बदइंतज़ामी में गिरी धरोहर कहलाने वाले शहर हैदराबाद की साख

कितना रोमानी लगता है जब कोई गुनगुनाता है- ‘टिप टिप बरसा पानी, पानी ने आग लगायी।’ यह उम्मीद किसी को कतई नहीं थी कि कुदरत की देन बारिश इतनी भयावह हो जाएगी कि दुनिया के पुराने शहरों में बतौर विरासत गिने जाने वाले हैदराबाद में हाहाकार मच जाए। इंसान के बनाये सदियों पुराने नाले भी इस बारिश के पानी के फैलाव को काबू में नहीं कर पाये। क्योंकि कभी उनकी देख-सँभाल की ही नहीं गयी।

शहर हैदराबाद और आसपास के कई ज़िलों में तकरीबन पूरे सप्ताह तक यानी 13 से 19 अक्टूबर तक बेहद परेशानी का सबब रहा। बंगाल की खाड़ी से पश्चिम-मध्य को बने मानसून के दबाव के चलते मूसलाधार बारिश का आलम रहा। धीरे-धीरे यह कमज़ोर हुआ और पूर्व (आंध्र प्रदेश) और पश्चिमी समुद्री किनारे (उत्तरी कर्नाटक और महाराष्ट्र) को निकल गया।

बारिश ने तेलंगाना की राजधानी की पोल खोल दी। इस बारिश के पानी से सड़कें टूटीं, पुरानी और नयी बस्तियों को उजाड़ा। कई जगह तो तकरीबन 10 से 12 फीट तक जमा इस पानी से यह पता लगा कि पुराने नाले, सीवरेज व्यवस्था और झीलों, जल स्रोतों, तालाबों पर जबरन मन्दिर, मस्जिद, स्कूल और कॉलोनियाँ बना देने और झुग्गी-झोंपडिय़ों को पनपाते रहने देने से प्रकृति की नाराज़गी कैसा कहर ढाती है। इस बारिश से न केवल साढ़े आठ हज़ार करोड़ रुपये से भी ज़्यादा नुकसान हुआ है, बल्कि एक अनुमान के अनुसार 70 से भी ज़्यादा लोगों की मौत हुईं। इसके अलावा विरासत माने जाने वाले कई ऐतिहासिक स्थल अब खण्डहरों में तब्दील हुए दिखते हैं।

सदियों पहले यानी ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में पूरे दक्षिण में सात वाहन वंश यानी यहीं के निवासी राज करते थे। ये लोग दक्षिणी भारत से इधर आये और बसे। ईसा के 1000 साल पहले से यहाँ गौतम बुद्ध की शिक्षा और उनकी लोकप्रियता थी। इस ओर इस धर्म का आगमन पूरे तौर पर तीसरी शताब्दी में हुआ। इस बात का प्रमाण शिलालेखों में मिलता है। सातवीं से 10वीं शताब्दी तक यहाँ चोल राजाओं का शासन था। उनके ही राज में द्रविड़ शैली की भारतीय वास्तुकला का विकास हुआ। राजाओं को 11वीं शताब्दी में काकतीय वंश के राजाओं ने पराजित किया। इनके राज में दक्षिण भारत की वास्तुकला में और भी विकास हुआ। मन्दिरों में खम्भों की योजना तभी से मिलती है। ये विजयनगर राजाओं के तौर पर भी जाने जाते हैं। इस वंश के राजाओं को 16वीं शताब्दी में कुतुब शाही वंश ने पराजित किया।

इन्होंने और आसफ जाही के वंशजों ने हैदराबाद और सिंकदराबाद का विकास किया। िकलों का निर्माण पानी की उपलब्धता और पानी की निकासी सम्बन्धी योजनाओं पर तभी राय-मशविरा और अमलीजामा पहनाया गया। 16वीं सदी में ही कुतुबशाही ने हैदराबाद में पानी को िकल्लत महसूस की। शाही घराने ने गोलकुण्डा का िकला छोडऩे और मूसी नदी किनारे बसने का फैसला किया। हैदराबाद के बसने की शुरुआत तभी से मानी जाती है। इसका केंद्र बिन्दु चारमीनार बना। दिल्ली सुल्तान औरंगज़ेब ने इस नये शहर पर हमला किया। तब यह शहर दिल्ली के अधीन हो गया। लेकिन उसी के एक मनसबदार आसफ जाही ने मुगल सल्तनत के कमज़ोरी का लाभ उठाते हुए हैदराबाद को आज़ाद घोषित कर दिया।

तबसे हैदराबाद में निजाम परम्परा शुरू हुई। यह शहर ललित कला, हस्तकला, शिक्षा और साहित्य का अंतर्राष्ट्रीय केंद्र बना। शहर में नदी, नालों और झीलों के रखरखाव पर ध्यान दिया गया। हैदराबाद संयुक्त राष्ट्र की विरासत माने जाने वाले शहरों की सूची में प्रमुख शहर रहा है। इस शहर में खासतौर पर पानी के लगे रहने की समस्या नहीं थी। बड़े ही करीने से बसे पुराने शहर में तब की मुस्लिम बस्तियों, सदियों पुराने स्मारकों से पूरी बस्ती ऐसी खिली-खिली दिखती थी, मानो किसी शाहज़ादी के पहनावे में सोने और मोतियों की खूबसूरत कढ़ाई की गयी हो।

