न कभी प्रधानमंत्री सुन पाए, न मुख्यमंत्री

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री होने के बाद ही कहा था गंगा ने मुझे बुलाया है। हमें गंगा से कुछ नहीं चाहिए। हमें अब सिर्फ देना है। लेकिन उन्होंने जिम्मेदारी सौंपी साध्वी उमा भारती को। कुछ समय से नीतिन गडकरी यह काम देख रहे हैं। अब तक दो साधुओं ने गंगा के प्रति श्रद्धा होने के कारण खुद को उत्सर्ग कर दिया। लेकिन चुनावों में बहुमत से चुनी गई सरकार चाहे वे प्रदेश में हो या देश में, गंगा की सफाई के अपने ही आश्वासन पर अमल नहीं कर पाई।

अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार केंद्र में 1999 में बनी। उन दिनों टिहरी बांध बन चुका था। पुराना टिहरी शहर पानी में डूब चुका था। यह जानने के लिए कि क्या इस बोध से गंगा के आध्यात्मिक महत्व पर तो कोई असर नहीं होगा। उन्होंने मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की। जिसे यह पता लगाना था कि बांधों के असर से कहीं गंगा की अपनी धार्मिक, आध्यात्मिक ताकत तो नहीं खत्म हो जाएगी। फिर क्या अंदेशा है कि कभी भूकंप के आने पर क्या नकुसान संभव है। विश्व हिंदू परिषद के चार लोगों को भी कमेटी में रखा गया था।

इस कमेटी ने सुझाया था कि दस सेंटीमीटर (चार इंच) का एक पाइप बांध के अंदर रखा जाए तो गंगा की अविरलता कायम रहेगी और उसकी धार्मिक, आध्यात्मिक शक्तियां भी रहेंगी। यह बात शायद भुला दी गई कि नदी का पानी निरंतर प्रवाहित होता रहे क्योंकि यदि ऐसा नहीं हुआ तो पानी में उफान होने लगता है। बांध के पीछे बने रेजऱवायर में फिर गंगा की आध्यात्मिक ताकत कमज़ोर हो जाती है। गंगा में मछलियां ऊपर के इलाकों में जा नहीं सकती, इसलिए उनकी संख्या घटने लगती है। गंगा में कभी बहुलता से मिलने वाली महाशीर मछली टिहरी से ऊपर गंगा में नहीं मिलती। यह मछली कम होने का मतलब है कि पानी में गुणवत्ता नहीं रही इसने भूकंप के अंदेशे से भी इंकार नहीं किया।

सानंद स्वामी यानी डाक्टर जीडी अग्रवाल, प्रोफेसर आईआईटी कानपुर कहते हैं कि लोहारी नागपाल, भैरव घाटी और पाल मनेरी बांधों का निर्माण डाक्टर मुरली मनोहर जोशी की रिपोर्ट के बाद शुरू हुआ। उनका मानना है कि जब विश्व हिंदू परिषद इस बात के लिए राजी हुई कि टिहरी बांध के निर्माण से गंगा की आध्यात्मिक शक्ति तिरोहित नहीं होगी। उसके बाद गंगा पर दूसरे बांध बनने शुरू हुए।

हालांकि जोशी रपट कुल मिलाकर टिहरी बांध के बारे में ही थी लेकिन इस ने गंगा पर दूसरी परियोजनाओं को हरी झंडी दिखा दी।

2009 में पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने नेशनल रीवर बेसिन अथॉरिटी (एनजीबीआरए) का 2009 में गठन किया। जब 2014 में भाजपा की सरकार बनी तो उन्होंने (एनजीबीआरए) में फिर उलट फेर किया। नई व्यवस्था में इस अथॉरिटी में सिर्फ मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री हैं। जबकि पहले उसमें पर्यावरण विशेषज्ञ, पत्रकार और राजनेता थे। देश की सात आईआईटी संस्थानों के समूह को गंगा रीवर बेसिन में मैनेजमेंट प्लान बनाने का कहा गया था।

