मानव विकास सूचकांक-2020 में और नीचे खिसका भारत

पिछले कुछ वर्षों में भारत कई मामलों में पिछड़ा है। भुखमरी, गरीबी और अर्थ-व्यवस्था में पिछडऩे के बाद भारत एचडीआई रैंकिंग में टॉप 100 देशों की सूची से भी लगातार बाहर है। वैश्विक परिदृश्य में तेज़ी से उभरते अर्थ-व्यवस्था वाले देश का इस तरह एक-एक करके कई मामलों में पिछडऩा बेहद चिन्ता का विषय है।

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2020 के मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) में 189 देशों की सूची में भारत 131वें स्थान पर है। सन् 2019 में जारी इस सूचकांक में भारत को 129वाँ स्थान मिला था; लेकिन इस बार की रैंकिंग में यह दो पायदान और नीचे खिसक गया है। प्रतिवर्ष जारी होने वाले इस मानव विकास सूचकांक में पहले की ही तरह एक बार फिर यूरोपीय देशों ने काफी बेहतर प्रदर्शन किया है।

नार्वे इस सूचकांक में पहले स्थान पर है, जबकि आयरलैंड दूसरे तथा स्विट्जरलैंड तीसरे पायदान पर हैं। एशियाई क्षेत्र में सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाले हॉन्गकॉन्ग, सिंगापुर, इजरायल तथा जापान हैं। इस सूचकांग में हॉन्गकॉन्ग चौथे, सिंगापुर 11वें और इजरायल तथा जापान, दोनों 19वें स्थान पर हैं। चार कैटेगरी में विभाजित इस वैश्विक सूचकांक में ये सभी क्षेत्र बहुत उच्च मानव विकास श्रेणी में शामिल हैं। दुनिया का प्रभावशाली देश अमेरिका इस सूचकांक में 17वें पायदान पर है, जबकि निम्न मानव विकास श्रेणी में शामिल अफ्रीकी देश नाइजर इस सूचकांक में 189वें यानी अन्तिम स्थान पर है। इसी साल जारी इस रिपोर्ट में भारत का मानव विकास सूचकांक मूल्य 0.645 है। अगर हम सन् 1990 से सन् 2019 तक के मानव विकास सूचकांक मूल्य को देखें, तो यह 0.429 से बढ़कर 0.645 तक पहुँच गया है, यानी इसमें 50.3 फीसदी की वृद्धि हुई है। अगर हम पिछले कुछ वर्षों में जारी मानव विकास सूचकांक को देखें, तो भारत की रैंकिंग लगभग 130 के आस-पास ही रही है। तेज़ी से उभरती हुई अर्थ-व्यवस्था वाले भारत जैसे देश के लिए यह सूचकांक बेहद महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि यह जीवन प्रत्याशा, शिक्षा तथा प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय जैसे प्रमुख बुनियादी आयामों पर आधारित होता है।

मानव विकास सूचकांक के वर्तमान आँकड़े यह बताते हैं कि साल 2019 में भारतीयों के जन्म के समय की जीवन प्रत्याशा 69.7 वर्ष थी। सन् 1990 में जारी पहली रिपोर्ट से लेकर सन् 2019 के दौरान जन्म के समय भारत की जीवन प्रत्याशा में 11.8 वर्ष की वृद्धि हुई है; लेकिन फिर भी यह दक्षिण एशियाई औसत (69.9 वर्ष) की तुलना में थोड़ी कम है। वहीं भारत में स्कूली शिक्षा के लिए प्रत्याशित वर्ष 12.2 थे। सन् 1990 से सन् 2019 के मध्य स्कूली शिक्षा के प्रत्याशित औसत वर्षों को देखें, तो पता चलता है कि इसमें 3.5 वर्षों की वृद्धि हुई है। क्रय शक्ति समता (पीपीपी) के आधार पर सन् 2018 में भारत की प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय 6,829 अमेरिकी डॉलर थी, जो सन् 2019 में गिरकर 6,681 डॉलर रह गयी है। लेकिन सन् 1990 से सन् 2019 के दौरान भारत के प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय में लगभग 273.9 फीसदी की वृद्धि हुई है। स्वास्थ्य, शिक्षा और कार्बन उत्सर्जन के क्षेत्रों में सुधार के बावजूद भारत का इस सूचकांक में लगातार मध्यम मानव विकास श्रेणी में बने रहना एक चिन्ता का विषय है, जिसके वैश्विक मायने हैं। हालाँकि यूएनडीपी भारत की प्रतिनिधि शोको नोडा का भारतीय प्रदर्शन पर बयान थोड़ा उत्साह बढ़ाने वाला ज़रूर है, जिसमें उन्होंने कहा कि भारतीय रैंकिंग में गिरावट का अर्थ यह नहीं है कि भारत ने अच्छा नहीं किया, बल्कि इसका अर्थ है कि कुछ अन्य देशों ने बेहतर किया। कुछ भारतीय मीडिया संस्थानों ने इस बात पर ज़्यादा फोकस किया कि इस वैश्विक रैंकिंग में भारत अपने पड़ोसी देशों, जैसे- बांग्लादेश (133वें स्थान पर), नेपाल (142वें स्थान पर) तथा पाकिस्तान (154वें स्थान पर) से आगे है। ऐसे मीडिया संस्थानों पर आश्चर्य होता है कि वो यही बात इतनी गम्भीरता से नहीं बताते कि इसी वैश्विक सूची में भारत अपने अन्य पड़ोसी देशों, जैसे- श्रीलंका (72वें स्थान पर) और चीन (85वें स्थान पर) से बहुत पीछे है।

