भारतीय हॉकी के कुछ रोचक किस्से

केवल तीन लोगों ने विदा की टीम

बात 10 मार्च 1928 की है। भारतीय हॉकी टीम पहली बार ओलंपिक खेलों में भाग लेने के लिए जा रही थी। यह ओलंपिक हालैंड के शहर एमेस्ट्रम में होने थे। टीम में हॉकी के जादूगर ध्यानचंद शौकत अली, पटौदी के नवाब एसएम यूसफ, केहर सिंह, टीम के कप्तान जयपाल सिंह और सेमीफाइनल और फाइनल में कप्तानी करने वाले ई. पिनीगर जैसे खिलाड़ी मौज़ूद थे; पर आम लोगों में मीडिया में कोई उत्साह नहीं था। यही वजह थी कि टीम को मुम्बई (उस समय बम्बई)  की बंदरगाह पर विदाई देने कुल तीन लोग थे। इन में भारतीय हॉकी संघ (आईएचएफ) के अध्यक्ष मेजर बने मैट्रोक, उपाध्यक्ष सीई पूहल और एक पत्रकार एस. भट्टाचार्यजी शामिल थे। इस ओलंपिक में भारत समेत हॉकी की टीमें थीं। यहाँ भारत ने कुल पाँच मैच खेले और सभी जीते। उन्होंने स्विटजरलैंड को 6-0 से, आस्ट्रिया को 6-0 से, बेल्जियम को 9-0 से, डेनमार्क को 5-0 से और फाइनल में मेजबान हॉलैंड को 3-0 से परास्त कर स्वर्णपदक जीत लिया। इस प्रकार भानत ने 29-0 गोल किये और उनके िखलाफ एक भी गोल नहीं हुआ।

यह टीम जब लौटकर आयी, तो मुम्बई का वही बंदरगाह, जो टीम की विदाई के समय उजाड़ था; जनसैलाब से भरा था। टीम का भव्य स्वागत किया गया। यहीं से उदय हुआ हॉकी के जादूगर ‘दादा’ ध्यानचंद का। इस ओलंपिक में अपने पूल और नाकआउट मैचों में कुल 29 गोल किये। इनमें से लगभग आधे (14) ध्यानचंद ने किये। फिरोज़ खान ने पाँच मौरिस गेटले, केट्रिक सीमैन और जॉर्ज मार्टिन ने तीन-तीन और शौकत अली ने एक गोल किया। भारत पर कोई गोल नहीं हुआ।

ब्रिटेन की टीम में घबराहट

एमेस्ट्रम जाते हुए भारतीय टीम लंदन की बंदरगाह पर रुकी थी। वहाँ ब्रिटेन को पता चला कि भारतीय टीम ओलंपिक के लिए जा रही है। उन्हें पता था कि इस टीम के सामने वे लोग टिक नहीं पाएँगे, इसलिए उन्होंने मुकाबले से अपना नाम वापस ले लिया। ध्यान रहे कि 1908 और 1920 की ओलंपिक खेलों में हॉकी का स्वर्णपदक ब्रिटेन ने ही जीता था।

गोलरक्षक तो ऑटोग्राफ दे रहा था

यह बात तो सबको पता है कि 1932 के लॉस एंजिलेस ओलंपिक में लालशाह बुखारी के नेतृत्व में गयी भारतीय हॉकी टीम ने मेज़बान अमेरिका को 24-1 से हराकर ओलंपिक में सबसे ज़्यादा गोल करने का रिकॉर्ड कायम किया था, जो आज भी कायम है। लेकिन यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि भारत पर एक गोल कैसे हुआ? यह एक रोचक िकस्सा है। असल में भारत की फारवर्ड लाइन ने ताबड़तोड़ हमले करके लगभग हर तीसरे मिनट में गोल करने का सिलसिला बना दिया था। गेंद भारत के क्षेत्र में आ ही नहीं रही थी। इसी दौरान अमेरिकी खिलाडिय़ों ने एक लम्बी हिट से गेंद भारत के गोल की तरफ मारी। टीम डिफेंस के खिलाड़ी यह सोचकर गेंद के पीछे नहीं भागे कि इस गेंद क्लीयर करना गोलरक्षक रिचर्ड ऐलन के लिए कठिन नहीं होगा। पर जब उन्होंने पीछे देखा, तो ऐलन कहीं नज़र नहीं आ रहे थे। गोल पोस्ट खाली थी। जब ध्यान से देखा, तो पाया कि ऐलन तो गोलपोस्ट के पीछे अपने चहेते दर्शकों को ऑटोग्राफ दे रहे हैं। खूब गप्पें लग रही हैं। जब तक वे लौटकर आते, तब तक गोल हो चुका था। असल में ऐलन खड़े-खड़े बोर गये थे। गेंद उनसे कोसों दूर थी। अपनी बोरियत मिटाने व गप्पें हाँकने गोल पोस्ट के पीछे चले गये थे। ओलंपिक हॉकी में इस तरह की कोई दूसरी मिसाल नहीं मिल सकती। इस ओलंपिक के एक और मैच मेें भारत ने जापान को 11-1 से परास्त करके स्वर्ण पदक जीता। यहाँ भारत ने कुल 35 गोल किये और दो खाये। इन दो मैचों में ध्यान चंद ने 12, उनके भाई रूप सिंह ने 13, गुरमीत सिंह ने आठ ऐलन और एरिक पिनिगर ने एक-एक गोल किया।

