न हन्यते! चला गया हिन्दी सिनेमा का ‘जेंटलमैन’

150 से ज़्यादा हि’दी फिल्मों में अभिनय करने के अलावा, मराठी, हिन्दी और गुजराती के 40 नाटकों में शीर्ष भूमिकाएँ निभाने वाले डॉ. श्रीराम लागू की असल पहचान सिनेमा के लिए नहीं, बल्कि मराठी रंगमंच के साथ उनके जुड़ाव के लिए होती है। लागू के नाटक ‘नटसम्राट’ के आधार पर नाना पाटेकर अभिनीत ‘नटसम्राट’ िफल्म बनी और खूब चर्चित रही। वहीं गुजराती में भी इसका िफल्मांकन हुआ। इसमें ‘रामायण’ की सीता दीपिका चिखलिया ने प्रमुख भूमिका निभायी।

वैसे यह बहुत बाद की बात है। श्रीराम लागू के अभिनय का चरमोत्कर्ष ‘घरौंदा’, ‘किनारा’, ‘इनकार’, ‘इंसाफ का तराज़ू’, ‘मेरे साथ चल’, ‘सामना’, ‘वो आहट : एक अजीब कहानी’, ‘दौलत’, ‘साजन बिना सुहागन’, एक दिन अचानक’ और ‘एक पल’ जैसी िफल्मों में देखने को मिलता है। एक और िफल्म याद आती है- ‘लावारिस’, जिसमें बेसहारा बालक (अमिताभ बच्चन) को पाल-पोसकर बड़ा करने वाले मवाली के रूप में उन्होंने जिस कदर जज़्बाती अदाकारी की, वह देखने लायक है। हिन्दी सिनेमा के यही ‘जेंटलमैन’ डॉ. श्रीराम लागू 92 साल की उम्र में दुनिया से चले गये। उनका आकस्मिक अवसान बरसों तक िफल्मी सिनेमा के दीवानों और िफल्मी सितारों कचोटता रहेगा।

पाठक सवाल कर सकते हैं कि मराठी और हिन्दी सिनेमा के मशहूर एक्टर, डॉ. लागू को हम जेंटलमैन क्यों कह रहे हैं? जबकि उन्होंने बतौर खलनायक दर्जनों भूमिकाएँ निभायी हैं और अपने अभिनय से दर्शकों को न सिर्फ मंत्रमुग्ध किया, बल्कि रोमांचित भी किया है। तो इसका जवाब है कि डॉ. लागू िकरदार निभाते वक्त चाहे साधु दिखेें या शैतान, उनके व्यक्तित्व की समग्र पहचान संत सरीखी थी। एक सभ्य, सुसंस्कृत इंसान, जिनके लिए रंगमंच और कला-संस्कृति की दुनिया सबसे बड़ी थी। हालाँकि अन्ना हजारे के आंदोलन का समर्थन करने को उनकी राजनीतिक चेतना का उदाहरण भी माना जा सकता है।

अब इस बात पर कौन यकीन करेगा कि मराठी थिएटर के असली ‘नटसम्राट’ माने गये डॉ. लागू पहली बार भावे स्कूल, पुणे में मंचित नाटक में अभिनय करते हुए बेहद नर्वस हो गये थे। वे इस कदर डरे हुए थे कि उन्होंने कह दिया था- ‘बाबा रे बाबा, अब कभी एक्टिंग नहीं करूँगा!’ सच यह है कि लागू तब बहुत कम उम्र के थे और उन्हें एक्टिंग करने के लिए अध्यापकों द्वारा कहा गया था, जबकि वे तैयार नहीं थे। तब उन्हें कहाँ पता रहा होगा कि अदाकारी की डोर के साथ •िान्दगी जो जुड़ गयी है, वह आिखरी साँस तक टूटेगी नहीं।

मास्टर दीनानाथ, ग्रेटा गरबो, नानासाहब पाठक, इंग्रिड बर्गमैन, मामा पेंडसे, केशवराव दाते, नोरमा शियरर पॉल मुनि, स्पेंसर ट्रेसी और लॉरेन ओलिवर सरीखे देशी-विदेशी कलाकारों से डॉ. लागू ने प्रेरणा हासिल की और उनके अभिनय की बारीिकयों को अदाकारी में भी उतारा।

मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई के दौरान उनकी अभिनय प्रतिभा में और निखार आया। ईएनटी में पीजी करने के बावज़ूद लागू ने तय कर लिया था कि •िान्दगी को अभिनय की राह पर आगे बढ़ाना है। वे मेडिकल प्रैक्टिस करते रहे और साथ में अभिनय क्षेत्र से जुड़े रहे। ‘प्रोग्रेसिव ड्रामेटिक एसोसिएशन’ के साथ रुचि को विस्तार दिया।

16 नवंबर, 1927 को महाराष्ट्र के सतारा में जन्मे श्रीराम लागू को इस फन में महारत हासिल थी कि कैरेक्टर को रूह में किस तरह उतारकर जिया जाता है। भले वे सम्माननीय नागरिक का िकरदार निभा रहे हों या फिर छिछोरे मवाली का; वे जानते थे कि दर्शक को आपके निजी जीवन से नहीं, बल्कि अभिनय से मतलब होता है।

अफ्रीका में तीन साल के प्रवास के दौरान डॉ. लागू नाटकों से दूर रहे (अफ्रीका में भी चिकित्सक के तौर पर सक्रिय थे)। इस दौरान उन्हें लगा कि नाटक न करना उनकी •िान्दगी में बहुत गलत चीज़ होना है। इस तरह तो काम नहीं चलेगा। जैसे ही भारत लौटे, उन्होंने तय कर लिया कि दो नावों में पाँव नहीं रखेंगे  और अंतत: साल 1969 में पहले प्यार- थिएटर की तरफ हाथ बढ़ा दिया। उनका यह फैसला कम उम्र में या जोश में आकर लिया गया नहीं था; तब लागू 42 साल के हो चुके थे। ज़ाहिर-सी बात है, बल्कि आज भी यह बात तकरीबन सच ही है कि रंगमंच करके रोज़ी-रोटी की चिन्ता से पूरी तरह मुक्त नहीं हुआ जा सकता; लेकिन उन्होंने जो कुछ तय कर लिया, फिर उससे पीछे कभी नहीं हटे।

डॉ. लागू के शुरुआती शो फ्लॉप रहे; लेकिन ‘नटसम्राट’ की सफलता ने मुश्किलें आसान कर दीं। ‘काचेचा चंद्र’, ‘गिधाडे’, ‘हिमालयाची सावली’, ‘उध्वस्त धर्मशाला’ व ‘सीक्रेट्स’ जैसे नाटकों ने सफलता की राह बुलंद कर दी। साल 1972 में आयी मराठी िफल्म ‘पिंजरा’ में अभिनय याद किया जाता है। वी. शांताराम ने इसको हिन्दी में भी िफल्माया; लेकिन वह बुरी तरह असफल रही। बता दें कि सिने जगत में भी लागू को इसीलिए मौके मिले; क्योंकि वे नाटकों में सफल हो चुके थे। िफल्म ‘घरौंदा’ के लिए लागू को िफल्म फेयर अवॉर्ड से सम्मानित किया जा चुका है। विडंबनापूर्ण तथ्य है कि प्रभावी अदाकारी के बावजूद लागू को सिनेमा में पारम्परिक िकस्म के िकरदार ही मिल रहे थे। उन्होंने इस दबाव के बावजूद चाचा-पिता जैसी भूमिकाएँ चुनीं, फिर भी टाइपकास्ट होने से बचे रहे; क्योंकि एक जैसे रोल में उनके अभिनय का असर डिफरेंट होता था।

लागू मानते थे कि िफल्मों में काम करना स्टेज की तुलना में मुश्किल हो जाता है। थिएटर में तीन घंटे पूरे वक्त तक सक्रिय रहना होता है; जबकि िफल्में टुकड़ों में पूरी का जाती हैं। डॉ. लागू नश्वर संसार को विदा कहते हुए अपने पीछे अभिनेत्री पत्नी दीपा लागू, दो बेटों और एक बेटी को छोड़ गये हैं। उनकी स्मृति में हिन्दी और मराठी सिनेमा के अनगिनत दर्शक लम्बे समय तक शोकाकुल रहेंगे। तहलका परिवार की ओर से भी इस महान् कलाकार ‘जेंटलमैन’ को विनम्र श्रद्धांजलि!