बांग्लादेश में रोहिंग्या शरणार्थी तकलीफों का पूरा सच

आजकल नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लेकर जिस तरह का माहौल बना हुआ है, उससे हर व्यक्ति की अपनी राय भले हो, पर यह बात घूमफिरकर रोङ्क्षहग्या मुसलमानों पर आ जाती है। वास्तव में रोङ्क्षहग्या मुसलमान हैं कौन? उनका इतिहास क्या है? उनकी समस्याएँ क्या हैं? उनकी तकलीफ क्या है? यह भी जानने की ज़रूरत है। इसी पर प्रकाश डालता अभिषेक रंजन सिंह का यह लेख

नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजनशिप (एनआरसी) और नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएए) को लेकर देश भर में विरोध-प्रदर्शन जारी है। भारत में अवैध रूप से रहने वाले बांग्लादेशियों और पाकिस्तान और बांग्लादेश में उत्पीडऩ के शिकार हिन्दुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और ईसाइयों को भारत में नागरिकता देने से अधिक यह मामला सियासी हो चुका है। भारत में जहाँ इसे लेकर सत्ता और विपक्ष के बीच तलवारें खिंची हैं, वहीं सडक़ों पर भी आम लोगों का प्रदर्शन सरकार के िखलाफ जारी है और वे एनआरसी और सीएए के फैसले को रद्द करने की माँग कर रहे हैं।

बीते साल अगस्त में इस रिपोर्ट का लेखक रोहिंग्याओं के हालात को जानने के लिए बांग्लादेश गया था; क्योंकि भारत में रोहिंग्या घुसपैठ को लेकर भी विरोध-प्रदर्शनों के साथ-साथ राजनीति होती रही है। चटगाँव और कॉक्स बाज़ार के बीच डेढ़ सौ किलोमीटर का सफर मेरे लिए रोमांच भरा था। यहाँ से जुड़े कई सवाल मेरे ज़ेहन में थे। पूरे चार घंटे की यात्रा में कहीं कस्बाई हाट-बाज़ार दिखे, तो कहीं धान के पौधों से आच्छादित हरे-भरे खेत। कहीं दूर-दूर तक फैले घने जंगल, तो कहीं गाँवों की अलग-अलग बसावट। दक्षिणी बांग्लादेश के चटगाँव डिवीजन स्थित इस ज़िले की प्राकृतिक सुन्दरता मानो दोगुनी हो गयी थी। आपने दुनिया में कई समुद्री तटों की सैर होगी या फिर उनके बारे में सुना होगा। लेकिन कॉक्स बाज़ार के समुद्री तट को बगैर देखे आपका तज़ुर्बा मुकम्मल नहीं कहा जा सकता। कॉक्स बाज़ार दुनिया का सबसे लम्बा समुद्री तट है, जिसकी लम्बाई 120 किलोमीटर है। प्रदूषण की वजह से जहाँ दुनिया कई समुद्री तट अपना सौंदर्य खो रहे हैं, वहीं कॉक्स बाज़ार का तट इससे महफूज़ है।

