भारतीय अर्थ-व्यवस्था किस ओर?

भारतीय अर्थ-व्यवस्था के सम्बन्ध में तीन रिपोट्र्स लगभग एक साथ जारी की गयी हैं, जो एक-दूसरे के रूप विपरीत हैं। एक ओर जहाँ हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के विद्वानों की एक अध्ययन रिपोर्ट भारत में महा मंदी की ओर इशारा करती है। वहीं, यूके स्थित सीईबीआर का दावा है कि भारत निकट भविष्य में चौथी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था बन सकता है। इससे इतर अब तीसरी रिपोर्ट विश्व बैंक की रिपोर्ट सामने आयी है, जिसमें कहा गया है कि भारत की विकास दर को पिछले 11 साल में सबसे निचले स्तर पर है। हम यह पता लगाने के लिए तीनों रिपोट्र्स का विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे हैं, ताकि यह समझने में मदद मिले कि भारतीय अर्थ-व्यवस्था किस दिशा में जा रही है?

एनडीए की केन्द्र सरकार ने अब तक देश में विकास के तमाम वादे और दावे किये हैं। इन वादों और दावों में कितनी स”ााई है, इस पर सरकार को मंथन करने के साथ-साथ, विशेषज्ञों से सलाह लेने और विश्लेषण कराने की ज़रूरत है। आज अधिकतर अर्थ शास्त्री, विशेषज्ञ और बुद्धिजीवी यह कह रहे हैं कि देश आॢथक मंदी से गुज़र रहा है। हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक ने भी यह बात कही थी। सम्भवत: सरकार के रुख से सहमत न होने के चलते आरबीआई के गवर्नर ने इस्तीफा भी दिया था। नोटबन्दी के बाद जमा धन और बदले गये नोटों के आँकड़े भी आज तक स्पष्ट नहीं किये गये हैं। यह भी माना यह जा रहा है कि रोज़गार घट रहे हैं। सरकारी तथा निजी संस्थानों की हालत खराब है।

मुद्रा स्फीति की दर 5 फीसदी पर पहुँच गयी है। डॉलर के मुकाबले रुपया अत्यधिक कमज़ोर हुआ है। बैंकों के तमाम मोटे कर्ज़दार पैसा लेकर उड़ चुके हैं। यहाँ तक कि पिछले साल मुम्बई की पीएमसी बैंक दिवालिया हुआ और उसने लोगों की जीवन भर की जमा पूँजी होल्ड कर ली। अब सरकार बेरोज़गारी के आँकड़े भी जारी नहीं कर रही है। कई आवश्यक मुद्दों पर अब कोई चर्चा भी नहीं हो रही है।

इसके अलावा देश में अनेक विवाद अलग से छिड़े हुए हैं। ऐसे समय में विश्व स्तर के विशेषज्ञ संस्थानों ने भारतीय अर्थ-व्यवस्था पर अपनी-अपनी रिपोर्ट पेश की हैं। तीनों रिपोट्र्स मिलीजुली हैं। तहलका ने इन्हीं तीन रिपोट्र्स को सीधे-सीधे पेश किया है।

सीईबीआर की रिपोर्ट

सुधरेंगे हालात

यूके स्थित सेंटर फॉर इकोनॉमिक्स एंड बिजनेस रिसर्च (सीईबीआर) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2026 तक भारत में चौथी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था और 2034 तक तीसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था बनने की उम्मीद है। इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि 2019 में अमेरिका की जीडीपी दुनिया के 24.8 फीसदी तक पहुँच गयी, जो 2007 के बाद से विश्व अर्थ-व्यवस्था का सर्वाधिक हिस्सा है। 2020 तक अमेरिका के दुनिया की सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था बने रहने की उम्मीद है और 2033 तक सिर्फ चीन उससे आगे निकल सकता है।

सीईबीआर की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत 2026 में जर्मनी से आगे निकल जाएगा और 2034 में जापान को पछाडक़र दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था बन जाएगा। 2024 तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के अर्थ-व्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर तक ले जाने के लक्ष्य का उल्लेख करते हुए, रिपोर्ट में दावा किया गया है कि ‘भारत वर्तमान सरकार के लक्ष्य से 2 साल बाद 2026 तक 5 ट्रिलियन डॉलर की जीडीपी तक पहुँचने के लिए भी तैयार है।’

रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत 2026 तक 5 ट्रिलियन डॉलर के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के लक्ष्य को हासिल करने में कामयाब होगा। सरकार के इस लक्ष्य को पाने में महज़ कुछ साल का समय और लग सकता है। ‘भारत ने 2019 में दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था बनने के लिए फ्रांस और यूके दोनों को पीछे छोडऩे की उम्मीद है। 2026 में जर्मनी से आगे निकलने और 2034 में जापान से आगे निकलकर तीसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था बन सकती है। ‘वल्र्ड इकोनॉमिक लीग टेबल 2020 (डब्ल्यूईएलटी 2020)’ शीर्षक से वल्र्ड इकोनॉमिक लीग टेबल के नवीनतम संस्करण, अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक पूर्वानुमानकर्ताओं, लंदन स्थित सेंटर फॉर इकोनॉमिक्स एंड बिजनेस रिसर्च (सीईबीआर) ने दुनिया में चल रहे बदलावों को देखते हुए यह रिपोर्ट तैयार की है। वैश्विक आर्थिक अनिश्चितता और विश्व व्यवस्था की भी इसमें अहम भूमिका रहेगी। सीईबीआर की विश्व अर्थ-व्यवस्था पर यह 11वीं सालाना रिपोर्ट है। वल्र्ड इकोनॉमिक लीग टेबल (डब्ल्यूईएलटी) के इस संस्करण में दुनिया की सबसे अमीर शक्तियों को जॉकी के रूप में दिलचस्प चालों को दिखाता है। डब्ल्यूईएलटी दुनिया भर में विभिन्न अर्थ-व्यवस्थाओं को ट्रैक करता है और अगले 15 वर्षों में यानी 2034 तक परियोजनाओं में बदलाव का आकलन करता है।

वैश्विक अर्थ-व्यवस्था को लेकर वल्र्ड इकोनॉमिक लीग टेबल (डब्ल्यूईएलटी) और सीईबीआर की साझा रिपोर्ट है जो गणनाओं पर आधारित है। 2019 के लिए जिस डाटा को आधार बनाया- वह आईएमएफ वल्र्ड इकोनॉमिक आउटलुक से लिया गया है, जो जीडीपी के पूर्वानुमान, मुद्रास्फीति और विनिमय दरों पर केंद्रित है। पूर्वानुमान के लिए सीईबीआर ग्लोबल प्रॉस्पेक्ट्स मॉडल पर चलता है। सीईबीआर लंदन स्थित अर्थ-व्यवस्था से जुड़ी स्वतंत्र वाणि’ियक कंसल्टेंसी है। इस रिपोर्ट को सीईबीआर के डिप्टी चेयरमैन डगलस मैकविलियम्स के नेतृत्व में विशेषज्ञों की टीम ने तैयार किया है।