एचडीआई रैंकिंग को वैश्विक नज़रिये से देखने की ज़रूरत

इसमें कोई शक नहीं कि भारत सार्क और बिम्सटेक जैसे क्षेत्रीय संगठनों में शामिल कुछ देशों से अच्छा प्रदर्शन कर रहा है; लेकिन एक बात हमें गम्भीरता से सोचनी होगी कि क्या वैश्वीकरण के इस दौर में महाशक्तियों के बीच इस दुनिया में हमारी प्रतिस्पर्धा पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और म्यांमार जैसे देशों से हैं? 21वीं सदी में आज जब पूरी दुनिया की नज़रें भारत पर टिकी हैं, ऐसे में हमें अपनी सोच का दायरा वैश्विक करने की ज़रूरत है। चूँकि यूएनडीपी का यह सूचकांक किसी राष्ट्र में स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन के स्तर का मापदण्ड है और यह किसी भी देश के मानव विकास को दर्शाता है। ऐसे में अगर हम वर्तमान मानव विकास की रैंकिंग को वैश्विक परिदृश्य में देखें, तो इसके बड़े मायने हैं, जो हमें बताते हैं कि भारत को बुनियादी क्षेत्रों समेत कुछ महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में बहुत बेहतर करने की ज़रूरत है। वर्तमान में भारत जी-20 और ब्रिक्स जैसे दुनिया के दो बेहद महत्त्वपूर्ण समूहों से जुड़ा है। जी-20 में दुनिया के सभी बड़े औद्योगिक व सम्पन्न विकसित देश तथा तेज़ी से उभरते विकासशील देश शामिल हैं। ब्रिक्स में भारत के अलावा जो अन्य चार देश शामिल हैं, वो सभी जी-20 समूह के भी सदस्य हैं। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि दोनों समूहों से जुड़े सभी सदस्य देशों की रैंकिंग भारत से बेहतर है। इन दोनों समूहों से इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका और भारत को छोड़कर सभी सदस्य देशों की रैंकिंग 100 के नीचे है। भारत के ही समान तेज़ी से विकास पथ पर आगे बढ़ रहे एशियाई देश इंडोनेशिया और अफ्रीकी देश दक्षिण अफ्रीका की रैंकिंग्स क्रमश: 107वीं और 114वीं हैं। यानी इस समूह से जुड़ा कोई भी देश मध्यम मानव विकास श्रेणी में शामिल नहीं है। सभी देश या तो बहुत उच्च मानव विकास श्रेणी में शामिल हैं या फिर उच्च मानव विकास श्रेणी में; जबकि भारत इस समूह में शामिल अकेला ऐसा देश है, जो मध्यम मानव विकास श्रेणी में शामिल है। ध्यान रहे कि 120 से 156 रैंक तक जो देश हैं, वो मध्यम मानव विकास श्रेणी में शामिल हैं।

ग्रामीण इलाकों पर ज़्यादा ध्यान देना समय की माँग

ऐसा माना जाता है कि भारत में लगभग तीन दशक पहले हुए आर्थिक सुधारों ने देश को अलग-अलग क्षेत्रों में सशक्त किया है; लेकिन हमें विकास की इस प्रक्रिया को ज़्यादा समावेशी बनाना होगा। हाल के विश्व बैंक के आँकड़े बताते हैं कि भारत की वर्तमान आबादी की लगभग 65 फीसदी जनता ग्रामीण इलाकों में निवास करती हैं। ऐसे में हमें ग्रामीण इलकों पर ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है। हालाँकि देश में ग्रामीण इलाकों के विकास के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा ढेरों योजनाएँ चलायी जा रही हैं, लेकिन अभी भी अपेक्षित बड़े बदलाव दिखने बाकी हैं। सरकार को इन योजनाओं के नाम बदलने से ज़्यादा इनको लागू करने के तरीकों में बदलाव करने की ज़रूरत है। ऐसी व्यवस्था बनानी होगी कि जो भी योजना ग्रामीण स्तर तक पहुँचे, उसका लाभ न्यायसंगत तरीके से सभी लोगों तक पहुँचे।