िफलहाल दक्षिणी बांग्लादेश का यह तटीय नगर रोहिंग्या शरणार्थियों की वजह से वैश्विक चर्चाओं में है। म्यांमार से आये रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों का दौरा करना मेरी बांग्लादेश यात्रा की प्राथमिकता थी। वैसे तो इन शिविरों में दािखल होना खासकर किसी विदेशी पत्रकार के लिए आसान नहीं था। लेकिन शरणार्थी शिविरों में इमदाद चला रहे मोहम्मद आमीन और सैफुल इस्लाम की वजह से कोई मुश्किल पेश नहीं आयी। उनके बांग्ला समेत उर्दू भाषी होने के कारण संवाद की बाकी समस्याएँ भी हल हो गयीं। शाम ढलने से पहले मैं कॉक्स बाज़ार पहुँच गया था। उनके साथ समंदर किनारे कुछ समय गुज़ारने के बाद एक इलेक्ट्रिक रिक्शा में सवार होकर मैं एक गेस्ट हाउस पहुँचा। उन्होंने हमारे ठहरने का प्रबन्ध पहले से किया हुआ था। रात में खाने की मेज पर रोहिंग्या शरणार्थियों के हालात पर थोड़ी-बहुत बातें हुईं। अलबत्ता तय हुआ कि नाश्ते के बाद हम लोग रोहिंग्या शिविरों का दौरा करेंगे। कॉक्स बाज़ार स्थित बालुखाली-कुटुपालोंग इलाके में रोहिंग्या शरणार्थियों का सबसे बड़ा शिविर है। म्यांमार से आये कुल रोहिंग्याओं की आधी संख्या यहीं मौज़ूद है। अगले दिन सुबह हम लोग कुटुपालोंग के रोहिंग्या शिविरों की ओर निकल पड़े। जगह-जगह सडक़ें जाम होने की वजह से सवा घंटे का सफर ढाई घंटे में पूरा हुआ। मोहम्मद आमीन इस समस्या के बारे में बताते हैं- ‘कॉक्स बाज़ार की सडक़ों पर पहले इतनी गाडिय़ाँ नहीं थीं। म्यांमार से रोहिंग्याओं के आने के बाद यातायात की हालत खराब हुई है। दुनिया भर के एनजीओ यहाँ रिलीफ में जुटे हैं। टूरिस्ट प्लेस होने के कारण पहले यहाँ सिर्फ छुट्टियों के समय भीड़ होती थी। लेकिन एनजीओ कर्मियों की वजह से कॉक्स बाज़ार के •यादातर होटल साल भर बुक रहते हैं। कई विदेशी एनजीओ के दफ्तर होटलों के कमरे से चलता है।’

पुराना है रोहिंग्याओं के पलायन का सिलसिला

कुटुपालोंग पहुँचने पर हमारी मुलाकात रजाउल करीम से हुई। वह रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों के चीफ मजिस्ट्रेट हैं। करीम बताते हैं- ‘कॉक्स बाज़ार में कुल बारह लाख पंजीकृत रोहिंग्या शरणार्थी रह रहे हैं। हालाँकि कुछ संख्या गैर-पंजीकृत रोहिंग्याओं की भी है। ओखिया और टेकनॉप थाना क्षेत्रों में रोहिंग्याओं शरणार्थियों के कुल तीस कैम्प हैं। हर कैम्प में एक मजिस्ट्रेट तैनात किया गया है। कॉक्स बाज़ार में 1992 से करीब 33 हज़ार रोहिंग्या रह रहे हैं। यूनिसेफ ने इन्हें पंजीकृत किया है। नब्बे के दशक में रोहिंग्याओं के िखलाफ म्यांमांर में बड़ी सैन्य कार्रवाई हुई थी। उस वक्त दो लाख रोहिंग्याओं ने कॉक्स बाज़ार में शरण ली। इनमें पौने दो लाख बाद में वापस चले गये, लेकिन 35 हज़ार रोहिंग्या यहीं रह गये।’ उनके अनुसार, 9 अक्टूबर 2016 को तीन लाख रोहिंग्या यहां आए। जबकि 25 अगस्त, 2017 को सबसे ज्यादा आठ लाख रोहिंग्याओं ने म्यांमांर से हिजरत कर यहाँ पनाह ली। द रिफ्यूजी रिलीफ एंड रिपैट्रीएशन कमिश्नर (आरआरआरसी) और बांग्लादेश सरकार ने रोहिंग्या शरणार्थियों की सुरक्षित वापसी के तहत रिपैट्रीएशन काउंसिल गठित की है, लेकिन बीते ढाई-तीन वर्षों में एक भी रोहिंग्या की वापसी नहीं हुई है।

