पटरी पर लौटने की राह पर अर्थ-व्यवस्था

क्या हम अर्थ-व्यवस्था के सबसे बुरे दौर से गुजर चुके हैं और क्या अब आगे इससे उबरने की राह सुनिश्चित है? इस सवाल का कोई सटीक जवाब नहीं मिला है। लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की हालिया रिपोर्ट में ऐसे संकेत मिले हैं कि अगले वित्त वर्ष यानी 2021-22 में आर्थिक क्षेत्र में तेज़ी से उछाल दर्ज किया जाएगा। आईएमएफ ने कहा है कि भारत की अगले वित्त वर्ष में विकास दर दो अंकों में रहेगी।

आरबीआई ने कहा है कि हाल ही में वृहद आर्थिक परिदृश्य में बदलाव ने बेहतर विकल्प और परिणाम के संकेत दिये हैं। इससे सकल घरेलू उत्पाद में सकारात्मक कदम और मुद्रास्फीति के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। वित्तीय बाज़ार मज़बूत पोर्टफोलियो प्रवाह के बावजूद सुस्त बना हुआ है। केंद्रीय बैंक के मुताबिक, भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के रिकॉर्ड वार्षिक प्रवाह प्राप्त करने के ट्रैक पर है। यदि ये गतिविधियाँ बनी रहती हैं, तो पुनर्बढ़त (रिकवरी) का समर्थन करने के विकल्प खुल सकते हैं। नये साल की शुरुआत दुनिया भर के देशों में बड़े पैमाने पर कोरोना टीकाकरण अभियान के साथ हुई और महसूस किया गया कि सबसे बुरा दौर अब पीछे छूटने वाला है।

आरबीआई ने कहा है कि हाल के उच्च आवृत्ति संकेतकों से पता चलता है कि अर्थ-व्यवस्था मज़बूत हो रही है और जल्द ही यह सन्तोषजनक स्थिति में होगी। दिसंबर, 2020 के जारी आँकड़ों में  ई-वे बिलों की संख्या सबसे अधिक थी, साथ ही जीएसटी संग्रह भी अब तक का रिकॉर्ड स्तर पर दर्ज किया गया। इससे पता चलता है कि कमायी और खर्च अब त्योहार तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि यह एक आंतरिक गति के पंखों पर फीनिक्स की तरह बढ़ रहा है।

केंद्रीय रिजर्व बैंक का बयान एक अच्छी खबर क्यों है? विभिन्न क्षेत्रों द्वारा विकास और गिरावट दिखाते हैं कि भारत सुधारों की राह पर है। देखा गया कि कोविड-19 के कारण पर्यटन उद्योग सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ। फिक्की-यस बैंक की रिपोर्ट में कहा गया कि भारत पर्यटन के साथ ही बिजलीघर के लिए दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा बाज़ार है। भारत में पर्यटन का सकल घरेलू उत्पाद का 9.2 फीसदी है और इसने सन् 2018 में 2.67 करोड़ नौकरियों के सृजन के साथ 247.3 अरब अमेरिकी डॉलर का कारोबार किया। वर्तमान में यह जीडीपी में योगदान के मामले में 8वाँ सबसे बड़ा देश है।

रिपोर्ट के अनुसार, साल 2029 तक पर्यटन के क्षेत्र में लगभग 5.3 करोड़ लोगों को रोज़गार मिलने की उम्मीद है। सन् 2019 में भारतीय खुदरा उद्योग का मूल्य 790 अरब अमेरिकी डॉलर था। यह देश के सकल घरेलू उत्पाद का 10 फीसदी है और करीब आठ फीसदी लोगों को रोज़गार मुहैया कराता है। पिछले कुछ वर्षों में ऑनलाइन रिटेल (संचार माध्यम से फुटकर बिक्री) में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है। एक अनुमान के मुताबिक, पिछले साल ऑनलाइन रिटेल में 30 फीसदी की बढ़ोतरी हुई।

खुदरा (फुटकर) क्षेत्र में दबी हुई माँग में बहुत तेज़ी से उबारने की प्रवृत्ति होती है और लॉकडाउन हटने के बाद इस सेक्टर के उबरने में मदद मिलेगी। लॉकडाउन अवधि के दौरान देश के कुछ हिस्सों में ऑनलाइन रिटेल चालू था और इससे उद्योग के लिए कुछ नुकसानों को दूर करने में मदद मिली, जो आगे भी मिलेगी। कुछ सेक्टर सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए, जैसे- (सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम) एमएसएमई; लेकिन खेती ने इनको राहत पैकेज प्रदान किये। हालाँकि विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को अपनी विकास गति को हासिल करने के मानकों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। समान विकास के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा तक सभी की समान पहुँच एक महत्त्वपूर्ण शर्त है। कोविड-19 महामारी ने भारत में नीति-निर्माताओं को बता दिया है कि शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों को अहमियत देनी होगी। महामारी ने श्रम सुधारों की प्रक्रिया को तेज़ करने का अवसर प्रदान किया है। श्रम सुधारों के साथ वित्तीय समावेशन में मदद मिलेगी, यानी इससे मज़दूरी भी बढ़ेगी साथ ही बेरोज़गारी भी कम होगी। वर्तमान हालात से इतर पहले भारत में सामाजिक सुरक्षा के हिसाब से नीतियाँ बनती थीं। गरीब और कमज़ोर तबका ही लोगों के यहाँ काम करता था। इसमें लोगों को भिक्षा के तौर पर भोजन देना भी संस्कृति का एक हिस्सा था। लेकिन कोविड-19 और लॉकडाउन जैसे संकट ने लोगों को नये सिरे से सोचने को मजबूर कर दिया है। संकट के समय में सरकारों की बजाय पीडि़तों की मदद का एक बड़ा हिस्सा खुद लोगों ने बढ़-चढ़कर दिया; जो समुदाय आधारित सामाजिक सुरक्षा की याद दिलाता है। देश में सभी के लिए राज्य-प्रायोजित सामाजिक सुरक्षा को अभी विकसित किया जाना बाकी है।

भारत में उन्नत डिजिटल तकनीक की उपलब्धता से आसानी से पुन: उन्नति सम्भव है। सनद रहे कि पिछले साल कोरोना के आने के साथ ही केंद्र सरकार ने अचानक लॉकडाउन का ऐलान कर दिया था। इससे बड़ी संख्या में प्रवासी श्रमिक बड़े शहरों से पलायन करने को मजबूर हुए और इसके बाद विकट परेशानियों का सिलसिला शुरू हुआ। श्रमिकों की परेशानियों, भूख-प्यास और मजबूरियों ने हर संवेदनशील शख्स को झकझोर दिया था। हालाँकि कई मामलों में सरकार की असंवेदनशीलता  और गैर-ज़िम्मेदाराना रवैये ने लोगों को असन्तुष्ट भी किया।