अगर हमें मानव विकास सूचकांक में बेहतर करना है या फिर संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित सतत् विकास के लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर गम्भीरता से आगे बढऩा है, तो जनसंख्या की दृष्टि से भारत के बड़े राज्यों, खासकर बीमारू राज्यों- बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में बेहतर स्वास्थ्य सेवाएँ, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तथा कृषि क्षेत्र को उन्नत करना होगा। इसके साथ ही गरीबी और बेरोज़गारी को दूर करने की ईमानदार कोशिश करनी होगी तथा लैंगिक समानता को हर हाल में बढ़ावा देना होगा। बीमारू राज्यों समेत देश के अनेक राज्यों के ग्रामीण इलाकों में शिक्षा की स्थिति बुरी है। वर्तमान में कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी ने इन राज्यों की स्वास्थ्य सुविधाओं की भी पोल खोल दी है। इन क्षेत्रों में सुधार से सच्चे अर्थों में भारतीय समाज में फैली सामाजिक असमानता को खत्म करने में हमें मदद मिलेगी तथा सामाजिक न्याय की अवधारणा मज़बूत होगी। यूएनडीपी की भारतीय प्रतिनिधि का गरीबी की तरफ इशारा यह बताता है कि भारत को अगर आर्थिक और सामाजिक पैमानों पर बेहतर करना है, तो इस दिशा में खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में गम्भीरता से कार्य करने की ज़रूरत है। भारत की तेज़ी से बढ़ती हुई जनसंख्या यकीनन चिन्ता का एक महत्त्वपूर्ण विषय है, जिसे सरकार और जनता दोनों को समझना होगा। अगर हम यूएनडीपी द्वारा जारी मानव विकास सूचकांक की कुछ वर्षों की रिपोट्र्स को ध्यान से देखें, तो पाते हैं कि इस सूची में शीर्ष स्थानों पर मौज़ूद ज़्यादातर देश जनसंख्या की दृष्टि से छोटे हैं। इसी संस्था के पहले के मानव विकास सूचकांक में भारतीय राज्यों की रिपोट्र्स पर नज़र डालने पर पता चलता है कि जनसंख्या की दृष्टि से बड़े राज्यों का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा है। ऐसे में हमें इन बड़े राज्यों पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है, ताकि यहाँ स्थिति को बेहतर किया जा सके।

हाल ही में वैश्विक स्तर पर जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2020 की रिपोर्ट में भारत का 107 देशों की सूची में 94वें स्थान पर होना भी बेहद चिन्ता का विषय है। इस रिपोर्ट के अनुसार, श्रीलंका (64वें), नेपाल (73वें), बांग्लादेश (75वें) तथा पाकिस्तान (88वें) स्थान पर हैं, जो भारत से बेहतर स्थिति में हैं। ऐसे में भारत के नीति नियंताओं को भुखमरी और कुपोषण की दिशा में भी गम्भीरता से सोचने की ज़रूरत है। अगर हम पिछले कुछ वर्षों के विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) द्वारा जारी लिंग अन्तर रिपोट्र्स को देखें, तो इसमें भी भारत की स्थिति चिन्ताजनक है। इसमें कोई शक नहीं कि धीरे-धीरे पूरी दुनिया में लिंग भेद कम हो रहा है, लेकिन भारत समेत कुछ देशों में महिलाओं और पुरुषों के बीच स्वास्थ्य, शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय और राजनीति में भेदभाव अभी भी मौज़ूद है; जिसे तत्काल दूर करने की ज़रूरत है। वर्तमान समय की माँग है कि देश के, खासकर ग्रामीण इलाकों के लोगों के जीवन गुणवत्ता में सुधार करते हुए विभिन्न क्षेत्रों में उनका कौशल विकास किया जाए, ताकि वे बदलते परिवेश में अपनी दक्षता विकसित करके व्यक्तिगत आय में वृद्धि कर सकें। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक एवं दूसरे सबसे बड़े जनसंख्या वाले देश भारत को यह बात अच्छी तरह समझनी चाहिए कि सतत् विकास लक्ष्यों पर गम्भीरता से कार्य किये बिना संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास का एजेंडा अधूरा ही रहेगा। भारत का इस दिशा में बेहतर प्रयास वैश्विक रूप से सामाजिक समानता को मज़बूती देगा। यह बेहद शर्म की बात है कि आज़ादी के करीब साढ़े सात दशक बाद भी तमाम विकासात्मक नीतियों के बावजूद देश के अधिकतर नागरिकों को अभी तक बुनियादी सुविधाएँ तक मुहैया नहीं हो पायी हैं। देश का भ्रष्ट शासन-प्रशासन तंत्र, सत्तालोलुप नेता और कुछ गैर-ज़िम्मेदार तथा लालची नागरिक व समाज इसके सबसे बड़े ज़िम्मेदार हैं। पढ़ी-लिखी भारतीय जनता का गम्भीर मुद्दों से प्रत्यक्ष सरोकार होने के बाद भी चुप्पी साध लेना या महत्त्वपूर्ण मुद्दों से अनभिज्ञ रहना भी बेहद दु:खद है।

(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोधार्थी हैं।)