भोले बाबा की मुक्ति का पर्व है: नरेंद्र मोदी

यह काशी विश्वनाथ बाबा का घर है। भोले बाबा का आज (आठ मार्च) मुक्ति पर्व है। ऐसे जकड़ा था भोले बाबा को चारों ओर दीवारों से कि सांस लेने में भी मुश्किल होती थी। बाबा ही नहीं यहां लगभग 40 मंदिरों की भी मुक्ति हुई है जो घरों में थे। कारिडोर बनाने का पहला चरण पूरा हुआ। अब इस खुले परिसर की विशालता से भक्तों को राहत मिलेगी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना काशी विश्वनाथ कारिडोर और गंगा व्यू के पहले चरण का विमोचन (नौ मार्च को) किया। पूरी परिकल्पना देख कर गद्गद प्रधानमंत्री ने प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के प्रशासकों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि ये सब बढ़े ही भक्तिभाव और सेवा भावना से दिन-रात एक करके इस काम को पूरा करने से जुटे हैं। देश के करोड़ों लोगों की आस्था का यह केंद्र है।

भाजपा के वरिष्ठ नेता ने उनके प्रति भी आभार जताया जिनके यहां मकान थे। जिनकी यहां दुकानें थी और जो किराएदार थे। उन्होंने कहा कि यहां अपनी जगह छोडऩे वाले तीन सौ लोगों का अमूल्य सहयोग मिला। उन्होंने अपनी बहुमूल्य जगह बाबा के चरणों में समर्पित कर दी।

इतिहास याद करते हुउ उन्होंने कहा सदियों से यह स्थान दुश्मनों के पददलन से आक्रांत रहा। लेकिन अस्तित्व के बिना भी यहां जीवन रहा। यहां आस्था जीवित रही। सदियों बाद अहिल्या देवी ने यहां पुनरूद्धार किया। ढाई सौ साल से कुछ पहले इसे एक रूप मिला। आज़ादी के 70 सालों में भी किसी ने चिंता नहीं की। अब हुई

प्रधानमंत्री ने कहा अब भक्तजन मां गंगा में स्नान करके सीधे बाबा के चरणों में शीश झुका सकते हैं। यह सब काशी विश्वनाथ के प्रति आस्था के चलते ही संभव हुआ। भोले बाबा ने चेतना जगाई। चेतना जगी। काशी की नई पहचान पूरे विश्व में होगी। नई पहचान बनेगी।

काशी विश्वनाथ प्रोजेक्ट वाराणसी में अस्सी से वरूणा नदी के बीच फैला हुआ है। कुल 25 चरण की इस परियोजना के पहले चरण का विमोचन प्रधानमंत्री ने किया। काशी के इस नए रूप को पंडित काशी राम उपाध्याय भी नहीं समझ पा रहे हैं। गाजीपुर से बाइक से यहां आए उपाध्याय ने कहा,’हम क्या, बाबा औघडऩाथ भी नहीं समझ पा रहे होंगे कि वह काशी कहां गई जो उनके त्रिशूल पर बसी थी। वे बार-बार त्रिशूल को झटकाते हैं लेकिन उनकी काशी कहीं हो तब न।’

महाशिवरात्रि के बाद शनिवार को नई काशी पहुंचे। इस नई काशी में विभिन्न सजावटी प्रवेश द्वारों से गुरजे हुए वे विश्वनाथ कारिडोर पहुंचे। काशी विश्वनाथ मंदिर से गंगा तक आधा किलोमीटर का गालियों-मकान-दुकानों का भीड़ भरा इलाका बमुश्किल एक-डेढ़ साल में खाली करा लेना सहज नहीं था।

वाराणसी प्रशासन ने गलियों-मकानों के मलबे को हटाने के लिए जेसीबी मशीनें वगैरह तो पहले ही हटा दी थीं । जहां टूटे मकान अब भी थे और ज़मीन पर मलबा था वह सब एल्यूमिनियम की सफेद और नीली चाद्दरों से ढक दिया गया था। नई काशी में बन रहा विश्वनाथ कारिडोर प्रधानमंत्री का ड्रीम प्रोजेक्ट है जो तेजी से अमल में आता दिख रहा है।

काशी विश्वनाथ मंदिर को जाने वाली ढेरों ऐतिहासिक- सांस्कृतिक, धार्मिक महत्व की गलियां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ड्रीम-प्रोजेक्ट को अमल में लाने के लिए धराशायी कर दी गईं। किसी बड़े विपक्षी दल की तब नींद नहीं खुली। जनवरी महीने में ज़रूर आम चुनाव को ध्यान में रखकर आम पार्टी के सांसद (राज्यसभा) संजय सिंह अयोध्या में दो दिन की यात्रा समाप्त कर बनारस पहुंचे और खंडहर में बदली गलियों को देख दुखी हुए।