सीईबीआर की रिपोर्ट में कहा गया है कि रैंकिंग को फिक्स नहीं किया जा सकता; क्योंकि दुनिया की तीन बड़ी अर्थ-व्यवस्थाएँ अगले 15 वर्षों मेें तीसरे नम्बर के लिए प्रतिस्पद्र्धा जारी रखेंगी।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार के 2024 तक अर्थ-व्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर तक ले जाने के लक्ष्य का ज़िक्र करते हुए इसमें कहा गया है कि ‘भारत वर्तमान सरकार के 2024 के लक्ष्य की तुलना में दो साल बाद 2026 तक 5 ट्रिलियन डॉलर की जीडीपी तक पहुँचने के लिए तैयार है।’

2009 की मंदी के बाद से सबसे कमज़ोर जीडीपी विकास के साथ वैश्विक अर्थ-व्यवस्था के लिए 2019 एक बुरा वर्ष रहा है। लेकिन अब नये वर्ष की शुरुआत के साथ सुस्ती के बादल छँटने शुरू हो गये और अब विस्तारवादी राजकोषीय और मौद्रिक नीति से आगे अर्थ-व्यवस्था के तीव्र गति से विकास की ओर बढऩे का माहौल बनता दिख रहा है। अब उम्मीद की जा सकती है कि 2020 में दुनिया को विकास की गति देखने को मिलेगी।

 2017 में वैश्विक अर्थ-व्यवस्था के उतार-चढ़ाव से किसी भी तरह का ‘फील-गुड फैक्टर’ काफी हद तक फैला और अब 2019 में इसे नये सिरे से अस्थिरता और अनिश्चितता में बदल गया। अमेरिका और चीन के बीच ट्रेड वॉर के साथ एक-दूसरे के निर्यात क्षेत्रों पर आयात शुल्क लगाने की होड़ भी देखने को मिली।

इस रिपोर्ट में सबसे अप्रत्याशित कारक अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था की बढ़ती ताकत रही, फिर भी उम्मीद जतायी गयी कि 2019 में व्यापार युद्ध और घाटे की समस्या से इतर इसके उ”ा स्तर को हासिल करने में सफलता मिलेगी। लेकिन 2011 में अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था विश्व जीडीपी का 21.2 फीसद थी। 2019 में इसका हिस्सा बढक़र 24.8 फीसदी तक पहुँच गया, 2007 के बाद से इसका उ‘चतम स्तर है। अब यह 2020 तक दुनिया की सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था बने रहने का अनुमान है, अब 2033 तक चीन ही उसे पीछे छोड़ देगा।

दूसरी ओर, चीन में विकास का पहिया धीमा हुआ है, साथ ही बीजिंग की सम्पत्ति की कीमतों में गिरावट दर्ज़ किये जाने से 2019 मुश्किल साबित हुआ है। हालाँकि साल के अन्त में विकास ने गति पकडऩी शुरू कर दी है और अब उम्मीद है कि 2020 में और सुधार की सम्भावनाएँ हैं। चीन जिन क्षेत्रों में विशेष रूप से सफल रहा है, उनमें नीति निर्धारण में बदलाव रहा, जिससे पिछले दो दशकों में वहाँ पर अत्यधिक गरीबी को समाप्त करने में मदद मिली, जिसकी सराहना की जाना चाहिए। इसलिए अब नीतिगत निर्णय इस पर फोकस होंगे कि बेहतर पर्यावरणीय प्रदर्शन किया जाए। इससे उम्मीद बनती है कि कि चीन 2033 में दुनिया की सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था बन जाएगा।

भारतीय डाटा संशोधन के मायने ये हैं कि 2019 वह वर्ष रहा जब देश की अर्थ-व्यवस्था अंतत: यूके और फ्रांस से आगे निकल गयी -जैसा कि डब्ल्यूईएलटी ने भविष्यवाणी की थी। लेकिन वर्ष के दौरान धीमी वृद्धि ने आर्थिक सुधारों के लिए कहीं ज़्यादा कदम उठाये जाने का दबाव बढ़ा दिया है। अब हमारी भविष्यवाणी यह है कि भारत 2034 में जर्मनी और फिर जापान से आगे निकल जाएगा, 2034 में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था बनने के लिए कई तरह के सुधार सफलतापूर्वक लागू करने होंगे।

यूरोप में संशोधित डाटा का मतलब ये है कि जनमत संग्रह के बाद ब्रिटेन के ब्रेक्जिट के चलते स्टर्लिंग में तेज़ गिरावट के बावजूद वह फ्रांस से आगे रहने में सफल रहा। अब ऐसी उम्मीद है कि 2034 तक ब्रिटेन की अर्थ-व्यवस्था फ्रांसीसी अर्थ-व्यवस्था की तुलना में एक-चौथाई बड़ी होगी। इस रिपोर्ट में इस विषय पर लगातार ज़ोर दिया गया है कि जो देश कुशल प्रवासियों को आकर्षित करने में सफल होते हैं वे तेज़ी से आर्थिक विकास करते हैं। इसका जीता जागता सबूत कनाडा और ऑस्ट्रेलिया हैं, जो प्रवासियों के लिए स्वर्ग की तरह हैं, जिससे इन दोनों देशों की अर्थ-व्यवस्था में सुधार देखा गया है। 2034 तक रैंकिंग में कनाडा 8वें और ऑस्ट्रेलिया के 13 वें स्थान पर पहुँच जाने की भविष्यवाणी की जाती है। हमारे पास इस साल रूसी अर्थ-व्यवस्था के लिए सम्भावनाओं का गहन अध्ययन करने का मौका है। हमारे निष्कर्षों का आकलन है कि ऊर्जा से तकनीक में विविधता लाने में उसे कुछ सफलता मिली है, जिससे 2020 और 2030 के दशक के अन्त में तेल की कीमतों में कमज़ोरी के चलते हमारी भविष्यवाणी यह है कि रूस के 2034 तक रैंकिंग में केवल एक स्थान गिरकर 12वें स्थान पर पहुँचने की उम्मीद है। पोलैंड के 2031 में 19वें स्थान पर पहुँचकर दुनिया की शीर्ष 20 अर्थ-व्यवस्थाओं में शामिल होने की उम्मीद है। दीर्घावधि में कई एशियाई अर्थ-व्यवस्थाएँ डब्ल्यूईएलटी की रैंक को समझें तो उनकी रैंकिंग में ज़बरदस्त उछाल देखने को मिलता है, इससे ये देश अपने जनसांख्यिकीय लाभांश को भुनाते भी हैं। इसके पीछे दो प्रमुख उदाहरण हैं- एक फिलीपींस, जो वर्ष 2034 में 22वें स्थान पर पहुँच जाएगा; दूसरा है बांग्लादेश, जो वर्ष 2034 में 25वें स्थान पर पहुँच जाएगा।

सीईबीआर के डिप्टी चेयरमैन डगलस मैकविलियम्स ने कहा है- ‘वल्र्ड इकोनॉमिक लीग टेबल 2020 आर्थिक प्रगति के सम्बन्धों को ट्रैक करता है। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था 12 वर्षों तक विश्व जीडीपी के अपने उ‘चतम स्तर तक पहुँचने में कैसे सफल रही है। हालाँकि, हमारा विचार यह है कि यह अपने उ‘च स्तर को पाने में पहुँच गया है और घाटे को पाट दिया है। व्यापार घाटे और विवादों के रहते हुए भी आर्थिक विकास की गति पकड़ी है। फिर भी यह एक पुरानी विश्व अर्थ-व्यवस्था के लिए एक उल्लेखनीय प्रदर्शन है।’

