झारखण्ड में हडिय़ा-दारू कानून अवैध, लेकिन परम्परा में वैध

झारखण्ड में रहने वाले या राज्य के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी रखने वाले सभी लोग हडिय़ा-दारू शब्द से वािकफ हैं। क्योंकि राज्य में हडिय़ा-दारू आम बात है। बड़े-तो-बड़े बच्चे तक इसके बारे में जानते हैं। गाँव-देहात क्या, बीच शहर में भी यह खुलेआम सड़क किनारे बिकती है। दरअसल झारखण्ड में हडिय़ा-दारू भले ही कानून अवैध हो, लेकिन परम्परा में यह वैध है और कानून पर परम्परा इतनी भारी है कि इसकी बिक्री को सरकार के लिए रोक पाना आसान नहीं है। इसलिए सरकार कानूनी रूप से नहीं, लोगों में जागरूकता फैलाकर इस अभिशाप से मुक्ति का रास्ता अपनाने का प्रयास कर रही है।

हडिय़ा परम्परा और सांस्कृतिक विरासत

हडिय़ा आदिवासियों की परम्परा और सांस्कृतिक विरासत का एक हिस्सा है। इसमें चावल के साथ-साथ सात तरह की जड़ी-बूटी मिलायी जाती है। ये जड़ी-बूटी मेडिसनल प्लांट की होती हैं। चावल को पकाने के बाद इसे ठंडा किया जाता है। चावल के अलावा गेहूँ व मडुवा भी मिलाया जाता है। रानू, धतूर समेत अन्य जड़ी-बूटियाँ पीसकर पके हुए चावल में उन्हें मिलाया जाता है। इसके बाद इस पके हुए चावल को किसी बर्तन (खासकर मिट्टी के बर्तन) में तीन-चार दिन किण्वन, एक तरह के ठण्डे ज़मीनी उबाल (फर्मेंटेशन) के लिए रख दिया जाता है। तीन-चार दिन बाद इसमें पानी मिलाकर हडिय़ा-दारू तैयार की जाती है।

आदिवासी समाज के लिए आम पेय पदार्थ

राज्य के आदिवासी समाज में हडिय़ा-दारू को एक अच्छा पेय पदार्थ माना जाता है। आदिवासियों ने इसके मूल रूप में पोषण का ध्यान रखा है। आदिवासी समाज और हडिय़ा व महुआ पर रिसर्च करने वाली राज्य महिला आयोग की पूर्व सदस्य वासवी किड़ो कहती हैं कि पारम्परिक रूप से जो हडिय़ा तैयार की जाती है, वह स्वास्थ्य के लिए अच्छी होती है। इसमें जिस रानू को मिलाया जाता है, उसमें हाई कैलोरी होती है। साथ ही यह प्रोटीन का भी अच्छा स्रोत है। किड़ो ने कहा असल में आदिवासियों का यह खास पेय रोज़मर्रा की ज़रूरतों या फिर नशे के लिए नहीं बनाया गया, बल्कि इसे खासतौर पर घर में किसी धार्मिक आयोजन के लिए या फिर मेहमानों के लिए बनाया जाता रहा है। खेती या मेहनत का काम करने वालों के बल, खासकर रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए हडिय़ा, जिसे कुछ लोग हडिय़ा-दारू भी कहते हैं; दी जाती रही है। यह पीलिया, डायरिया, ब्लड प्रेशर, डिहाइड्रेशन जैसी कई बीमारियों को ठीक करती है।

विकृत होकर जुड़ गया दारू शब्द

राज्य में आम बोलचाल की भाषा में हडिय़ा के साथ दारू शब्द जुड़ गया है। लेकिन हडिय़ा अलग और दारू अलग शब्द है। आदिवासी परम्परा में केवल हडिय़ा शब्द ही है। इसमें दारू शब्द इसलिए भी जुड़ गया, क्योंकि अब में हडिय़ा का उपयोग नशे के लिए भी होने लगा है। इसे व्यावसायिक रूप देने के लिए जड़ी-बूटी की जगह स्प्रीट, यूरिया व अन्य नशे का सामान मिलाया जाने लगा। इसके अलावा नशे के लिए अधिक मात्रा में धतूर व अन्य जंगली फल-फूल का इस्तेमाल होने लगा और जड़ी-बूटी की मात्रा कम होती गई। तब इस शब्द के साथ दारू जुड़ गया। अब हडिय़ा-दारू शब्द प्रचलन में आ गया है।

