बगैर हार जीत

बगैर हार जीत

अभी अभी हुआ है सवेरा

यह तो दिनारंभ है

थोड़ी ही देर में

आएंगी दोपहर भी

चमकेगा सूरज तब

ऊपर आकाश में

धरती भी

बिना थके बिना सके

काटेगी चक्कर

अपनी ही धुरी पर

सुबह से शाम तक

तब कहीं बदलेगा

सूरज अपना चोला

और

देखते ही देखते

बन जाएगा सोने का

एक सुनहला गोला

और छिप जाएगा

पहाड़ों के पीछे

या

डूब जाएगा

नीचे समंदर में

फिर निकलेगा चांद

छिटकेगी चांदनी

धरती के आंगन में

ऐसे तुम प्रिये।

आओ तो खेलें हम

खेल बिना हार जीत का।

ईश वंदना

हे ईश्वर।

तुम उसको मंत रोको

आने दो पास मेरे

वह कोई गैर नहीं

मेरा ही अपना है

अपना ही दु:ख है

चाहता है वह अभी

मेरे पास आना

देकर आघात मुझे

मुझको आजमाना।

हे प्रभो

सहने दो एका ही

मुझको आधात को

हां, यदि तुम चाहो तो

दूर से ही देखना

कितना है दम उसमें

और मुझमें कितना।

रास्ते में राम! राम!

शर्मा जी राम! राम!

हां भाई वर्मा जी

राम! राम!

बहुत दिनों बाद मिले

कैसे हैं आप?

यह तो बताइए

अच्छा हूं अच्छा हूं

अपनी सुनाइए

मैं भी हूं ठीक ठाक

अभी जरा जल्दी में हूं

घर अभी जाना है

सो तो ठीक है

लेकिन इधर कभी मिले नहीं

बहुत दिन हो गए

आइए न कल मेरे

घर पर

एक साथ बैठकर

चाय चू पीएंगे

करेंगे गपशप

सुख-दु:ख बतियाएंगे

जी बहल जाएगा

ठीक है ठीक है

आऊंगा आऊंगा

जल्दी ही किसी दिन

इत्मीनान रहिए

अच्छा जी

करूंगा इंतजार

जी भाई, राम! राम!

हां भाई, राम! राम!

नानी की मुठ्ठी

मैं भूल नहीं पाता हूं

अपने उस मिट्टी के

घर को जिसमें

मैं जन्मा था

नानी के गांव में

नाम था उसका

भदोखरा!

वहां क्या

सब कुछ था

खरा-खरा

खोटा कुछ नहीं था

नहीं था कोई

ऐसा वैसा

था वहां हर कोई

मन का सच्चा

गंवई-ग्रामीण था

मैं था बहुत चंचल

बचपन में अपने

लड़ता झगड़ता था

साथ में यारों के

मारता था उनको

मार भी खाता था

हाथों से उनके

किस-किस की बात कहूं

सब के सब

निर्मय कठोर थे

सब मिलकर

मारते थे मुझ को

चोट जब लगती थी

मैं बहुत रोता था

चुप नहीं होता था

मेरा रोना

बहुत बुरा लगता था

नानी को

वह बिगड़ जाती थीं

मेरे उन यारों पर

डांट भी पिलाती थीं उनको

लेकिन

पोंछती थीं आंसू

आंखों के मेरे

दुलारती पुचकारती थी

खाने के लिए

मिठाई के पैसे भी देती थीं

खुल जाती थी

जब नानी की मुठ्ठी

झरते थे उससे

पैसे ही पैसे

पैसे ही पैसे!