काशी विश्वनाथ कारिडोर बनाने की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी योजना को उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने विश्वस्त अधिकारियों के जरिए लगभग युद्ध स्तर पर शुरू कराया। स्थानीय जनता से योजना पर कोई राय-बात नहीं हुई। स्थानीय मीडिया में छिटपुट आंदोलन की कभी कोई खबर नहीं छपी। गलियों में मकान चिन्हित हुए। बातचीत हुई। सर्किल रेट से कुछ ज़्यादा मुआवजे पर मकान-दुकान खरीदे गए। तोडफ़ोड़ शुरू हो गई। पुलिस की मौजदूगी में रात में मलबा हटाया जाता। कुल 45 हजार स्कवाएर मीटर जगह घेरे हुए मकान-दुकान-मंदिर गली तमाम गलियां हटा दी गई। अब सात सौ मीटर कारिडोर पर फिलहाल काम हो रहा है। कुल 25 चरण में यह काम प्रशासन पूरा जल्द करेगा। आप के सांसद ने कहा कि इस काशी विश्वनाथ कारिडोर अभियान में 40 ऐतिहासिक मंदिर इस भाजपा सरकार ने तोड़ दिए। राष्ट्रीय महत्व के इस सबसे पुराने शहर का अंतरराष्ट्रीय महत्व रहा है वहां एक परियोजना के बहाने प्राचीन मंदिर नष्ट कर दिए गए। यह विचित्र ही है। उधर अयोध्या में भाजपा, राम का मंदिर निर्माण करने के लिए सड़क से संसद और अदालत तक कुछ नहीं कर रही हैं लेकिन यहां 40 मंदिर और असंख्य शिवमूर्तिया तोड़ दी।

विश्वनाथ कारिडोर बनाने की प्रक्रिया में न जाने कितने हजार लोगों की आजीविका चली गई। वे सब गलियों में पसरे बाजार में तरह-तरह की दुकानें करते थे। कई सौ सालों से उनके परिवार यहां गलियों में रह रहे थे। अब उन्हें कही और छत और पेट के लिए जाना पड़ा।

काशी विश्वनाथ कारिडोर परियोजना में अनुमान है कि तीन सौ घर, 200 दुकानें तोड़ी गई। अभी यह तादाद और बढ़ेगी क्योंकि प्रधानमंत्री की इच्छा है कि ललिता घाट और मणिकर्णिका घाट से गंगा और काशी विश्वनाथ बाबा का दर्शन एक नजऱ में हो सके।

इस बार के आम चुनाव में अरविंद केजरीवाल तो वाराणसी से शायद चुनाव नहीं लड़े। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फिर यहां से चुनाव लड़ सकते है।

काशी का ऐतिहासिक ‘गली युद्ध’

गली युद्ध काशी की गलियों का एक ज्वलंत इतिहास के रूप में जाना जाता है। अब गलियां तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट को साकार करने में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने अधिकारियों-कर्मचारियों के जरिए रसातल में मिला दी। लेकिन उस इतिहास को जानाना ज़रूरी है।

वह वक्त था 17 अगस्त 1781 का। वाराणसी -बनारस -काशी की इन्ही गलियों से वारेन हेस्टिंग्स को काशी के वीर सपूत नन्हकू सिंह ने भागने पर मज़बूर कर दिया था। वारेन हेस्टिंग बनारस आया था। काशी के राजा चेत सिंह से 50 लाख रुपए जुर्माना वसूलने। आज के कबीर चैरा में माधोदास के बगीचे में वह रुका था। जिसे आज भी लोग स्वामी बाग के नाम से जानते हैं। आज भी वहां लगे शिलापट्ट पर उसके नाम की पट्टिका लगी है। तब वारेन हेस्टिंग्स ने अपने एक कमांडर को 150 सैनिकों के साथ शिवाला भेजा जहां राजा चेतसिंह अपने किले में रूके थे। आदेश था उन्हें गिरफ्तार करके उसके सामने लाया जाए।

जब इसकी जानकारी नन्हकू सिंह को मिली तो वे अपने कुछ लठैतों को लेकर 16 अगस्त 1781 को शिवाला पहुंच गए। वहां चर्चित गली युद्ध हुआ था। इसमें अंग्रेज कमांडर और 100 से अधिक सैनिक मारे गए थे। इस लड़ाई में  नन्हकू सिंह भी शहीद हुए। लेकिन उन्होंने राजा चेतसिंह को अंगे्रजों के कब्जे में आने से पहले ही गंगा में नाव से पार करा उनके रामनगर किले में पहुंचा दिया।

इधर नन्हकू सिंह अंग्रेजों से लोहा लेते रहे। उधर चेतसिंह रामनगर में अपने किले में सुरक्षित पहुंच चुके थे। जब इस पूरी घटना की जानकारी वारेन हेस्टिंग्स को मिली तो वह थर-थर कांपने लगा। बनारस में उसके अपने बेनीराम साब ने उसकी मदद की। वारेन हेस्टिंग्स अपने बचे-खुचे 450 सैनिकों की कुमुक लिए हुए पास के शहर चुनार पहुंचा। वहां के किले में उसे शरण मिली।

बाद में पूरी तैयारी के साथ उसने बनारस पर धावा बोला। अपने मारे गए कमांडर और सैनिकों की याद में उसने शिवाला पर स्मारक बनवाया। यह आज भी वहां है।