आज भी एक ओर बने मकबरे, मस्जिदें, महल, सड़कें, पार्क और झील, तालाब आज भी इस शहर की बुलंदी का अहसास कराते हैं। यह शहर हिन्दू, मुस्लिम और बौद्ध परम्पराओं का संगम था। इतिहासकारों के अनुसार, हैदराबाद के संस्थापक मोहम्मद कुली सखशाह और उनके बाद कुतुब शाही और आसिफ जाही ने अपनी दूरदर्शिता से नये बसे शहर में पानी निकासी की व्यवस्था की थी। उनकी व्यवस्था में विशाल नाले बने थे, जिनसे बारिश का पानी नदी में जा सके। अब वह बर्बाद है।

तेलंगाना बनने के बाद बारिश में सड़कों पर और निचले इलाकों में पानी भर जाने की घटनाएँ आम हुईं; लेकिन स्थानीय प्रशासन और राज्य सरकारों में कभी इसे गम्भीरता से नहीं लिया। विभिन्न विभागों के अधिकारियों की कमेटियाँ बनीं; लेकिन उनके सुझावों पर अमल नहीं हुआ। 13 अक्टूबर की बारिश से 2000 से ऊपर कॉलोनियों में नुकसान हुआ। तकरीबन 20 साल पहले जब बारिश 24.5 से.मी. हुई, तब भी ऐसा नज़ारा बना था। हालाँकि इतना ज़्यादा अवैध निर्माण, अवैध कॉलोनियाँ और झुग्गी-झापेडिय़ाँ तब नहीं थीं। ज़्यादातर कॉलोनियाँ, जो तालाबों, झीलों और नालों के आसपास बसीं; उन्हें खासा नुुकसान हुआ। अप्पा चेरू झील, जो छ: एकड़ में फैली थी; आज दो एकड़ में सिमट गयी है। इसी तरह जब सन् 1908 में मूसी नदी में बाढ़ आयी तो निजाम ने नये विशाल रिजर्वेयर बनवाये और ड्रेनेज प्रणाली को विकसित किया, जिससे बाढ़ का प्रभाव शहर पर न पड़े। हैदराबाद और आसपास के ज़िलों में हुई विपदा से यह ज़रूर साफ हुआ कि प्राकृतिक विपदा में नयी बसी बस्तियाँ और विकास ठहरने से राज्य और केंद्र सरकारें कितनी बेबस दिखती हैं। पूरे तौर पर साधन-सम्पन्न होते हुए भी आपात बचाव रसद-राहत का काम करा नहीं पातीं। यह काम ज़्यादातर स्थानीय लोगों ने ही किया। तेलंगाना सरकार ऐसे मौके पर और ज़्यादा आपात कार्य करने चाहिए थे। खुद मुख्यमंत्री को पहल करनी चाहिए थी; लेकिन उसमें चूक रही।

पुराने शहर हैदराबाद और सिंकदराबाद में तेलंगाना राज्य बनने के बाद यह उम्मीद की थी कि शहरों का नियोजित विकास होगा। लेकिन नेताओं और प्रशासन के ही बढ़ावा देने से पुराने पार्कों, तालाबों, झीलों पर नयी कॉलोनियाँ और गगनचुंबी इमारतें बनीं। कहीं भी पानी के बहाव की उचित व्यवस्था नहीं हुई। नतीजा यह रहा कि यहाँ की मशहूर झीलें और बड़े तालाब जहाँ कभी कमल भी खिलते थे; देश-विदेश से तरह-तरह के पक्षी आते थे; वह सब बढ़ते प्रदूषण के चलते काफी कम हो गये। सरकारी एजेंसियों के अनुसार, 13 अक्टूबर को हुई बारिश और तेज़ हवा के चलते दर्ज़नों पेड़ गिरे, हवाई अड्डे को जाने वाली सड़क बह गयी और कई जर्जर इमारतों को और ज़्यादा नुकसान पहुँचा। पूरे देश में प्रसारित वीडियोज में देखा गया कि किस तरह पानी के बहाव में गाडिय़ाँ तक बहीं और एक-दूसरे से टकरायीं। कई निचले इलाकों में तो पानी 10-12 मीटर तक पहुँचा और दो तीन दिन जमा रहा। साथ में आयी गाद भी सड़कों और गलियों पर तथा घरों में जमा रही।