सीईबीआर में मैक्रोइकोनॉमिक्स के प्रमुख के डेनियल नैफेल्ड ने कहा- ‘डब्ल्यूईएलटी लीग तालिका में शीर्ष स्थानों के लिए लड़ाई का खूब मुकाबला किया जाता है।’ उन्होंने कहा- ‘दिसंबर में अमेरिका और चीन दोनों ने ट्रेड वॉर (व्यापारिक युद्ध) को लेकर जारी तनाव को कम करने पर सहमति दे दी है। क्या यह वैश्विक विकास पर भारी पड़ रहे इस संघर्ष को 2020 में पूरी तरह से निपटा जा सकता है? चीन में वर्ष भर में विकास की गति धीमी रह सकती है; क्योंकि देश न केवल व्यापार युद्ध से नतीजे का प्रबंधन करता है, बल्कि खपत-संचालित अर्थ-व्यवस्था की ओर इसका संक्रमण उ‘च जीवन स्तर की पेशकश करता है। इससे अर्थ-व्यवस्था के टॉप पर पहुँचने के लिए धीमी गति के चलते उसे 2033 का समय लग सकता है। इस बीच जापान, जर्मनी और भारत अगले 15 वर्षों में तीसरे स्थान के लिए जद्दोजहद करेंगे।’

सीईबीआर में वरिष्ठ अर्थशास्त्री पाब्लो शाह ने कहा कि भारत और इंडोनेशिया जैसे देशों के तेज़ी से चढऩे के बावजूद वैश्विक अर्थ-व्यवस्था में अमेरिका और चीन की प्रमुख भूमिकाओं पर काफी कम असर पड़ेगा। विश्व जीडीपी में उनकी हिस्सेदारी 2034 तक 42 फीसदी तक बढऩे का अनुमान है। 2020 तक अमेरिका और चीन के बीच ट्रेड वॉर से लेकर तकनीक तक कई मोर्चों पर जारी तनाव एक दशक तक रहेगा, जो दुनिया की बाकी अर्थ-व्यवस्था के लिए लम्बे समय तक प्रभावित करेगा।

सीईबीआर रिपोर्ट के अहम बिन्दु

भारत के 2019 में दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था बनने के लिए फ्रांस और यूके दोनों को पीछे छोड़ दिया है। अब जर्मनी से आगे निकलने के लिए 2026 में चौथी सबसे बड़ी और 2034 में जापान को पछाडक़र तीसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था बनने की उम्मीद है। भारत की जीडीपी 2026 तक 5 ट्रिलियन डॉलर के लक्ष्य को भी हासिल किये जाने की सम्भावना है।

2019 में यूएसए विश्व जीडीपी का 24.8 फीसदी तक पहुँच गया, जो 2007 के बाद से दुनिया की अर्थ-व्यवस्था का सबसे बड़ा हिस्सा है। अब अमेरिका के 2020 तक दुनिया की सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था बने रहने की उम्मीद है और तीन साल बाद केवल 2023 में चीन उससे आगे निकल जाएगा। दो साल पहले की तुलना में हम पूर्वानुमान लगाते हैं।

हमें उम्मीद नहीं है कि 2020 में चीन मंदी की स्थिति में आ जाएगा, हालाँकि जनसांख्यिकी और जीवन की गुणवत्ता पर ध्यान दिये जाने से चीन की विकास गति सुस्त हो जाएगी। इसके बावजूद हम उम्मीद करते हैं कि चीन 2033 में दुनिया की सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था बन जाएगा।

नवीनतम संशोधित आँकड़ों से पता चलता है कि  ब्रिटेन के ब्रेक्जिट के बावजूद 2016-19 की अवधि में फ्रांस की अर्थ-व्यवस्था उससे आगे निकलने में विफल रही। अब उम्मीद की जा सकती है कि है कि 2034 तक ब्रिटेन की अर्थ-व्यवस्था फ्रांसीसी अर्थ-व्यवस्था की तुलना में एक चौथाई बड़ी हो जाएगी।

कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में कुशल प्रवासियों के आकर्षण की वजह से इन दोनों देशों की अर्थ-व्यवस्था की रैंकिंग में सुधार जारी रह सकता है। 2034 तक कनाडा को 8 वीं सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था और ऑस्ट्रेलिया को 13वीं सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था बनने की भविष्यवाणी की गयी है।

तकनीक में विविधता लाने में अपनी सफलता के कारण रूस के ज़्यादा बेहतर करने की उम्मीद नहीं जतायी गयी है। इसके पीछे कहा गया है कि इस दरम्यान दुनिया में तेल की कीमतों का कमज़ोर होने के साथ अन्य ऊर्जा के स्रोतों पर बढ़ती निर्भरता होगी।

इसकी वजह से 2034 तक रूस की अर्थ-व्यवस्था केवल 11 वें से 12वें स्थान पर खिसक सकती है।

कोरिया 2027 में दुनिया की शीर्ष दस अर्थ-व्यवस्थाओं में से एक बन सकती है।

इंडोनेशिया 2034 तक दुनिया की शीर्ष 10 अर्थ-व्यवस्थाओं के ग्रुप में शामिल होने की कगार पर है, जो तालिका में 11वें स्थान पर पहुँच रही है।

विश्व की बड़ी अर्थ-व्यवस्थाओं में तीन तेज़ी से बढ़ती एशियाई अर्थ-व्यवस्थाएँ हैं, जो तीव्रता से आगे बढ़ रही हैं। फिलीपींस 2019 में 38वें स्थान से बढक़र 2034 में 22वें स्थान पर पहुँच सकता है; बांग्लादेश 41वें से 26वें और मलयेशिया 35वें से 28वें स्थान पर पहुँच सकता है।

पोलैंड 2031 में दुनिया की शीर्ष 20 अर्थ-व्यवस्थाओं में शामिल हो सकता है, िफलहाल यह दुनिया की बड़ी अर्थ-व्यवस्थाओं में 19वें पायदान पर है।

2020 तक तेल की कीमतें कम होने से सऊदी अरब को 2028 तक दुनिया की 20 सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्थाओं से बाहर कर दिया जाएगा, जो 2034 तक रैंकिंग में 21वें स्थान पर खिसक सकता है।

हार्वर्ड स्टडी

भारत में महामंदी, आगे रास्ता क्या?