मनमोहन सिंह ने पाला मनेरी, भैरवघाटी और जोहारी नागपाल पन बिजली परियोजनाओं को रद्द कर दिया था जो भागीरथी नदी पर बन रही थीं। (भागीरथी नदी गंगा की ही एक मुख्य सहायक नदी है।)

केंद्रीय जल संसाधन मंत्री नितिन गडकरी ने घोषणा की है कि उनकी सरकार बंद परियोजनाओं की फिर शुरूआत करेगी। कोई नए प्रोजेक्ट गंगा पर शुरू नहीं होंगे। लेकिन जो काम शुरू हो चुके हैं। वे चलते रहेंगे।

जबकि आईआईटी संस्थानों के समूह ने गंगा प्रबंधन की योजना 2015 में केंद्र सरकार को सौंप दी। इस में कहा गया था कि देशांतरीय संपर्क (लॉगिट यूनियन कनक्टिविटी) या गंगा का प्रवास बिना रोक टोक जारी रहे यह बेहद ज़रूरी है। इसमें यह भी व्यवस्था की कि तमाम पन बिजली और सिंचाई परियोजनाओं  को पानी का कुछ प्रतिशत ही दिया जाए जिससे पर्यावरण न बिगड़े।

आईआईटी संस्थानों की रपट में कहा गया है कि यदि किसी भी परियोजना पर काम करते हुए गंगा नदी पर लॉगिट यूनियन कनक्टिविटी पर बाधा पड़ती है भले ही नदी पर बांध हो या बैरेज, उसकी अनुमति न दी जाए। मोदी सरकार ने उस रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं की है।

उधर सीएजी ने इस संबंध में कहा है कि स्वच्छ गंगा की मुहिम को दीर्घकालिक एक्शन प्लैन से अंतिम रूप नहीं दिया जा सकता। भले ही आईआईटी समूह से हुए दस्तखत को साढ़े छह साल से ज्य़ादा बीत चुके हो। नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी नोटीफिकेशन को जारी हुए आठ साल से ज्य़ादा हो चुके हों। मनमोहन सिंह सरकार ने बीके चतुर्वेदी की अध्यक्षता में गंगा पर बन रही तमाम पन बिजली और सिंचाई परियोजनाओं  की समीक्षा के लिए एक कमेटी बना दी। इस कमेटी ने रपट दी कि गंगा पर जो भी हपन बिजली और सिंचाई परियोजनाएं चल रही हैं उन्हें 20-30 फीसद पानी छोडऩा पड़ेगा।

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में केरल सरकार ने कहा कि पर्यावरण मंत्रालय, वन और जलवायु परिवर्तन (एनओएफसीसी) की यह सलाह है कि न्यूनतम 20 से फीसद तो साधारण प्रवाह के दौरान 20 से 30 फीसद असाधारण में होनी चाहिए। इससे यह जाहिर होता है कि एमओईएफसीसी ने चतुर्वेदी कमेटी की सिफारिशें नई परियोजनाओं के लिए मान ली हैं। लेकिन अफसोस मोदी सरकार ने टेहरी, विष्णु प्रयाग, मनेर भाली और श्रीनगर के चल रही परियोजनाओं में भी नहीं मानी है।

गंगा पर माल ढुलाई की योजना बहुत पुरानी है। लेकिन इसे अमल में लाने के लिए मनमोहन सिंह सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया। नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभालते ही सितंबर 2014 में इस पर अमल शुरू कराया। नेशनल वाटर वे-1 जारी किया गया। विश्व बैंक से कजऱ् लिया गया और इस पर अमल तेज़ी से हो रहा है। मोदी सरकार ने यह स्थिति बना दी है कि परियोजनाओं को मंत्रालय से कोई अनुमति आवश्यक नहीं है।

जहां तक सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स की बात है मोदी सरकार के दौर मेें स्थिति कुछ बेहतर है। सरकार इसमें पैसा लगा भी रही है लेकिन हरिद्वार, आगरा और वाराणसी जैसे शहरों का सीवेज गंगा में ही जा रहा है।

आईआईटी समूह ने सलाह दी थी कि गंगा को साफ रखा जाए। उसके जल का इस्तेमाल सिंचाई में हो लेकिन पढऩे वाली आंखे और सुनने वाले कान कहां हैं?