जब भारत 1-4 से मैच हारा

1936 का बॢलन ओलंपिक भारत की अग्नि परीक्षा थी। हिटलर के देश में जर्मनी को हराना आसान नहीं था। इस बार टीम की बागडोर ध्यानचंद के हाथ थी। टीम में एम. ज़ाफर, आर.जे. ऐलन, अली यकदीर शाह उर्फ दारा, सी. तापसेल, मोहम्मद हुसैन, एफ.जे. गोडसर कुलेन, जे. फिलिप, एमएन मसूद अहसान मोहम्मद खान, पीटर फर्नांडिस, गुरचरण सिंह रूप सिंह, अहमद शेर खान, शहाबुद्दीन, बी.एन. निमल आई.सी. इमट, सीजे मिशी, जे.डी.टी. गैलीबर्डी, जगन्नाथ (मैनेजर) और पंकज गुप्ता  सहायक मैनेजर थे।

यदि उस समय के हालात पर नज़र डालें, तो वे भारत के ज़्यादा हक में नहीं थे। टीम के चयन के समय वेल्स की जगह इमट को लिया गया। इस पर सभी हैरान थे। इसके अलावा डिक्की कार को भी हटाना पड़ा, क्योंकि रेलवे के इस खिलाड़ी को रेलवे ने छुट्टी नहीं दी। इसके बाद को एक बड़ा झटका उस समय लगा, जब एक अभ्यास मैच के दौरान भारत की टीम जर्मन एकादश से 1-4 से हार गयी। बॢलन में टीम का यह पहला ही मैच था। उस समय तुरन्त टीम के मैनेजर, सहायक मैनेजर, कप्तान और उप कप्तान के बीच विचार विमर्श हुआ और भारतीय हॉकी संघ के अध्यक्ष सर जगदीश प्रसाद को तार भेजा गया। इसके बाद ऑफ फार्म इमट का स्थान लेने दारा को वायुयान से भेजा गया। इस तरह टीम में राइट इन की पोजीशन मज़बूत हो गयी।

टीम में गोलरक्षक ही नहीं था

ओलंपिक में भारतीय टीम ने कुछ अड़चनों के बावजूद जीत का जज़्बा बनाये रखा। टीम में पूरा तालमेल था। यह केवल मैदान पर ही नहीं, अपितु मैदान के बाहर भी नज़र आता था। दिल्ली में अभ्यास मैचों के दौरान पाया गया टीम के पास कोई गोलरक्षक ही नहीं है। उस समय सिंध प्रान्त के खिलाड़ी पीटर पाल फर्नांडिस ने इस कार्य के लिए अपनी सेवाएँ दीं और उन्होंने इसे बखूबी निभाया भी।

इसी प्रकार उस समय के सबसे तेज़ और होशियार लैफ्टआउट मोहम्मद जाफर को अधिकतर अभ्यास मैचों में राइट इनके स्थान पर खेलना पड़ा; क्योंकि हालात कुछ ऐसे थे। इसी प्रकार सेंटर हाफ बी.एम. निमल को राइट हाफ के स्थान पर खिलाया गया। उन्होंने भी टीम की ज़रूरत को देखते हुए कभी इसका विरोध नहीं किया। उन्होंने गज़ब का खेल दिखाया और टीम को जिताने में अपनी बड़ी भूमिका निभायी। गोडसर कुलन को कई स्थानों पर आज़माने के बाद अन्त में सेंटर हाफ खिलाया गया। रक्षा पंक्ति में तपसल और मोहम्मद हुसैन ने कमाल का खेल दिखाया।

इसके बाद लाहौर में कुछ अभ्यास मैच खेले गये। इनमें से एक मैच ऐसा था, जिसमें रूप सिंह नहीं खेलना चाहते थे। क्योंकि उनकी टाँग की चोट के कारण वे चल भी नहीं पाते थे। लेकिन जब कप्तान ने उन्हें खेलने का आदेश दिया, तो वे बिना एक शब्द बोले मैदान में आ गये। इसी प्रकार आरक्षित खिलाडिय़ों ने कभी इस बात पर ऐतराज़ नहीं किया कि उन्हें मौका क्यों नहीं दिया जा रहा? यही भावना लेकर बॢलन गयी टीम लगातार तीसरा स्वर्ण पदक लेकर लौटी; वह भी हिटलर के सामने जर्मनी को 8-1 से हराकर। इसके अलावा अपने पूल मैचों में भारत ने हंगरी को 4-0 से, अमेरिका को 7-0 से, जापान को 9-0 से, सेमीफाइनल में फ्रांस को 10-0 से और फाइनल में जर्मनी को 8-1 से परास्त किया। इस प्रकार भारत ने पाँच मैचों में कुल 38 गोल किये और एक खाया। यहाँ ध्यानचंद और रूप सिंह ने 11-11 गोल किये जबकि तपसल और दारा ने चार-चार, ज़ाफर ने तीन, फर्नांडिस ने दो, शहाबुद्दीन ने दो और कुलन ने एक गोल किया।