हार्वर्ड विश्वविद्यालय के अंतर्राष्ट्रीय विकास केंद्र में अरविंद सुब्रमणियन और हार्वर्ड कॉलेज के फेलो जोश फेलमैन ने अपने हालिया अध्ययन में पाया है कि ‘अचानक, भारत की अर्थ-व्यवस्था बीमार हो गयी है।’ हार्वर्ड विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों का कहना है कि ‘यह भारत की महामंदी है, जहाँ अर्थ-व्यवस्था आईसीयू (इंटेंसिव केयर यूनिट) में चली गयी है।

आधिकारिक आँकड़े ही काफी चिन्ताजनक हैं, जो यह दिखाते हैं कि चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में विकास दर घटकर केवल 4.5 फीसदी रह गयी है, जो पिछले 11 साल में सबसे कम है। लेकिन आँकड़े कहीं ज़्यादा परेशान करने वाले हैं। उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन की वृद्धि लगभग थम गयी है; निवेश वस्तुओं का उत्पादन गिर रहा है। निर्यात, आयात और सरकारी राजस्व के आँकड़े सभी नकारात्मक के करीब पहुँच गये हैं। ये संकेतबताते हैं कि अर्थ-व्यवस्था की स्थिति असामान्य रूप से बेहद गम्भीर है। वास्तव में, यदि चालू वित्त वर्ष के पहले सात महीनों के आँकड़ों और संकेतों को देखें, तो वर्तमान मंदी 2000-02 की मंदी की तुलना में 1991 की मंदी के करीब दिखती है।

विद्युत उत्पादन के आँकड़े एक और भी गम्भीरता को दिखाते हैं, जो विकास में बाधक है। इसकी हालत 1991 से भी बदतर है, जो पिछले तीन दशकों के दौरान सबसे खस्ता स्थिति में है। इससे ज़ाहिर है कि यह कोई साधारण मंदी नहीं है। यह भारत की महामंदी है, जहाँ अर्थ-व्यवस्था की स्थिति आईसीयू में दािखल होने वाली हो गयी है। स्थिति हैरान करने वाली और निराशाजनक जैसी है। हैरान करने वाली इसलिए, क्योंकि हाल ही में जब भारत की अर्थ-व्यवस्था सही थी और यह 7 फीसदी के हिसाब से आगे बढ़ रही थी, जो दुनिया की सबसे तेज़ गति से बढऩे वाली अर्थ-व्यवस्थाओं में से एक थी। अर्थ-व्यवस्था के नीचे गिरने के पीछे इसके पीछे के कारण कहे जा सकते हैं, जिसकी वजह से सुस्ती बढ़ी। खाने-पीने की चीज़ें ज़्यादा महँगी नहीं हुईं। पूरी दुनिया में तेल की कीमतों में इज़ाफा नहीं देखने को मिला है। राजकोषीय घाटा नियंत्रण से बाहर नहीं हुआ है। तो ऐसा हुआ क्या है? क्यों चीज़ें अचानक गलत लगने लगी हैं?

सरकार और आरबीआई अर्थ-व्यवस्था की बेहतरी के लिए अपनी तरफ से ज़ोरदार कोशिश कर रहे हैं। हर कुछ हफ्तों में वे नये उपायों का ऐलान करते हैं, जिनमें से कई अहम होते हैं। इनमें सबसे बड़ा कदम सरकार की ओर उसे उठाया गया यह रहा कि निवेश को पुनर्जीवित करने के लिए कॉर्पोरेट कर (टैक्स) में कटौती। सम्भवत: कॉर्पोरेट के लिए अब तक के सबसे व्यापक मौके पेश किये गये हैं, जिनमें से चार प्रमुख सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की योजना का ऐलान करना भी शामिल है।

इस बीच, आरबीआई ने 2019 के दौरान कुल मिलाकर 135 आधार अंकों की ब्याज दरों में कटौती की, जो इस अवधि में दुनिया के किसी भी अन्य केंद्रीय बैंक की तुलना में अधिक है। भारत के इतिहास में सबसे बड़ी दर में कटौती से सुस्त पड़ी कर्ज़ लेने की दर में बेहतरी की उम्मीद है। इस सबके बीच कर्ज़ देना भी जारी है और और निवेश में सुस्ती कायम है। इसलिए उपरोक्त कदम उठाये जा रहे हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि मंदी से निपटने के उपाय के लिए और क्या किया जा सकता है। अब भी यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसा किन कारणों से हुआ है।

अध्ययन से पता चलता है कि भारत की अर्थ-व्यवस्था संरचनात्मक और चक्रीय दोनों कारकों से नीचे गिरी है, जिसमें वित्त के साथ विशिष्ट, एकीकृत तत्त्व को भी शामिल किया गया है। भारत एक बैलेंस शीट संकट से जूझ रहा है, यह ऐसा संकट है, जिसमें दो धाराएँ हैं। पहली, ग्लोबल फाइनेंशियल क्राइसिस (जीएफसी) जब दुनिया की अर्थ-व्यवस्था में सुस्ती थी, तो भारत में निवेश तेज़ी से बढ़ा था, जिससे कई बुनियादी ढाँचागत प्रोजेक्ट शुरू किये गये थे। वहीं दूसरी ओर अब बैलेंस शीट का संकट है। इन समस्याओं से उचित तरीके नहीं निपटा गया, जिससे निवेश और निर्यात में असंतुलन की स्थिति पैदा हुई और विकास के पहिये पर ब्रेक लगना शुरू हो गया।

विकास के सभी प्रमुख इंजन इस बार भी खपत समेत जाया हो चुके हैं, जिससे आर्थिक गति का पहिया लडख़ड़ा गया है। विकास थमने के साथ ही भारत को अब चार बैलेंस शीट चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा है। इनमें से दो मूल क्षेत्र, एनबीएफसी और रियल एस्टेट कम्पनियाँ शामिल हैं। इस स्थिति में, मानक उपाय उपलब्ध नहीं हैं। मौद्रिक नीति अर्थ-व्यवस्था को पुनर्जीवित नहीं कर सकती; क्योंकि ट्रांसमिशन तंत्र टूट गया है। आर्थिक नीति का उपयोग ऐसे नहीं किया जा सकता है; क्योंकि वित्तीय प्रणाली को बड़े बॉन्ड के मुद्दों को अवशोषित करने में दिक्कत होगी, जिन्हें प्रोत्साहन के लिए बाध्य होना होगा। पारम्परिक संरचनात्मक सुधार एजेंडे के रूप में भूमि और श्रम बाज़ार के उपाय होते हैं, जिनमें वर्तमान समस्याओं का समाधान नज़र नहीं आता।

यह मंदी बनावटी है या चक्रीय?

1991 से देखें, तो भारत के विकास के लिए ठीक-ठाक निर्यात और निवेश होता रहा है। उपभोग में इज़ाफा होने के साथ विकास आगे बढऩे का संकेत तो होता है, ऐसे कोई ठोस प्रमाण नहीं हैं कि इसके ये शीर्ष स्तम्भ द्वारा ही प्रस्तावित किये जाते हैं। इसके विपरीत उदारीकरण ने आबादी के बड़े हिस्से का जीवन स्तर ऊपर उठा दिया है, जिससे उन्हें सौंदर्य प्रसाधन और प्रसाधन जैसे विपणन उत्पादों का उपभोग बढ़ा है। इसके परिणामस्वरूप तेज़ी से बढ़ते उपभोग के सामानों की बिक्री में उछाल देखा गया है।

असल सवाल यह है कि माँग अचानक कम क्यों हो गयी है? जो इसके जवाब सामने पेश किये जा रहे हैं, वे संतोषजनक नहीं हैं। उदाहरण के लिए जीएसटी और नोटबंदी ऐसे दो फैसले हैं जो विकास के मामले में निश्चित रूप से उदास करने वाले साबित होते हैं। इन उपायों के बीच कुछ ऐसे उपाय पेश किये जा सकते थे, जो विकास की गति को तेज़ी से और आगे बढ़ाते।

ग्रामीण, अनौपचारिक अर्थ-व्यवस्था पर भी प्रतिकूल असर हुआ है, लेकिन 2017-18 तक अर्थ-व्यवस्था ज़ोरदार ढंग से आगे बढ़ रही थी। अब दो साल बाद पासा पलटा हुआ-सा नज़र आने लगा है। और जब इस बारे में तर्कसंगत उपायों या नीतियों के बारे में कदम उठाना मुश्किल-सा लग रहा है। आर्थिक गतिविधियों को स्थापित करने में भी परेशानी होती दिख रही है। निवेश की वार्षिक औसत वृद्धि 10 प्रतिशत अंक गिर चुकी है; उद्योगों का लाभ भी लगातार और गिरता जा रहा है। निर्यात और आयात में अन्तर 12 प्रतिशत से अधिक की गिरावट दर्ज की गयी है। ये सब घटनाक्रम क्या बताते हैं?