जिन फैक्ट्रियों में निचले तल्ले पर कारीगर काम करते हैं, वहाँ रखे कच्चे माल और मशीनों को खासा नुकसान पहुँचा। छोटे कारोबारी, जिनके यहाँ कताई-बुनाई, नक्काशी और मोतियों का काम होता था; उनको भी खासी परेशानी उठानी पड़ी। अनुमान है कि यह सारा नुकसान कम-से-कम 2,000 करोड़ रुपये का होगा।

इस बारिश से आयी बाढ़ से झीलों के किनारे और बंधों के आसपास बसी झुग्गी-झोंपडिय़ों को जान-माल का खासा नुकसान हुआ। एक अधेड़ महिला ने बताया कि बाढ़ में कैसे उसके बच्चे वह गये। उन्हें बचाने के लिए भागे लोग भी नहीं लौट सके। हर कहीं पानी-ही-पानी और गहराई का अनुमान नहीं लग रहा था। हर कहीं प्रलय जैसा ही रूप था। ऐसा लग रहा था कि शहर की तमाम झीलें, तालाब पानी से उफनकर नदी बनकर पूरे शहर में फैले हैं। हैदराबाद और आसपास के ज़िलों में फसल, पशु धन, इमारतों और सड़कों के नुकसान की एक अहम वजह थी- तीन बड़े तालाबों, मूसी नदी में बारिश के चलते आयी बाढ़ और निचले इलाकों में पानी का भर जाना।

तेलंगाना सरकार के अनुसार, बारिश और बाढ़ से फसलों का ही 8,633 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। सड़कों का नुकसान 222 करोड़ रुपये और ग्रेटर हैदराबाद म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन का 567 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। तेलंगाना सरकार ने केंद्र से 1350 करोड़ रुपये की तात्कालिक मदद की गुहार लगायी, लेकिन केंद्र तात्कालिक तौर पर 15 करोड़ की व्यवस्था की थी। राज्य सरकार ने 73 स्थानों पर राहत शिविर लगाये। बारिश-बाढ़ से खासा असर एलबी नगर, चार मीनार, सिकंदराबाद और खैरताबाद क्षेत्र में हुआ।

हैदराबाद के एक नवाब ने बताया कि जिन दिनों हैदराबाद और सिकंदराबाद जुड़वाँ शहर बतौर बसाये गये, तब आसफ जाही का शासन था। तब बड़े तरीके से बड़े-बड़े टैंक और पानी की निकासी के लिए बड़े नाले बने। इन्हें निजाम ने सन् 1902 में दुरुस्त कराया। लेकिन बाद की सरकारों और उनके नौकरशाहों ने उस सिस्टम को ठीक से समझने और उसकी देखभाल करने की ज़रूरत नहीं समझी। आसफ जाही के शासनकाल में यह व्यवस्था थी कि किसानों को झीलों की तलहटी दी जाती। वे देखभाल करते और अच्छी फसल भी लेते।

जब शहरीकरण बढ़ा, तो झीलें, तालाब, जल-स्रोत, कूड़े में तब्दील होने लगे। भवन निर्माताओं ने कॉलोलियाँ काटीं और तमाम गन्दगी सीवरेज लाइन के ज़रिये झीलों-तालाबों में भरने लगी। नतीजा यह रहा कि तालाबों-झीलों की पानी थामने की क्षमता घटी। धीरे-धीरे कमल की जगह खरपतवार बढ़े। मछलियाँ मरने लगीं। झीलों-तालाबों को पाटने का काम हुआ। किसानों ने झीलों के सूखते हिस्सों को भवन-कॉलोनी निर्माताओं को बेचा। टुकड़ों पर शहरी मध्यम वर्ग बसने लगा। फिर तो सरकारों ने भी आउटर रिंगरोड, हैदराबाद मेट्रो वगैरह घोषित कर दिये। रोड डेवलपमेंट प्लान में बुनियादी ज़रूरतों का उचित ध्यान नहीं रखा गया। पानी, सीवरेज की उचित व्यवस्था नहीं की गयी। पूरे राजधानी क्षेत्र की तस्वीर ही बदल गयी। अब हाल यह है कि ग्रेटर हैदराबाद में एक भी झील नहीं है। हुसैन सागर झील खासी सिकुड़ गयी है; जिसके किनारे झुग्गियों की बसाहट है। 13 अक्टूबर की त्रासदी में तीन स्टॉर्म वॉटर ड्रेन के बाँध टूटे। बर्बादी का आलम शुरू हुआ। झीलों, तालाबों, स्टॉर्म ड्रेन के पास बसायी गयी बस्तियों के लोग खासे परेशान रहे। अब ज़रूरत है कि हैदराबाद में बस्तियों और झुग्गी-झोंपडिय़ों की बसाहट का काम सरकार योजनानुसार करे। विभिन्न मंत्रालय के अधिकारी पानी निकासी के पुराने ढाँचे को जान-समझकर उसे दुरुस्त रखें, फिर निर्माण कराएँ। तभी हैदराबाद सुरक्षित रह सकेगा और विश्व के धरोहर माने गये शहरों में उसकी गिनती रह सकेगी।