राहत कार्यों में जुटे एनजीओ

कॉक्स बाज़ार को ‘एनजीओ का शहर’ कहना गलत नहीं होगा। दुनिया भर के तमाम बड़े एनजीओ यहाँ राहत कार्यक्रम चला रहे हैं। इनकी कुल संख्या 110 है, जिनमें ऑक्सफेम, एक्शन-एड, सेव द चिल्ड्रेन, क्रिश्चियन एड आदि प्रमुख हैं। राहत सामग्रियों के वितरण के लिए 12 केंद्र बनाये गये हैं। अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ की मदद से बारह अस्पताल बनाये गये हैं। िफलहाल कॉक्स बाज़ार के रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों में 51 हज़ार महिलाएँ गर्भवती हैं। परिवार नियोजन को लेकर इनमें जागरूकता नहीं है। लेकिन हिन्दुओं में थोड़ी-बहुत जागरूकता देखी जा सकती है। एक एनजीओ से जुड़े मोहम्मद शौकत अज़ीज़ बताते हैं- ‘शरणार्थी शिविरों में हर परिवार को वल्र्ड फूड प्रोग्राम के तहत महीने में 50 किलो चावल समेत अन्य खाद्य सामग्रियाँ मिलती हैं। शुरू में रोहिंग्याओं को स्थानीय लोग नकदी भी देते थे। लेकिन बांग्लादेश सरकार ने इस पर रोक लगा दी है। शिविरों में रहने वाले रोहिंग्याओं के लिए कुछ पाबंदियाँ भी हैं। मसलन, उन्हें कैम्प से बाहर महज़ दो किलोमीटर के दायरे में ही घूमने-फिरने की इजाज़त है। उससे आगे जगह-जगह पर बांग्लादेश सेना के चेक पोस्ट हैं। जहाँ चौबीसों घंटे कड़ा पहरा होता है। हर आने-जाने वालों को यहाँ सुरक्षा जाँच और पहचान से गुज़रना होता है। मोहम्मद अज़ीज़ उर रहमान का ताल्लुक बारिसाल ज़िले से है। एक एनजीओ में कार्यरत रहमान डेढ़ वर्षों से कॉक्स बाज़ार में हैं। उनके मुताबिक, इंटरनेशनल ऑर्गेनाइजेशन ऑफ माइग्रेशन की तरफ से कुटुपालोंग समेत सभी 30 शरणार्थी शिविरों में अस्पताल और डॉक्टर मौज़ूद हैं। अमूमन होने वाली सभी बीमारियों का यहाँ इलाज होता है। लेकिन मरीज़ों की हालात गम्भीर होने पर रोहिंग्या शरणार्थियों को कॉक्स बाज़ार और चटगाँव के बड़े अस्पतालों में भी दािखल कराया जाता है।

म्यांमार जाएँगे, तो मारे जाएँगे

35 वर्षीय सनवार बेगम अपने छोटे बच्चों और बूढ़ी सास के साथ कुटुपालोंग कैम्प में रहती हैं। सनवार बेगम उन बदनसीबों में हैं, जिसके परिवार में कोई पुरुष सदस्य नहीं है। 27 अगस्त 2016 की वह खौफनाक रात जब उसके शौहर अज़ीज़ुल्लाह, देवर नजीबुल्लाह और 10 साल के बेटे मुबीनउल्लाह को म्यांमार आर्मी ने ज़िन्दा जला दिया। वह रखाइन प्रान्त स्थित मोसलिन गाँव छोडक़र जाना नहीं चाहती थी। लेकिन अपने करीबी रिश्तेदारों के कहने पर वह बांग्लादेश आ गयी। सनवार बताती हैं कि रखाइन प्रान्त में अभी भी दो लाख रोहिंग्या मौज़ूद हैं। लेकिन वे कब तक सुरक्षित हैं, यह कोई नहीं जानता। म्यांमार में रोहिंग्याओं को मोबाइल फोन इस्तेमाल करने की इजाज़त नहीं थी। उन्हें एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए टोकन लेना होता था। शेख इब्राहिम का अराकान प्रान्त में छोटा-सा व्यापार था। सैनिक कार्रवाई के दौरान उसके घर और दुकान में लूट और आगजनी की गयी। ‘अराकान रोहिंग्या सोसायटी ऑफ पीस एंड ह्यूमन राइट्स’ के महासचिव मोहम्मद सईदउल्लाह बताते हैं- ‘25 अगस्त, 2017 तक 10,566 रोहिंग्याओं का कत्ल किया गया। मरने वालों में दो हज़ार बच्चे भी शामिल थे। ढाई हज़ार महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। म्यांमार सैनिकों के हवस का शिकार बनी महिलाओं ने 613 बच्चों को जन्म दिया। लेकिन इन बच्चों का पिता कौन है? यह कोई नहीं जानता।’  रोहिंग्या की तरफ से 13 चार्टर ऑफ डिमांड म्यांमार सरकार को दिये हैं। उनका कहना है कि अगर सरकार इसे मान लेती है, तो वे वापस लौट आएँगे।