भारत ने पहले क्यों आर्थिक विकास का आनंद उठाया और अब इसमें बड़ी हलचल का अनुभव किया? इसके पीछे तीन बड़े कारक काम पर रहे हैं :- चक्रीय, वैश्विक और संरचनात्मक। शुरुआत में तीनों ने अर्थ-व्यवस्था को उछालने में मदद की। लेकिन हाल ही में वे इसे नीचे की ओर ले जा रहे हैं। परिणामस्वरूप भारत एक गम्भीर संरचनात्मक समस्या, एक ट्विन बैलेंस शीट (टीबीएस) संकट से गुज़र रहा है। कई कॉरपोरेट अब नये निवेश करने के लिए वित्तीय स्थिति में नहीं हैं और जो अभी भी अ‘छी स्थिति में उन्हें बैंकों से कर्ज़ लेने में दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। इससे वैश्विक और संरचनात्मक समस्याओं के सामने आने से भारत के विकास के दो प्रमुख इंजन बंद हो गये। 2010 की शुरुआत में निवेश तेज़ी से कम होने लगा था, जबकि निर्यात में भी सुस्ती देखी गयी थी।

बड़े पैमाने पर बात करें, तो एनपीए के शुरुआती स्टॉक का एक छोटा-सा अंश (केवल 8&,000 करोड़ रुपये की वसूली के साथ) अब तक दि इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (आईबीसी) के माध्यम से महज़ दो लाख करोड़ रुपये का समाधान निकाला जा सका है। इसी गति से बैड लोन की समस्या का समाधान किया गया, तो इसमें बहुत लम्बा समय लगेगा। अब तक की स्थिति को संक्षिप्त रूप में कहें, तो भारत के विकास के संरचनात्मक आधारों को नुकसान पहुँचा है। जैसे ही ऐसी स्थिति सामने आयी, तो बैंकों पर दबाव बढऩे लगा। बैंक पहले से बैड लोन का समाधान न होने के चलते अ‘छी हालत में नहीं हैं।

मंदी से बाहर निकलने का रास्ता

अल्पावधि में अर्थ-व्यवस्था को पुनर्जीवित करने के मानक उपकरण मौद्रिक और राजकोषीय नीति हैं। मौद्रिक नीति पर मौज़ूदा बहस इस होती है कि क्या आरबीआई के पास ब्याज दरों में और कटौती करने की गुंजाइश है? कुछ लोगों का तर्क है कि केंद्रीय बैंक को सुस्त अर्थ-व्यवस्था के लिए अधिक मदद देने की आवश्यकता है, जबकि अन्य मुद्रास्फीति में हालिया पुनरुद्धार के बारे में अधिक चिन्ता जताते हैं। यदि मौद्रिक नीति अभी काम नहीं करती, तो राजकोषीय प्रोत्साहन के बारे में क्या होगा?

वास्तव में इस रणनीति के साथ कई समस्याएँ भी हैं। व्यक्तिगत आय कर में कटौती के प्रस्ताव के आसपास के पहले संरचनात्मक मुद्दों पर विचार करें। कर में कटौती करना आसान है; क्योंकि इससे राजनीतिक फायदे की भी गुंजाइश दिखती है।  संरचनात्मक रूप से भारत को और अधिक करदाताओं को आयकर के दायरे में लाने के तरीकों के बारे में सोचना चाहिए। मौज़ूदा मंदी से उबरने के प्रयास का केंद्र बिन्दु बैलेंस शीट की समस्या से निपटना है। हम छ: प्रमुख क्रियाकलापों की परिकल्पना करते हैं, जो पाँच ‘आर’ की हैं।

क्या है मान्यता?

2016 में पहली एसेट क्वालिटी रिव्यू (एक्यूआर) के बाद हमने सोचा था कि पहले ‘आर’ को पूरा किया गया कि सभी स्ट्रेस्ड एसेट्स को बैंकों द्वारा पूरी तरह से मान्यता दी गयी।

ज़ाहिर है, अर्थ-व्यवस्था को स्थिर करने और तेज़ी से विकास के रास्ते पर वापस लाने के लिए जरूरी कदम उठाये जाने चाहिए। लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में मानक मैक्रोइकॉनॉमिक टूल बहुत उपयोगी नहीं हैं।

ऐसे कार्य जो सरकार नहीं कर सकती (आगे महत्त्वपूर्ण राजकोषीय प्रोत्साहन); उनको नहीं करना चाहिए। व्यक्तिगत आयकर दरों को कम करना या जीएसटी दरों को बढ़ाया जाए। ऐसा सिर्फ सीमित प्रभावशीलता (सहजता) के साथ आसान मौद्रिक नीति से किया जा सकता है।

क्या किया जाए?

इस मामले में पहला सवाल है कि क्या कुछ भी तत्काल किया जा सकता है? पहली एक बड़ी कार्रवाई अर्थ-व्यवस्था को सुधारने के लिए एक डाटा बिग बैंग हो सकता है। इससे आत्मविश्वास बढ़ाया जा सकता है और नीति निर्धारण के लिए एक विश्वसनीय आधार तैयार किया जा सकता है। इसमें वास्तविक क्षेत्रों (जीडीपी, उपभोग और रोज़गार), राजकोषीय खातों और बैंकिंग प्रणाली में दबाव, परिसम्पत्तियों के आधिकारिक आँकड़ों में सुधार के लिए अप्रकाशित रिपोर्टों का प्रकाशन किया जाना चाहिए।

अध्ययन में मौज़ूदा आर्थिक मंदी को रोकने के लिए कई रणनीतिक प्रस्ताव भी पेश किये गये हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण चार बैलेंस शीट चुनौती का सामना करना है। वित्तीय पक्ष पर बैंकों और एनबीएफसी में बढ़ते दबाव और बुनियादी ढाँचा कम्पनियों और कॉर्पोरेट पक्ष पर अचल सम्पत्ति पर ध्यान देना होगा। पाँच रुपये पर कार्य करने की नीतियाँ बनाने की आवश्यकता हैं।

पाँच प्रमुख समस्याओं के पहलू हैं :-

बैंकों और एनबीएफसी (मान्यता) की  नयी परिसम्पत्ति गुणवत्ता की समीक्षा की जाए।

आईबीसी में परिवर्तन के लिए बेहतर तालमेल बनाने का संकल्प पारित करें। दो कार्यकारी-नेतृत्व वाली सार्वजनिक क्षेत्र की परिसम्पत्ति पुनर्गठन कम्पनियाँ (बैड बैंक्स) बनाएँ, जिनमें से एक अचल सम्पत्ति और दूसरा बिजली क्षेत्र के लिए हो।

विशेष रूप से एनबीएफसी (विनियमन) का निरीक्षण करना।

संकल्प के लिए पुनर्पूंजीकरण लिंक (पुनर्पूंजीकरण)।

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकिंग को सीमित करेंं (सुधार)।

