धर्मों का चक्कर

सत्य की हिमायत तो लोग करते हैं; लेकिन सत्य से साक्षात्कार करना कोई नहीं चाहता। सत्य पर चलना कोई नहीं चाहता। हालाँकि ऐसा भी नहीं है कि कोई सत्य पर नहीं चलता; लेकिन कितने लोग? एक या दो प्रतिशत ही होंगे। उनके भी पूर्णत: सत्य पर टिके होने में सन्देह है। क्योंकि किसी भी व्यक्ति में अच्छाई या बुराई का स्तर 100 प्रतिशत नहीं हो सकता। इसलिए कहा जाता है कि दिन भर झूठ बोलने वाला व्यक्ति भी 24 घंटे में एक बार सत्य ज़रूर बोलता है। अधिकतर लोग धर्म की परिक्रमा तो करना चाहते हैं; लेकिन उसे स्वयं में आत्मसात् नहीं करना चाहते। यही कारण है कि लोग सत्य पर टिके नहीं रह पाते।

धर्म के पालन करने वालों का भी यही हाल है। ज़्यादातर लोग धर्म के चक्कर में तो रहते हैं; लेकिन धर्म को आत्मसात् नहीं करते। इसी वजह से वे भटके रहते हैं। हर धर्म में भेड़ चाल से चलने वालों की संख्या बहुत ज़्यादा है। जिस कुएँ में आगे वाला गिर रहा है, उसी में एक-एक करके सब गिरते जा रहे हैं। किसी को न अपनी सुध है और न धर्म का ज्ञान। सब गोल-गोल घूम रहे हैं। यह सब ठीक वैसे ही हो रहा है, जैसे कि किसी घड़े के चारो ओर चींटियाँ घूम रही हों और ऐसा लग रहा हो, मानो चींटियाँ नहीं, बल्कि घड़ा घूम रहा हो। लेकिन ऐसा होता नहीं है। यह किसी भी धर्म को बिना आत्मसात् किये उसकी अंधभक्ति जैसा ही होता है। इसका परिणाम कितना ख़तरनाक हो सकता है, इसे समझने के लिए घड़े के चारो ओर घूम रही चींटियों की गति (अन्त) को समझना होगा।

चींटियाँ हमेशा एक गंध भर रास्ता बनाकर चलती हैं, जिसे फेरोमोन ट्रैक कहते हैं। इस ट्रैक पर चलने वाली हर चींटी अपने से आगे चलने वाली चींटी अथवा आगे वाली दो-चार चींटियों का ही अनुसरण करती करती है। उस चींटी को बिना इधर-उधर देखे, सीधे उसके पीछे-पीछे चलने में ही अपनी मंज़िल दिखायी देती है। अगर किसी वजह से फेरोमोन ट्रैक खो जाए या कोई चींटी रास्ते से भटक जाए, तो उसके पीछे वाली चींटी उसी के पीछे-पीछे भटक जाती है और उसके पीछे वाली चींटियाँ भी इसी तरह भटक जाती हैं।

अंतत: भेड़ों की ही तरह चींटियों का भटकना तय होता है और ये चींटियाँ एक डेथ स्पायरल में घूमने लगती हैं। इस घटना को एंट मिल कहते हैं, जो अन्त में चींटियों की मौत की वजह बनती है। क्योंकि चींटियाँ बदहवास होकर एक-दूसरे के पीछे चलती रहती हैं और अपनी मंज़िल पर पहुँचने की चाह में बस केवल घूमती रहती हैं। इस तरह वे फिर थककर चूर हो जाती हैं। इसके बाद भी वे चलती रहती हैं और भूख-थकान के चलते उनकी मौत हो जाती है। इसीलिए इसे डेथ स्पायरल कहा जाता भूख में चलते-चलते जब थककर चूर हो जाती हैं, तो स्वत: ही मरने लगती हैं।

आज दुनिया भर में बन चुके तमाम धर्मों के लोगों का भी यही हश्र हो रहा है। हर कोई धर्म के मर्म को समझे बिना ही अपने से आगे वाले के पीछे चल रहा है। इस तरह सब आँखें मूँदे बस एक-दूसरे का अनुसरण कर रहे हैं। सब अपने-अपने धर्म की एक भीड़ बनाकर एक-दूसरे के पीछे-पीछे चल रहे हैं। इस तरह ईश्वर प्राप्ति की जगह सभी को एक अन्धी मौत मिल रही है। इसे अंधभक्ति कहना अनुचित नहीं होगा। अंधभक्ति के नु$कसान बड़े-बड़े हैं; लेकिन दिखते किसी को नहीं। इन नु$कसानों को जो समझ जाता है, उसे लोगों की इस मूर्खता पर हँसी आती है और वह ख़ुद को इस धर्मांधता पर भटकने वाली भीड़ से ख़ुद को अलग कर लेता है। ऐसे लोगों का विरोध भी होता है; लेकिन बहुत लम्बे समय तक नहीं। आने वाली पीढिय़ाँ उसके तर्क को समझने का प्रयास करती हैं। लेकिन ऐसे लोगों का अनुसरण करने वालों के पीछे चलने वाले भी आख़िर वही काम करने लगते हैं, जो किसी धर्म या विचार के अनुयायी कर रहे होते हैं। इसी के चलते संसार में एक-एक करके कई धर्म और कई पंथ तैयार हो चुके हैं। अगर यह सिलसिला नहीं थमा, तो भविष्य में कई नये धर्म और पंथ और बनेंगे। ध्यान रहे, संसार में जितने धर्म और पंथ बनेंगे, मानवता को उतना ही ख़तरा बढ़ेगा। भेदभाव और बँटवारे की खाई उतनी ही गहरी होगी।

लोगों को समझना होगा कि धर्म एक व्यवस्था है, जो लोगों को $गलत करने से रोकने के लिए है। धर्म का मार्ग लोगों को मानवता की ओर अग्रसर करता है। लेकिन लोगों ने धर्म को अपना पथ-प्रदर्शक न मानकर उसे आस्था के स्वरूप में स्वीकार कर लिया है। इसका परिणाम यह है कि लोग स्वयं का लोक-परलोक सुधारने के लिए जिस धर्म की शरण में आते हैं, उसका झण्डा ऊँचा करने के लिए उसी धर्म की व्यवस्थाओं को ध्वस्त करने में संकोच नहीं करते। इन लोगों को धर्म की रक्षा का ठीक वैसा ही भ्रम होता है, जैसा भ्रम बैलगाड़ी के नीचे चल रहे कुत्ते को होता है कि बैलगाड़ी तो उसी के दम पर चल रही है।