के पास बहुत कुछ कहने के लिए होगा लेकिन जिस तरह सीबीआई और दिल्ली पुलिस ने उनके खिलाफ अपनी सक्रियता दिखाई है उससे आपातकाल के दिनों की याद आती है। मुख्यमंत्री को विवादास्पद तौर -तरीकों के जरिए बाध्य कर दिया जाता है कि वे माफी मांगे। जो न्यायिक संस्थान है वे भी राजनीतिक इशारों से प्रभावित होते दिखते हैं। फिर नौकरशाह सामने आते हैं। एक घटना होती है। बताया जाता है कि एक नौकरशाह के साथ कथित तौर पर हाथापाई हुई। यह घटना भूमिका बनी पूरी नौकरशाही को राजनीतिक जामा पहनाने की कोशिश में।

मुद्दे को हल करने की बजाए संकट और ज़्यादा बढ़ाया गया। नौकरशाह कहते हैं कि उन्हें सताया जा रहा है। दिल्ली सरकार कहती है कि आईएएस लॉबी काम ही नहीं करना चाहती। वह हड़ताल पर भले न हो लेकिन वह किसी भी काम को होने नहीं देती। इसे क्या कहेंगे। एक चुनी हुई सरकार और केंद्र सरकार के प्रति खुद को जवाब देह समझती नौकरशाही के बीच है संबंधों में यह टूट। कुछ भी वजहें रही हों यह मसला हल हो सकता था।

मुख्यमंत्री उपराज्यपाल के कार्यालय पहुंचते हैं। उन्हें मुलाकात का समय नहीं दिया जाता। यह मुद्दा फिर राष्ट्रीय बन जाता है। चार प्रदेशों के मुख्यमंत्री वहां पहुंचते हैं। सभी यह मानते हैं कि यह गहरा संस्थागत संकट है जो नया रूपाकार ले रहा है। यह संकट व्यक्तित्वों की लड़ाई के चलते बढ़ा।

इस पूरे मामले को कई तरह से समझा जा सकता है। एक पार्टी के तौर पर आप को (न कि दिल्ली सरकार को) पार्टी बतौर ही खारिज करना और केजरीवाल का धोखा खाने का सदमा खासा जानकारी भरा है। संस्थागत कामकाज में, अपने कुछ लोगों के कामकाज और खर्च को नहीं देखा जाता, फिर यह पार्टी दूसरी पार्टियों से काफी हद तक अलग कहलाती है। आदर्शवाद को इसने पागलपन की सीमा तक खत्म किया है। हम कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पाते भले ही खुली निगाह संविधान के परे कुछ भी ये कर रहे हों। दरअसल इस हद तक घटना राजनीति ने हमें डरा दिया है कि लगता है हम लोकतांत्रिक कायदे-कानून ही भूल चुके हैं।

केजरीवाल ने इस कारण खासा नुकसान भी उठाया है। सक्रिय कार्यकर्ता की गुणवत्ता केजरीवाल में तब अनैतिक हो जाती है जब वे एक राजनेता के रूप में आते हैं। लेकिन आप यदि इन गलतियों पर घुटने टेक दें तो वे फिर से केंद्र सरकार की तानाशाही से तुलना करते हुए सारी रामकथा बताएंगे। यह एक और बड़ी गलती होगी हम अपने राजनीतिक नज़रिए को आप के ही उन संकेतों से जोड़ें जिसके कारण आज यह हालत हुई।

आज भी केंद्र सरकार आप को हासिल जनमत को बर्दाशत नहीं कर पा रही है। यही हाल उस विपक्षी दल कांग्रेस का है। जबकि सरकार में आने के बाद शिक्षा और चिकित्सा क्षेत्र में आप ने जो सुधार किए हैं वह उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि है। हालांकि केंद्र सरकार का हमेशा विरोधी रूख ही रहा है। आप का सुशासन ज़रूर पार्टी के परिश्रम की बनिस्बत ज़्यादा काबिले तारीफ रहा।

यह एक ऐसी पार्टी है जो समय के साथ गायब नहीं होगी। इसी कारण केंद्र ने अपने प्रयास तेज कर दिए हंै जिससे यह अच्छे काम न कर पाए।

इस तथ्य की कोई और काट नहीं कि केंद्र सरकार लगातार आप पर अपना निशाना साधे हुए हैं। दूर-दूर तक कांगेे्रस की कोई संभावना नहीं नजऱ आती कि वह बहुमत हासिल कर पाएगी। उसके लिए यही बेहतर है कि वह अपनी पुरानी पराजयों की वजहों को सोचे और यह दुहराती रहे कि राजनीति में वह शुचिता की समर्थक है।

फिर 2019 के चुनावी महाभारत में भाजपा के खिलाफ सभी राजनीतिक दल मैदान में होंगे। इसके मुकाबले में आप ही नहीं होगी। बल्कि दूसरे भी होंगे। दिल्ली में आज जो भी संकट पहले दिन से दिख रहा है वह केंद्र सरकार के चलते है। खुद प्रधानमंत्री दिल्ली में आप की जीत को अपनी सबसे बड़ी हार मानते रहे हैं। इस कारण हर तरह की राजनीतिक परेशानियां पैदा करने में केंद्र सरकार जी तोड़ मेहनत करती रही है।

लोकतंत्र आज व्यक्तित्व की लड़ाई में बदल चुका है। भारत में किसी भी मसले का हल मिलजुल कर ढूंढना हमेशा कठिन रहा है। तीसरे, दिल्ली हाईकोर्ट को छोड़ दें तो तमाम जांच-पड़ताल सिर्फ रस्म अदायगी ही रह गई हैं। सुप्रीमकोर्ट से चुनाव आयोग और राष्ट्रपति भवन से सीबीआई मुख्यालय तक हाल यही है। यदि इस पर बात करें तो यही फलसफा सामने आता है। दिल्ली के उपराज्यपाल का घर और दफ्तर भी इसी दायरे में हैं।