आर्थिक मंदी से निपटने के लिए अपनायी जाएँ ये प्रमुख नीतियाँ :-

बैंकों और एनबीएफसी (मान्यता) के लिए एक नये एसेट क्वालिटी रिव्यू का संचालन करना।

आईबीसी में बदलाव के लिए यह सुनिश्चित करना कि प्रतिभागियों के पास समस्याओं के निदान के लिए प्रोत्साहन वाले विकल्प हों-(संकल्प)।

दो कार्यकारी-नेतृत्व वाली सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों की परिसम्पत्ति का पुनर्गठन (बैड बैंक्स), एक-एक को बनाएँ।

अचल सम्पत्ति और बिजली क्षेत्रों के लिए (संकल्प)।

विशेष रूप से एनबीएफसी (विनियमन) की निगरानी।

पुनर्पूंजीकरण को संकल्प से जोड़ा जाए (पुनर्पूंजीकरण)।

सार्वजनिक क्षेत्र में बैंकिंग (सुधार) को सीमित करना।

विश्व बैंक की रिपोर्ट

2020-21 में 5.80 फीसदी रहेगी जीडीपी

भारत की विकास दर चालू वित्त वर्ष में 5 फीसदी रहने का अनुमान है। विश्व बैंक ने भारतीय अर्थ-व्यवस्था पर भरोसा जताते हुए कहा है कि अगले वित्त वर्ष 2020-21 में विकास दर में करीब 1 फीसदी सुधार आ सकता है। वहीं, चालू वित्त वर्ष 2019-20 में भारत की विकास दर 5 फीसदी रह सकती है।

विश्व बैंक ने वैश्कि अर्थ-व्यवस्था पर अपनी छमाही रिपोर्ट मेें कहा है कि गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों के कर्ज़ बाँटने में आयी गिरावट का असर भारत के वित्तीय क्षेत्र पर काफी असर पड़ा है। इससे 2019-20 में विकास दर 5 फीसदी रहने का अनुमान है, जो 11 साल का निचला स्तर है। हालाँकि, इसमें आगे सुधार की सम्भावनाएँ हैं, जिससे अगले साल इसके 5.8 फीसदी तक पहुँचने की उम्मीद है। विश्व बैंक ने कहा कि घरेलू माँग में कमी और कर्ज़ उपलब्धता में नरमी का व्यापक असर पड़ा है। इसके परिणामस्वरूप विनिर्माण और कृषि क्षेत्र में भी सुस्ती आयी। इसके अलावा वैश्विक स्तर पर जारी भू-राजनीतिक तनावों की वजह से भी बड़ी अर्थ-व्यवस्था वाले देश प्रभावित हुए हैं। इससे पहले 2019 की अप्रैल-जून और जुलाई-सितंबर तिमाही में भारत की विकास दर गिरकर 4.5 फीसदी रही थी। इससे पहले 2008-09 में विकास दर &.1 फीसदी रही थी।

2.5 फीसदी रहेगी वैश्विक विकास दर

विश्व बैंक ने कहा है कि चालू वित्त वर्ष में वैश्विक विकास दर मामूली सुधार 2.4 से बढक़र 2.5 फीसदी रहने का अनुमान है। इस साल वैश्विक स्तर पर कारोबार और निवेश में बढ़त आयी है, लेकिन अमेरिका-ईरान तनाव और चीन के साथ अमेरिका के व्यापार युद्ध ने जोखिम को बढ़ा दिया।

अमेरिका, पाक को लगेगा झटका

विश्व बैंक ने एडवांस इकोनॉमी वाले देशों की विकास दर 2019-20 में और नीचे जाने का अनुमान जताया है। व्यापार युद्ध के असर से मार्च में समाप्त होने वाले वित्त वर्ष में अमेरिका की विकास दर गिरकर 1.8 फीसदी रह सकती है, जबकि यूरोपीय देशों की विकास दर 1 फीसदी के आसपास पहुँच सकती है। विश्व बैंक के अनुसार, इस दौरान पाकिस्तान की विकास दर गिरकर 2.4 फीसदी पहुँच जाएगी; जबकि बांग्लादेश आगे बढ़ते हुए निरंतर 7 फीसदी से ऊपर बना रहेगा।

चिंतनीय तथ्य

भारतीय अर्थ-व्यवस्था के लिए सबसे ज़्यादा चिंतनीय कारक यह है कि प्रति व्यक्ति के हिसाब से विकास के मानकों पर आगे बढऩे की जैसे अपेक्षा थी, उसे हासिल नहीं किया जा सका है। गरीबी उन्मूलन के मामले में भी हम लक्ष्य को हासिल करने में पिछड़ रहे हैं, जहाँ पर दुनिया की करीब 56 फीसदी गरीब आबादी अपना जीवन निर्वहन करती है। कर्ज़ के मामले में भी हम पिछड़ रहे हैं। तमाम उपाय अपनाने के बावजूद इसमें खास बढ़ोतरी देखने को नहीं मिली है।

उत्पादकता में वृद्धि आय के बढऩे का प्राथमिक स्रोत होता है, जिससे गरीबी दूर होती है और पिछले चार दशक के वैश्विक आँकड़े देखें, तो इसमें काफी सुस्ती देखने को मिलती है। उभरते हुए बाज़ार और विकासशील अर्थ-व्यवस्थाओं में मंदी ने निवेश में कमज़ोरी और दक्षता हासिल करने के साथ-साथ क्षेत्रों के बीच संसाधन वसूली में कमी है। शिक्षा और संस्थानों सहित श्रम उत्पादकता के कई प्रमुख क्षेत्रों में सुधार की गति-वैश्विक वित्तीय संकट के बाद से धीमी या स्थिर हो गयी है।

फिर भी वैश्विक विकास की निराशाजनक गति का एक अन्य पहलू पिछले 10 वर्षों में उत्पादकता वृद्धि में सुस्ती का कायम होना है। कभी-कभी सामाजिक नीति के लिए एक उपकरण के रूप में उपयोग किया जाता है। मूल्य नियंत्रण निवेश और विकास को प्रभावित कर सकते हैं, गरीबी के चलते इससे प्रभावित देशों को भारी वित्तीय बोझ उठाना पड़ सकता है। इसमें मौद्रिक नीति के प्रभावी आचरण को जटिल बना सकता है।

फिर कैसे सम्भव है विकास?

