पश्चिमी देशों में भारतीय विद्यार्थियों से भेदभाव

विदेशों में शिक्षा हासिल कर रहे भारतीय विद्यार्थियों के प्रति नस्लीय तथा आपराधिक हमलों की ख़बरें भारतीय मीडिया में समय-समय पर प्रकाशित होती हैं और चर्चा का विषय बनी रहती हैं। ऑस्ट्रेलिया में उच्च शिक्षा हासिल कर रहे भारतीय छात्र शुभम गर्ग के साथ हाल ही में घटित हिंसक नस्लीय घटना इस ओर इशारा करती है कि विकसित लोकतांत्रिक देशों में भी व्यक्तिगत स्तर पर इस तरह की सोच से उबरने में अभी वक़्त लगेगा। भारतीय विद्यार्थी बड़ी तादाद में कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका तथा ब्रिटेन अध्ययन के लिए जाते हैं। ये वो देश हैं, जहाँ भारतीय मूल के लोग विविध क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा के दम पर प्रभावशाली पदों पर आसीन हैं। यह दु:खद है कि ऐसे लोकतांत्रिक देशों में जहाँ भारतीयों का योगदान बेहद महत्त्वपूर्ण रहा है, वहाँ पर भारतीय विद्यार्थियों तथा वहाँ काम कर रहे भारतीयों को 21वीं सदी में भी समय-समय पर नस्लीय तथा जानलेवा आपराधिक हमलों घटनाओं का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे हमलों की गम्भीरता को देखते हुए कई बार भारतीय विदेश मंत्रालय एडवाइजरी जारी करता है, तो कभी सम्बन्धित देशों के लोकल भारतीय संगठन।

हालाँकि इन देशों की सरकारें तथा लोकल प्रशासन यह नहीं मानते कि उनके देश में किसी पर नस्लीय हमले हो रहे हैं। लेकिन कई भारतीय विद्यार्थी तथा उनके परिजन इन देशों में अपने साथ घटित घटनाओं को नस्लीय तौर पर देखते हैं। यूट्यूब, फेसबुक तथा ट्विटर पर हमें कई ऐसी पूर्व घटनाओं के वास्तविक वीडियोज दिख जाते हैं, जिनसे पता चलता है कि कुछ यूरोपीय देशों- ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, अमेरिका इत्यादि देशों में भारतीय समेत विदेशी छात्रों तथा लोगों के साथ थोड़ी-बहुत नस्लीय घटनाएँ आज भी घटित हो रही हैं। भारत से उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए कैथल, हरियाणा से लंदन (इंग्लैंड) आये पूर्व छात्र रणदीप सिंह का कहना है- ‘शैक्षणिक संस्थान में तो मुझे किसी भी स्तर पर कोई भेदभाव नहीं दिखा। लेकिन कभी-कभी यहाँ के स्थायी लोगों के व्यवहार में भारतीय विद्यार्थियों तथा लोगों के प्रति नस्लीय व्यवहार दिख जाता है।’ ऐसी घटनाओं के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? इस सवाल के जवाब में वह कहते हैं- ‘यहाँ के स्थानीय लोगों को लगता है कि हम भारतीय उनकी नौकरियाँ छीन रहे हैं।’

दरअसल इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि विदेशी विद्यार्थियों तथा लोगों के कारण कई देशों के प्रवासी निवासियों में आर्थिक, शारीरिक असुरक्षा की भावना पनप रही है और यह नस्लीय भेदभाव के ही कारण है। यह दु:खद है कि पश्चिमी देशों में कभी-कभी विदेशी विद्यार्थियों द्वारा बोली जाने वाली उनकी अपनी भाषा के कारण भारतीय विद्यार्थियों को नस्लीय हमलों या आपराधिक तत्त्वों का सामना करना पड़ता है। किसी भी स्वस्थ लोकतांत्रिक देश में विदेशी भाषा बोलने को लेकर किसी व्यक्ति या समूह पर किसी भी तरह का हमला निंदनीय है।

हाल के वर्षों में दुर्भाग्य से कुछ आपराधिक घटनाएँ भारत के अलग-अलग शहरों के विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे अफ्रीकी विद्यार्थियों तथा लोगों के साथ घटित हुई हैं, जो निंदनीय हैं। पूर्व में घटित ऐसी कुछ घटनाओं को कुछ अफ्रीकी छात्र नस्लीय हमले के तौर पर देखते हैं, जबकि यहाँ की सरकार तथा स्थानीय प्रशासन ऐसी घटनाओं को आपराधिक घटनाएँ मानते हैं। यह सच है कि विदेशों में किसी भारतीय विद्यार्थियों या नागरिकों के साथ ऐसे मामले घटित हों या फिर किसी विदेशी विद्यार्थियों या नागरिकों के साथ भारत में हों, पुलिस तथा स्थानीय प्रशासन ऐसे मामलों को त्वरित गति से निवारण की कोशिश करते हैं।

ऐसे हमले न केवल विदेशी विद्यार्थियों के मन में किसी विशेष देश में जाकर अध्ययन के प्रति निरुत्साहित करते हैं, बल्कि उस विदेशी विद्यार्थियों की प्रताडऩा के लिए बदनाम हो रहे देशों को भी आर्थिक नुक़सान पहुँचते हैं। कुछ लोगों को लगता है कि ऐसी घटनाओं को किसी देश की सरकार बढ़ावा देती है, यह सोच पूरी तरह से गलत है। चाहे ऐसी घटनाएँ विदेशों में घटें या फिर भारत के किसी शहर में, इसके लिए या तो कोई व्यक्ति ज़िम्मेदार होता है या फिर कुछ समूह। ऐसी घटनाएँ किसी भी सभ्य लोकतांत्रिक देश में घटित नहीं होनी चाहिए।

(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोधार्थी हैं।)