हिन्दुओं पर धर्म परिवर्तन का दबाव

म्यांमार से बांग्लादेश आने वाले 12 लाख रोहिंग्याओं में 110 हिन्दू परिवार भी हैं। कुटुपलांग शरणार्थी शिविर में असिस्टेंट कैम्प इंचार्ज मोहम्मद कमाल हुसैन बताते हैं- ‘हिन्दू रोहिंग्याओं की संख्या 630 है, जो अराकान और रखाइन प्रान्त के गाँवों से आये हैं। सभी हिन्दुओं को एक साथ कुटुपलांग कैम्प में रखा गया है। यहाँ उन्हें कोई तकलीफ नहीं है और न ही धर्म के नाम पर उनके साथ कोई भेदभाव किया जाता है। उन्हें पूरी तरह धार्मिक आज़ादी है। इस बार इन्होंने दुर्गा पूजा मंडप स्थापित करने की योजना बना रहे हैं। रखाइन से आये मनोहर बर्मन अपने परिवार के साथ शरणार्थी शिविर में रहते हैं। वह बताते हैं कि बांग्लादेश सरकार की तरफ से उन्हें पूरी राहत दी जा रही है। लेकिन कैम्प में रहने वाले कई मौलवी उन पर धर्म-परिवर्तन का दबाव बनाते हैं। इस बाबत कैम्प मजिस्ट्रेट से इसकी शिकायत की; लेकिन असुरक्षा की भावना बनी रहती है।

आपसी झगड़े में 250 हत्याएँ

मुसीबत के मारे लोगों को आपसी एकता कायम रखनी चाहिए, ऐसा कहा जाता है। लेकिन कॉक्स बाज़ार के रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों का िकस्सा इससे उलट है। म्यांमार में सैन्य कार्रवाई से अपनी जान बचाकर बांग्लादेश आये रोहिंग्या आपस में एक-दूसरे का खून बहा रहे हैं। बालुखाली कैम्प की इंजार्ज फातिमा नसरीन बताती हैं कि पिछले तीन वर्षों के दौरान कुटुपलांग और टेकनॉप कैम्प में 250 रोहिंग्या की हत्याएँ हुईं हैं और मरने वाले सभी मुसलमान थे। झगड़े की मुख्य वजह इनकी पुरानी दुश्मनी थी। लेकिन कई हत्याएँ बेहद मामूली बातों पर भी हुई है। मसलन चापाकल से पानी भरने को लेकर, तो कभी दो बच्चों के बीच हुई कहासुनी को लेकर। ऐसी घटनाओं को बांग्लादेश सरकार और स्थानीय प्रशासन चिन्तित है। गैर-मुल्की होने की वजह से दोषियों के िखलाफ कानूनी कार्रवाई करना सम्भव नहीं है। ऐसी वारदातों को रोकने के लिए संवेदनशील कैम्पों में खास एतहियात बरती जा रही है। इस बाबत पीस कमेटियों का गठन किया गया है, जिसमें मौलानाओं व मुअ•ज़नों को शामिल किया गया है। बीते दिनों कॉक्स बाज़ार के स्थानीय नागरिकों ने रोहिंग्या मुसलमानों के िखलाफ एक बड़ी रैली निकाली गयी और सरकार से माँग की गयी कि रोहिंग्याओं को कॉक्स बाज़ार से हटाया जाए, क्योंकि इनकी वजह से यहाँ के स्थानीय लोगों को जीना दुश्वार हो रहा है।