ब्रिटेन पहली बार हारा

एक रोचक तथ्य यह है कि भारत के तीन स्वर्ण पदक जीतने के बावजूद ब्रिटेन का ओलंपिक में अजय रहने का कीर्तिमान बरकरार था। कारण यह कि 1908 और 1920 में दो स्वर्ण पदक जीतने के बाद उसने ओलंपिक हॉकी में भाग ही नहीं लिया था। 1936 के बॢलन ओलंपिक के बाद दूसरे विश्व युद्ध के कारण 1940 और 1944 के ओलंपिक खेल नहीं हो पाये थे। अब आये 1948 के ओलंपिक खेल, जो लंदन में खेले गये। यह वह समय था, जब भारत आज़ाद हुआ था और विभाजन का दंश सह रहा था। देश में टीम का बनना कठिन था। उस समय भारतीय हॉकी संघ के अध्यक्ष नवल एच. टाटा ने एक ऐसी टीम खड़ी की, जिसने एक बार फिर यानी चौथी बार स्वर्ण पदक भारत की झोली में डाल दिया। लंदन ओलंपिक में कुल 13 टीमों ने हिस्सा लिया, जिन्हें तीन ‘पूलों’ में बाँटा गया था। यहाँ भारत ने फाइनल में ब्रिटेन को 4-0 से हराकर िखताब जीता, वहीं ओलंपिक खेलों में ब्रिटेन की यह पहली हार थी। यहाँ ब्रिटेन दूसरे, हॉलैंड तीसरे और पाकिस्तान चौथे स्थान पर रहा। यहाँ खेले मैचों में भारत ने आस्ट्रिया को 8-0 से, अर्जेंटीना को 9-1 से, स्पेन को 2-0 से और सेमीफाइनल में हालैंड को 2-1 से हराया था। उस समय ओलंपिक हॉकी में भारत की हालैंड पर 2-1 की जीत भारतीय हॉकी इतिहास की सबसे कम अन्तर की जीत थी।

इस टीम का नेतृत्व किशनलाल ने किया था। दिगविजय सिंह बाबू उप कप्तान थे।

अलविदा बलबीर सिंह कुलार

1942 में पंजाब के संसारपुर गाँव में जन्मे प्रसिद्ध हॉकी खिलाड़ी और सेवानिवृत्त डीआईजी बलवीर सिंह कुलार अब हमारे बीच नहीं रहे। 01 मार्च को लम्बी बीमारी के बाद उन्होंने इस नश्वर संसार को छोड़ दिया। 02 मार्च को उनके परिजनों, प्रशंसकों और रिश्तोदारों के अलावा जिले भर के दिग्गज राजनीतिज्ञों, पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों ने उन्हें अंतिम श्रद्धांजलि देकर अलविदा कहा। गाँव संसारपुर में उनका अंतिम संस्कार किया गया। कुलार के बेटे कमल वीर सिंह सन्नी ने उनकी चिता को मुखाग्नि दी।

बलवीर सिंह कुलार ने स्कूली शिक्षा के दौरान ही हॉकी खेलना शुरु कर दिया था। पढ़ाई के दौरान ही अच्छा खेलने पर उन्हें पंजाब सरकार ने अपनी टीम में शामिल कर लिया था। उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। सन् 1963 में कुलार ने भारतीय टीम की तरफ से पहला इंटरनेशनल मैच फ्रांस में खेला था। इसके बाद इंग्लैंड, नीदरलैंड, पूर्वी अफ्रीका, पूर्वी जर्मनी, इटली, न्यूजीलैंड और केन्या सहित कई देशों में बलवीर सिंह कुलार ने हॉकी में देश का नाम रोशन किया। वे सन् 1966 में बैंकाक एशियाई गेम्स में स्वर्ण पदक, सन् 1968 में मैक्सिको ओलंपिक में कांस्य पदक जीतने वाली टीमों का हिस्सा रहे। उन्हें सन् 1999 में अर्जुन अवॉर्ड और सन् 2009 में पद्मश्री सम्मान से नवाज़ा गया। सन् 1962 में पंजाब सरकार ने उन्हें पंजाब पुलिस में एएसआई नियुक्त किया।

बलवीर सिंह कुलार को अपने ही वतन की मिट्टी नसीब हुई, क्योंकि वे अपने बेटे के पास कनाडा जाने की तैयारी कर रहे थे, लेकिन वहाँ जाने से दो दिन पहले ही उन्होंने नश्वर शरीर को त्याग दिया। कुलार के परिवार में पत्नी, एक बेटा और दो बेटियाँ हैं।