पंजाब में राजनीतिक हलचल; अकाली-बसपा गठबंधन बना, कांग्रेस के कदम का इन्तज़ार  

पंजाब में विधानसभा चुनाव को अभी करीब एक साल है लेकिन वहां राजनीतिक गतिविधियां अचानक तेज होती दिख रही हैं। कांग्रेस में चल रही लड़ाई को ख़त्म करने के लिए जहा सोनिया गांधी की बनाई कमेटी ने अपनी रिपोर्ट उन्हें सौंप दी है, भाजपा और अकाली दल भी सूबे में सक्रिय हो गए हैं। अकाली दल ने भाजपा से छिटकने के बाद अगले साल के चुनाव के लिए शनिवार को आनन-फानन मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) से गठबंधन कर सीटों का बटबारा भी कर लिया। किसान आंदोलन से बदली पंजाब की राजनीति में अकाली दल और भाजपा के अलावा केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) लिए निश्चित ही बड़ी चुनौतियाँ विधानसभा चुनाव में रहेंगी।
पहले बात अकाली दल-बसपा के गठबंधन की करते हैं। पंजाब में कुल 117 सीटें हैं  को अकाली दल ने 20 सीटें दी हैं। सत्ता से बाहर आने के बाद अकाली दल में काफी बेचैनी रही है। पार्टी को चला रहे पूर्व उप मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल को डर है कि अगले चुनाव में भी पार्टी की हार उन्हें बहुत महंगी पड़ सकती है, लिहाजा वे अभी से जीत सकने वाले तमाम उपाय आजमाना चाह रहे हैं।
भाजपा से उसका गठबंधन टूट चुका है लेकिन अगले चुनाव तक क्या स्थिति बनेगी, अभी कहना मुश्किल है। हो सकता है परिस्थितियां देख दोनों फिर साथ आ जाएँ। वैसे शनिवार को अकाली दल और बसपा का समझौता हुआ है, उसमें इतनी गुंजाइश है कि भविष्य में यदि भाजपा से अकाली दल के रिश्ते बेहतर हों तो भाजपा को 20-21 सीटें वह दे सकता है।
गठबंधन के बाद अकाली दल अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने भले कहा कि आज पंजाब की राजनीति में एक नया दिन है, उन्हें पता है कि किसान आंदोलन से उपजी राजनीति अभी भी उनके रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा है। अकाली दल ने पिछले साल जब मोदी सरकार से नए कृषि कानूनों को लेकर नाता तोड़ा था, तब तक काफी देर हो चुकी थी क्योंकि इससे पहले केबिनेट की जिस बैठक में इन कृषि बिलों को मंजूरी दी गयी थी, उसमें अकाली दल की मंत्री हरसिमरत कौर उपस्थित थीं। हरसिमरत सुखबीर बादल की पत्नी हैं।
इससे पहले 1996 में बसपा और एसएडी दोनों ने गठबंधन में लोकसभा चुनाव लड़ा था और 13 में से 11 सीटों पर जीते थे। हालांकि, अब हालत बदले हुए हैं। पंजाब की आबादी में करीब 33 फीसदी दलित हैं जिनपर बदल की नजर है। यह दलित ज्यादातर (73 फीसदी) ग्रामीण इलाकों में हैं। हालांकि, भाजपा और कांग्रेस भी इन पर नजर रखे हुए हैं।
मायावती ने बसपा महासचिव सतीश मिश्रा शुक्रवार को चंडीगढ़ भेजा था। और आज दोनों दलों में गठबंधन हो गया। अकाली-बसपा गठबंधन का सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा को होगा, जिसे अकाली दल से बाहर आने के बाद अभी ज़मीन तैयार करनी है। आप के तीन विधायक हाल में कांग्रेस में चले गए थे, लिहाजा उसके लिए भी संकट कम नहीं है। हो सकता है भाजपा दूसरे दलों से तोड़फोड़ करे, जैसा कि उसने दूसरे प्रदशों में चुनावों से पहले किया है।
अब हो सकता है कांग्रेस कमेटी की सिफारिश के आधार पर किसी दलित को पंजाब में उपमुख्यमंत्री बना दे। नवजोत सिंह सिद्धू को लेकर कांग्रेस आलाकमान का फैसला आने वाला है। सिद्धू भी उपमुख्यमंत्री बनना चाहते हैं। कांग्रेस किसी दलित को उपमुख्यमंत्री बना देती है तो निश्चित ही इससे अकाली दल परेशान होगा। उसका बसपा से मिलकर बनाया दलित कार्ड इससे फ्लॉप हो सकता है।
कांग्रेस का किसान आंदोलन के वक्त कुछ ऐसा रोल रहा है कि वे उससे सबसे कम नाराज दिखते हैं। यदि वह चुनाव से पहले दलित समुदाय को उपमुख्यमंत्री पद का तोहफा दे देती है तो जाहिर है यह उसका ट्रम्प कार्ड होगा। इससे अकाली दल अगले चुनाव में कांग्रेस पर दलितों की ‘अनदेखी’ का आरोप नहीं लगा पायेगा। अकाली दल ने कांग्रेस के फैसले से पहले ही बसपा से समझौता करके शायद राजनीतिक चूक की है। उसे इन्तजार करना चाहिए था ताकि उसके फैसले का ज्यादा इम्पैक्ट होता।
जहाँ तक कांग्रेस की बात है सोनिया गांधी की कमेटी की रिपोर्ट पर अमल का सबको इन्तजार है। हो सकता है कांग्रेस पंजाब में किसी गैर सिख दलित को उपमुख्यमंत्री बना दे। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी बनाया जा सकता है। सिद्धू अगले चुनाव में प्रचार समिति का अध्यक्ष बनने को भी एक ऑप्शन के रूप में कमेटी के सामने रख चुके हैं। देखते हैं क्या फैसला आता है।