रोहिंग्या और बांग्लादेशी के बीच शादियाँ नहीं

बांग्लादेश सरकार की तरफ से रोहिंग्या महिलाओं का बांग्लादेशी नागरिक से करने की सख्त पाबंदी है। इसके बावजूद यहाँ कई ऐसी शादियाँ हुई हैं। इन शादियों के बाद पैदा हुए बच्चों की नागरिकता क्या होगी? यह एक बड़ा सवाल है। कैम्प इंचार्ज फातिमा नसरीन बताती हैं- ‘शुरुआत में कुछ रोहिंग्याओं और बांग्लादेशियों के बीच शादियाँ हुईं। जानकारी मिलने पर सरकार की तरफ से उन रोहिंग्या परिवारों को चिह्नित किया गया, जिन्होंने अपनी बेटियों की शादी की।’ कुटुपलांग शिविर में रहने वाले शाह आलम यहाँ बने एक मस्जिद में इमाम हैं। उनका कहना है कि बेशक हम मुसलमान हैं; लेकिन हमारे तौर-तरीके बांग्लादेशियों से अलग हैं। हमारे कैम्प में चोरी-छिपे कुछ ऐसी शादियाँ हुई हैं। एक बाप जिसकी बेटियाँ शादी के लायक हो चुकी हैं, अगर उसने ऐसा किया तो इंसानी तकाज़ा कहता है, वह सही है। लेकिन किसी मुल्क का कानून और उसकी आईन इसकी इजाज़त नहीं देता है। लिहाज़ा अपनी जगह एक बाप भी सही है और सरकार भी खुद अपनी जगह दुरुस्त है। कैम्प इंचार्ज फातिमा नसरीन के मुताबिक, ऐसी शादियों को वैधता नहीं मिल सकती। रोहिंग्या एक शरणार्थी की हैसियत से यहाँ हैं। हालात सही होने पर उन्हें म्यांमार जाना होगा।

कॉक्स बाज़ार के वनों पर संकट

रोहिंग्या शरणार्थियों के आने से पहले कॉक्स बाज़ार की जनसंख्या 22,89,990 थी। लेकिन म्यांमार से आये 12 लाख रोहिंग्याओं के कारण इस ज़िले पर काफी दबाव बढ़ गया है। कॉक्स बाज़ार में जहाँ रोहिंग्याओं के लिए शिविर बनाये गये हैं। वे संरक्षित वन क्षेत्र हैं, जिसका कुल रकबा 10 हज़ार एकड़ है। कैम्प बनाने के लिए लाखों पेड़ काटे गये और यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। स्थानीय प्रशासन भी इसे पर्यावरण के लिए गम्भीर खतरा मान रहे हैं। इससे भूक्षरण का खतरा भी बढ़ गया है। अगर एक-दो वर्षों तक यहाँ रोहिंग्याओं का निवास रहा, तो कॉक्स बाज़ार के जंगल समाप्त हो जाएँगे। गौरतलब है कि कॉक्स बाज़ार बंगाल की खाड़ी के तट पर बसा है। इस इलाके में समय-समय पर समुद्री चक्रवात आते रहते हैं। यहाँ वनों की बहुतायत होने से भू-स्खलन का खतरा कम रहता है। लेकिन पिछले दो वर्षों के दौरान कॉक्स बाज़ार में बड़े पैमाने पर जंगलों का सफाया हुआ। जो भविष्य में गम्भीर पर्यावरणीय संकट उत्पन्न करेगा।