उत्पादकता वृद्धि को फिर से कैसे हासिल करें? उत्पादकता बढ़ाने के लिए दृष्टिकोण चुनौतीपूर्ण बना हुआ है। इसलिए निजी और सार्वजनिक निवेश को प्रोत्साहित करने के प्रयासों की आवश्यकता है। इसके साथ ही फर्म उत्पादकता को बढ़ावा देने के लिए कार्यबल कौशल का उन्नयन, उत्पादक क्षेत्रों को खोजने में संसाधनों की मदद करना, प्रौद्योगिकी को अपनाने और इनोवेशन को सुदृढ़ करना और विकास के अनुकूल मैक्रोइकोनॉमिक और संस्थागत वातावरण को बढ़ावा देना होगा।

दो अन्य मुद्दे भी विचार करने लायक हो सकते हैं, जिनमें एलआईसी में मूल्य नियंत्रण और मुद्रास्फीति के प्रतिकूल परिणाम शामिल हैं। जबकि मूल्य नियंत्रण को कभी-कभी ऊर्जा और भोजन जैसी अ‘छी और सेवाओं के लिए मूल्य में उतार-चढ़ाव को सुचारू करने का उपयोगी उपकरण माना जाता है। वे निवेश और विकास को प्रभावित कर सकते हैं, गरीबी दूर करने के लक्ष्य में रुकावट के साथ ही वित्तीय बोझ भी बढ़ सकता है। प्रतिस्पद्र्धा के प्रोत्साहन के साथ-साथ विस्तारित और लक्षित सामाजिक सुरक्षा जाल के साथ उन्हें प्रतिस्थापित करना और गरीबी उन्मूलन और विकास के लिए एक प्रभावी नियामक वातावरण फायदेमंद हो सकता है। पिछले 25 वर्षों में कम आय वाले देशों के बीच मुद्रास्फीति में तेज़ी से गिरावट दर्ज की गयी है, इसमें अब और कमी की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए।

आगे क्या सम्भावनाएँ?

मुद्रास्फीति गिरने से ज़्यादा स्थिरता आती है, साथ ही इससे रोज़गार, निवेश में बढ़ोतरी और गरीबी को दूर करने में मदद मिलती है। हालाँकि, बढ़ते कर्ज़ और राजकोषीय दबावों ने कुछ अर्थ-व्यवस्थाओं को उन व्यवधानों के जोखिम में डाल दिया, जो कीमतों को तेज़ी से बढ़ा सकते हैं। केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता को मज़बूत करना, मौद्रिकप्राधिकरण के उद्देश्यों को स्पष्ट करना और कीमतों पर नियंत्रण रखने के लिए केंद्रीय बैंक की विश्वसनीयता को मज़बूत करना आवश्यक है।

लेकिन यदि नीति निर्माता तनाव को कम करने और कई क्षेत्रों में अनसुलझे मुद्दों का समाधान करने का उचित प्रबन्धन करते हैं, तो वे अनुमानित से भी ज़्यादा विकास दर हासिल करके पूर्वानुमान को भी गलत साबित कर सकते हैं।

5 ट्रिलियन डॉलर अर्थ-व्यवस्था का लक्ष्य

एमएसएमई निभा सकता है अहम भूमिका

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नये साल पर आर्थिक विकास को बढ़ावा देने और 2024 तक भारत की अर्थ-व्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थ-व्यवस्था बनाने के अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए ज़ोर दिया। इस लक्ष्य को हासिल करने में कुछ लोगों हाल के दिनों में संदेह जताया है। िफलहाल भारतीय अर्थ-व्यवस्था ने इस बहस को आगे बढ़ाया है कि लक्ष्य को पूरा करने के लिए विकास का ट्रैक पर रहना ज़रूरी होगा।

भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों ने प्रधानमंत्री द्वारा निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपना पाँच साल का खाका तैयार किया है। सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय द्वारा तैयार किये गये नोट से भारतीय अर्थ-व्यवस्था का मुख्य आधार क्या होगा? इससे समझा जा सकता है।

एमएसएमई मंत्रालय का कहना है कि हमारी दृष्टि यह सुनिश्चित करने के लिए है कि कम-से-कम दो ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य का योगदान एमएसएमई क्षेत्र से आये। इसे पूरा करने के लिए एमएसएमई के सशक्तिकरण के लिए प्रौद्योगिकी विकास, कौशल विकास और रोज़गार सृजन के लिए एमएसएमई व इससे जुड़े संगठनों ने कई कदम उठाये हैं।

प्रधानमंत्री रोज़गार सृजन कार्यक्रम (पीएमईजीपी) के तहत 65,312 नये सूक्ष्म उद्यमों की स्थापना की गयी है और 5,22,496 रोज़गार के अवसर पैदा हुए हैं और सब्सिडी के तौर पर 1929.83 करोड़ का उपयोग किया गया है। 2008-09 के बाद से पीएमईजीपी एमएसएमई मंत्रालय द्वारा लागू किया जा रहा एक प्रमुख के्रडिट-लिंक्ड सब्सिडी कार्यक्रम है। इस योजना का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों के साथ-साथ शहरी क्षेत्रों में पारम्परिक कारीगरों और बेरोज़गार युवाओं की मदद करके गैर-कृषि क्षेत्र में सूक्ष्म उद्यमों की स्थापना के ज़रिये स्वरोज़गार के अवसर पैदा करना है।

क्लस्टर (समूह) विकास कार्यक्रम के तहत 17 कॉमन फैसिलिटी सेंटर और 14 इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट प्रोजेक्ट्स का गठन किया गया है, जबकि 24 कॉमन फैसिलिटी सेंटर और 25 इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट प्रोजेक्ट्स को मंज़ूरी दी गयी है। पारम्परिक उद्योगों के उत्थान के लिए जारी फंड के तहत पहले से स्वीकृत समूह पूरे होने के बाद कार्य कर रहे हैं। इसके अलावा, स्कीम ऑफ फंड फॉर रीजनरेशन ऑफ ट्रेडीशनल इंडस्ट्रीज (एसएफयूआरटीआयी) समूहों के 78 प्रस्तावों को योजना संचालन समिति द्वारा अनुमोदित किया गया है, जिनमें अब तक 48,608 कारीगरों और श्रमिक काम कर रहे हैं।

सोलर चरखा मिशन पहले ही शुरू किया जा चुका है और योजना संचालन समिति ने चालू वित्तीय वर्ष 2019-20 के दौरान इसके लिए विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) को मंज़ूरी दे दी है। क्रेडिट लिंक्ड कैपिटल सब्सिडी-टेक्नोलॉजी अपग्रेडेशन स्कीम (सीएलसीएस-टीयूएस) के तहत क्रेडिट लिंक्ड कैपिटल सब्सिडीजारी रखने के लिए सरकार ने मंज़ूरी दे दी है। सीएलसीएस-टीयू योजना का क्रेडिट लिंक्ड कैपिटल सब्सिडी कंपोनेंट 5 सितंबर, 2019 को केंद्रीय सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्री नितिन गडकरी द्वारा डीसी (एमएसएमई) के कार्यालय और नोडल बैंकों के बीच समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर के साथ लॉन्च किया गया था। इसके लिए चालू वित्त वर्ष 2019-20 के दौरान 338.01 करोड़ रुपये जारी किये गये हैं।

माइक्रो एंड स्मॉल एंटरप्राइजेज (सीजीटीएमएसई) के लिए क्रेडिट गारंटी फंड ट्रस्ट के तहत 5,46,127 क्रेडिट सुविधाओं की गारंटी हेतु 33,381 करोड़ रुपये की मंज़ूरी दी गयी। एमएसएमई मंत्रालय प्रौद्योगिकी केंद्र प्रणाली कार्यक्रम (टीसीएसपी) के लिए अनुमानित लागत पर काम कर रहा है। 2200 करोड़ रुपये में 200 मिलियन अमेरिकी डॉलर की रकम विश्व बैंक से कर्ज़ के रूप में ली जाएगी। इससे 15 नये टूल रूम और प्रौद्योगिकी विकास केंद्र (टीसीएस) स्थापित किये जाएँगे साथ ही देश भर में मौज़ूदा 18 टीसीएस को अपग्रेड किया जाएगा। चार प्रौद्योगिकी केंद्र भिवानी, भोपाल, पुड्डी और तिनसुकिया में बनकर तैयार हैं।