रोहिंग्याओं को उर्दू बोलने से गुरेज़ नहीं

कॉक्स बाज़ार के रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों में जाने से पहले मैं पसोपेश में था। उनसे संवाद कैसे कायम हो यह मुख्य वजह थी। लेकिन मुझे हैरानी हुई, जब कुटुपालोंग शिविर में रहने वाले रोहिंग्या बेहिचक अच्छी उर्दू बोल रहे थे। यहाँ मदरसे में पढ़ाने वाले मौलाना अबुल हसन बताते हैं कि रोहिंग्या मुसलमान इस्लाम की हनफी परम्परा पर अमल करते हैं। वैसे हमारा सिलसिला हिन्दुस्तान के दारुल-उलूम-देवबंद से भी रहा है। जब हिन्दुस्तान आने-जाने में कोई दिक्कत नहीं थी। तब हमारे बाप-दादा तालीम हासिल करने सहारनपुर जाते थे। भारत के बँटवारे से पहले बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान आदि जगहों से लोग बर्मा में काम करते थे। वे सभी हिन्दी-उर्दू में बातें करते थे। धीरे-धीरे रंगून समेत कई सूबों में उर्दू समझी और बोले जाने लगी। लेकिन इसके बरक्स ज्यादातर रोहिंग्या महिलाएँ बर्मी ज़बान में बातें करती दिखीं। शरणार्थी शिविरों में रहने वाली लगभग सभी महिलाएँ बुर्कानशीं थीं। उनकी वे कितनी तालीमयाफ्ता हैं, इस बारे में अब्दुल शकूर बताते हैं, लड़कियों को सिर्फ मदरसे में दीनी तालीम दी जाती है। म्यांमार में इसे लेकर भी सरकार से हमारा विरोध रहा। रोहिंग्या मुसलमान शरीयत के मुताबिक तालीम हासिल करते हैं। लेकिन सरकार की शिक्षा नीति हमारे मज़हब के लिए मुफीद नहीं है। इसलिए हम लोग औरतों को मदरसे या घर में तालीम देते हैं।

कहानी एक रोहिंग्या ज़मींदार की

सत्तर साल के हुसैन अली और उनका परिवार कुटुपलांग शरणार्थी शिविर में टीन और तिरपाल से बने घर में रहते हैं। अराकान प्रान्त के नाज़िदम गाँव के रहने वाले हुसैन अली खुद को 300 बीघे का बड़ा काश्तकार बताते हैं। म्यांमार से उन्होंने अपने ज़मीनों के कुछ कागज़ात भी साथ लाये हैं। लेकिन ज्यादातर दस्तावेज़ म्यांमार सेना द्वारा लगायी गयी आग में जल गए। अपनी नागरिकता प्रमाण-पत्र दिखाते हुए वह कहते हैं- ‘रोहिंग्या म्यांमार के नागरिक हैं, इससे सरकार इनकार नहीं कर सकती। हमें वर्ष 1963 में नागरिकता मिली, लेकिन साल 2010 में सभी रोहिंग्याओं की नागरिकता छीन ली गयी।’ उनके मुताबिक, कॉक्स बाज़ार में रहने वाले सभी रोहिंग्या गरीब नहीं हैं। ऐसे लोगों की तादाद करीब 30 फीसद है, जिनकी माली हालत ठीक है। रोहिंग्याओं को अराकान से भगाने की वजह अराकान में चीन के सहयोग से बनने वाली गैस पाइपलाइन परियोजना है। इन कैम्पों में हुसैन अली जैसे और कई बड़े किसान हैं, जिनकी ज़मीनों पर सरकार ने कब्ज़ा कर लिया। जिन किसानों ने इसका विरोध किया उसकी हत्या कर दी गयी। पूरे म्यांमार में कुल 30 लाख रोहिंग्या मुसलमान रहते हैं। जिनमें ज्यादातर बेदखली और फर्ज़ी कानूनी मुकदमे झेल रहे हैं।