प्रौद्योगिकी केंद्र और मंत्रालय के संस्थानों के माध्यम से 3,59,361 कुशल युवाओं को प्रशिक्षण प्रदान किया गया।  सरकारी ई-मार्केट प्लेस के तहत, माइक्रो एंड स्मॉल इंटरप्राइजेज (एमएसई) के कुल 62,085 पंजीकरण हुए। इनमें से लगभग 50.74 फीसदी ऑर्डर मूल्य जीईएम पोर्टल पर एमएसई से हैं। सरकार ने केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम (सीपीएसयू इकाइयों के लिए माइक्रो एंड स्मॉल एंटरप्राइजेज (एमएसई) से 20 फीसदी के बजाय 25 फीसदी की खरीद करना अनिवार्य कर दिया है। सामान और सेवाएँ 20,139.91 करोड़ रुपये 71,199 एमएसएमई से ही खरीदे गये हैं। सीपीएसई की कुल खरीद की एमएसई का योगदान 28.49 फीसदी है। कॉमन सर्विस सेंटर (सीएससी), एंटरप्रेन्योरशिप डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (ईडीआईआई) जैसे संगठन अब एमएसएमई को डिजिटल प्लेटफॉर्म पर लाने और उन्हें डिजिटल पहचान प्रदान करने की प्रक्रिया में हैं। एमएसएमई हितधारकों के लिए और सभी एमएसएमई सेवा प्रदाताओं को एक मंच पर लाने के लिए पूरे देश में जागरूकता कार्यक्रम और कार्यशालाएँ आयोजित की जा रही हैं। कार्यान्वयन के तहत योजना भारत के गुणवत्ता परिषद् (क्यूसीआई) और राष्ट्रीय उत्पादकता परिषद् (एनपीसी) के माध्यम से पूरे देश में एमएसएमई के ​​267 समूहों में हैं। रा’य सरकारों, उद्योग संघों की योजना को भी एमएसएमई क्लस्टर में लाने के लिए रखा गया है। 200 से अधिक तकनीकी संस्थानों, उद्योग संघों, सामाजिक उद्यमों के लिए नवोन्मेषक केंद्रों को मंज़ूरी दी गयी है। योजना के तहत सहायता के लिए व्यावसायिक प्रस्तावों वाले नवीन विचारों को आमंत्रित किया जा रहा है। इस योजना के तहत उद्यमियों को इसकी शुरुआत करने के लिए एक करोड़ रुपये प्रदान किया जा रहा है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय, उद्योग संघों, सामाजिक उद्यमों, स्वयं सहायता समूहों के तहत विभिन्न तकनीकी संस्थानों के लिए डिजाइन योजना शुरू की गयी, जो ग्रामीण और कला आधारित उद्यमों सहित एमएसएमई उद्यमियों को डिज़ाइन सहायता प्रदान करने पर काम कर रही है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाइन (एनआईडी) द्वारा पहले से ही चलाये जा रहे चार के अलावा विभिन्न स्थानों पर 80 से अधिक नये डिजाइन केंद्र खोले गये। सभी एमएसएमई और छात्रों से अनुरोध किया जा रहा है कि वे इस योजना के तहत फंडिंग के लिए अपने डिजाइन प्रोजेक्ट पेश करें।

लगभग 23070 एमएसएमई का पंजीकरण शून्य डिफेक्ट इफेक्ट (जेडईडी) योजना के तहत किया गया है। जेडईडी मापदंडों को जेडईडी के लिए 10 लाख से अधिक एमएसएमई ऑनबोर्ड करने के लिए सरलीकृत किया जा रहा है। योजना के व्यापक उपयोग के लिए इसमें सभी उद्योग संघों और तकनीकी संस्थानों को शामिल किया जा रहा है। 60 से अधिक नये आईपी सुविधा केंद्र देश के विभिन्न हिस्सों में स्थापित किये गये हैं, जिनके पास अपना ट्रेडमार्क और पेटेंट दर्ज करने और पंजीकरण करने के लिए एमएसएमई की सहायता करने के लिए एक आईपी वकील भी रखा गया है।

रा’य सरकारों, उद्योग संघों, सामाजिक उद्यमों और सरकारी निगमों के माध्यम से पूरे देश में विभिन्न कौशल विकास कार्यक्रमों के आयोजन के लिए उद्यमिता और कौशल विकास कार्यक्रम (ईएसडीपी) के तहत 135 करोड़ रुपये मंजूर किये गये हैं। इस वर्ष के लिए कुल लगभग 3000 कार्यक्रम संचालित या स्वीकृत किये गये हैं।

यूके सिन्हा के नेतृत्व में आरबीआई विशेषज्ञ समिति ने माइक्रो, स्मॉल एंड मीडियम एंटरप्राइजेज के लिए 37 प्रमुख सिफारिशें की हैं। सम्बन्धित मंत्रालयों, विभागों, संगठनों और रा’यों को मंत्रालय से कहा गया है कि वे संबंधित प्रासंगिक बिन्दुओं पर कार्रवाई करें। समिति की सिफारिशों के कार्यान्वयन की स्थिति की समीक्षा करने के लिए कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में सचिवों की समिति (सीओएस) की एक बैठक 31 अक्टूबर, 2019 को आयोजित की गयी थी। एमएसएमई क्षेत्र के महत्त्व को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि इसमें विदेश मंत्रालय और भारत एसएमई फोरम के आर्थिक कूटनीति और रा’य प्रभाग के सहयोग से एमएसएमई ने दूसरा अंतर्राष्ट्रीय एसएमई सम्मेलन आयोजित किया। अधिवेशन में भारत के 1313 उद्यमियों और 44 देशों के 175 कारोबारियों ने भाग लिया। यूरोपीय, अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी देशों सहित 16 देशों के राजदूतों ने अपने सम्बन्धित वाणि’ियक वर्गों के साथ सम्मेलन में व्यापार से जुड़े अवसर पेश किये।

बी2बी की 198 बैठकें पहले ही आयोजित की जा चुकी हैं। इन बैठकों में सहयोग के इरादे से जुड़े  42 पत्र पेश किये गये थे। 729 बी2बी ट्रेड कनेक्ट फॉर्म भारतीय उद्यमियों द्वारा दायर किये गये थे। इस बाबत अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कुल 3015 अनुरोध प्राप्त हुए, जिसके लिए एक अंतर्राष्ट्रीय एसएमई गेटवे की योजना बनायी जा रही है। एमसीयू कोटिंग्स और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के लिए स्पैनिश कम्पनी और भारतीय कम्पनी आईटेक इंजीनियर्स के बीच और एक करोड़ डॉलर के संयुक्त निवेश के साथ पुडुचेरी में एक संयंत्र स्थापित करने को एक समझौते ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये गये। इन सबके साथ यह तय है कि सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग 2024 तक पाँच ट्रिलियन-इकोनॉमी लक्ष्यों को प्राप्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा। इस क्षेत्र द्वारा निभायी गयी भूमिका महत्त्वपूर्ण होगी; क्योंकि वर्तमान में अन्य क्षेत्रों में से अधिकांश की हालत अ‘छी नहीं दिख रही है।