अवामी लीग सरकार पर विपक्षी हमला

रोहिंग्या शरणार्थियों को म्यांमार से आये ढाई साल हो गये। लेकिन उनके लिए सुरक्षित अपने मुल्क वापसी की राह आसान नहीं हुई है। बांग्लादेश और म्यांमार के बीच ढाका में कई दौर की बातें भी हुईं, लेकिन म्यांमार की तरफ से रोहिंग्याओं को वापस बुलाने के कोई ठोस संकेत नहीं मिले हैं। वैश्विक मंच पर ‘आंगसांग सू की’ और संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव के बीच राफ्ता भी हुआ। लेकिन रोहिंग्याओं के भविष्य पर कोई बात नहीं हुई। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आंगसांग सू की भी मिले, लेकिन इस मुद्दे पर कहीं कोई चर्चा नहीं हुई, जबकि बांग्लादेश के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं समेत कई राजनीतिक दलों को कहना है कि रोहिंग्या शरणार्थियों के मुद्दे पर भारत को भी शामिल करना चाहिए। बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी समेत कई दीगर पार्टियों का कहना है कि प्रधानमंत्री शेख हसीना रोहिंग्याओं की वापसी को लेकर म्यांमार सरकार से गम्भीर बातचीत की पहल नहीं कर रही है। उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस और विश्व बैंक के अध्यक्ष जिम योंग किम ने पिछले साल जुलाई में कॉक्स बाज़ार के रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों का संयुक्त दौरा किया था। विश्व बैंक की तरफ से बांग्लादेश को करोड़ों डॉलर देने की अनुशंसा की गयी। विपक्षी दलों का आरोप है कि अवामी लीग सरकार ने शरणार्थी संकट को एक व्यापार बना दिया है।

इंदिरा की राह पर हसीना

1971 के मुक्ति युद्ध के समय भारत न सिर्फ बांग्लादेश बनाने में ऐतिहासिक मदद की, बल्कि लाखों बांग्लादेशियों की जानमाल की हिफाज़त के लिए अपनी सरहदें भी खोल दीं। पाकिस्तानी सेना के जुल्म के मारे लाखों की तादाद में बांग्लादेशी असम, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा आदि राज्यों में शरण ली। पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में भारत की सफल सैन्य कार्रवाई की वजह से प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की एक मज़बूत वैश्विक छवि बनी। इस तरह मज़हब की बुनियाद पर बना पाकिस्तान 24 वर्षों तक्सीम हो गया। इस तरह बांग्लादेशियों में मन में इंदिरा गाँधी की करुणामयी छवि बन गयी। खुद प्रधानमंत्री शेख हसीना और उनकी छोटी बहन शेख रेहाना भी सात वर्षों तक यूरोप और भारत में शरणार्थी जैसी ज़िन्दगी गुज़ारी। जब उनके पिता बंगबन्धु शेख मुजीब उर रहमान समेत उनके कई परिजनों की हत्या एक सैन्य साज़िश के तहत कर दी गयी। शायद इसे अपनों के खोने का गम कहें या सियासत; प्रधानमंत्री शेख हसीना कॉक्स बाज़ार के रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों के दौरे के बाद कहा- ‘हमारी सरकार जब 16 करोड़ बांग्लादेशियों का पेट भर सकती है, तो म्यांमार से आये रोहिंग्या शरणार्थियों को भी भूखा नहीं मरने देगी।’ प्रधानमंत्री हसीना का यह बयान न सिर्फ अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की सुॢखयाँ बना, बल्कि बांग्लादेश में उनकी मुखालिफ (विरोधी) पार्टियाँ भी इस मुद्दे पर सरकार के साथ दिखीं। वैसे भी विपक्षी पार्टियों के लिए इस फैसले का विरोध करना सियासी खुदकुशी करने जैसा होता। इसकी मूल वजह है- रोहिंग्या मुसलमानों के प्रति बांग्लादेशियों की हमदर्दी। रोहिंग्याओं को शरण देकर प्रधानमंत्री शेख हसीना को तीन फायदे हुए। पहला वैश्विक मंच और मानवाधिकारों के हिमायतियों के बीच उनके दखल में इज़ाफा। दूसरा बांग्लादेशियों की नज़रों में उनकी ममतामयी छवि मज़बूत हुई। तीसरा भारतीय उप महाद्वीप में इंदिरा गाँधी जैसी लोकप्रियता हासिल करने की महत्त्वाकांक्षा। हालाँकि अगर वह ऐसा चाहती हैं, तो उसमें कुछ गलत भी नहीं है। एक गरीब देश होकर भी बांग्लादेश ने म्यांमार से आये 12 लाख रोहिंग्याओं के लिए अपनी सीमाएँ खोल दीं। ठीक उसी तरह, जब पाकिस्तान के िखलाफ मुक्ति युद्ध में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने बांग्लादेशियों के लिए सरहदें खोल दीं।