महिलाओं के लिए रोज़गार का ज़रिया

हडिय़ा-दारू का प्रयोग जब नशे के लिए होने लगा, तो इसने एक व्यावसायिक रूप ले लिया। राज्य में लोग अवैध रूप से विभिन्न जगहों पर बड़े पैमाने पर इसे बनाने लगे। धीरे-धीरे अनेक गरीब महिलाएँ अपना परिवार चलाने के लिए इस व्यवसाय से जुड़ गयीं। रोज़गार के लिए छोटे-छोटे स्तर पर हडिय़ा तैयार करने लगी।

महिलाएँ ही इस पेशे से ज़्यादा जुड़ी हैं और राज्य में खुले रूप से ज़्यादातर जगहों पर हडिय़ा-दारू महिलाएँ ही इसे बेचती हुई नज़र आती हैं। वे छोटे स्तर पर थोड़ा पारम्परिक और थोड़ा नया स्वरूप देकर अपने ही घर में हडिय़ा तैयार कर बेचती हैं। हडिय़ा बेचने वाली एक महिला ने बताया कि एक गिलास हडिय़ा 10 रुपये में बिकता है। एक दिन में दो-तीन सौ रुपये की कमायी हो जाती है। इससे घर का खर्च चलता है। बच्चों को पढ़ाती भी हूँ। महिला ने कहा यह काम करना अच्छा नहीं लगता। लेकिन दूसरा काम शुरू करने के लिए पैसे नहीं हैं। अगर दूसरा रोज़गार मिल जाए, तो इस काम को छोड़ दूँ।

हडिय़ा-दारू के खिलाफ महिलाओं ने ही छेड़ी जंग

राज्य में हडिय़ा के साथ-साथ महुआ का भी प्रचलन धीरे-धीरे बढ़ गया। हडिय़ा और महुआ को विकृत रूप देकर बड़े पैमाने पर इसे व्यवसायिक रूप देकर बेचा जाने लगा। इससे गरीब परिवार बर्बाद होने लगे। तब राज्य के कई गाँवों की महिलाएँ जागरूक हुईं और इसके खिलाफ आवाज़ बुलन्द करने लगी हैं। राज्य के कई हिस्सों में महिलाओं ने ही हडिय़ा-दारू के खिलाफ जंग छेड़ रखी है, जिसमें कई स्वयं सेवी संगठन भी मदद कर रहे हैं। महिलाएँ हडिय़ा-दारू को नष्ट करती हैं।

इसी क्रम में रांची से सटे एक गाँव आरा-केरम पूरी तरह से नशा मुक्त गाँव बन गया है। इस गाँव की चर्चा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों अपने मन की बात कार्यक्रम में भी की थी।

महिलाओं को रोज़गार से जोड़ रही सरकार

राज्य सरकार जानती है कि हडिय़ा-दारू को कानूनी रूप से दबाकर बन्द नहीं किया सकता है। नतीजतन सरकार हडिय़ा-दारू की खामियाँ बताकर, महिलाओं को रोज़गार देकर इससे मुक्ति का रास्ता तलाश रही है। सरकार ने हाल में तीन योजनाएँ शुरू की हैं। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा कि सरकार का संकल्प है कि हमारी माँएँ-बहनें सड़कों पर हडिय़ा-दारू नहीं बेचेंगी। इसके लिए उन्हें आत्मनिर्भर बनाया जाएगा। इसी के मद्देनज़र सरकार ने फूलो झानो आशीर्वाद योजना, आजीविका संवर्धन हुनर अभियान (आशा) और पलाश ब्रांड के ज़रिये ग्रामीण महिलाओं को रोज़गार से जोडऩे के लिए कार्यक्रम शुरू किये हैं।

हडिय़ा और दारू अलग-अलग शब्द हैं। पारम्परिक हडिय़ा स्वास्थ्य के लिए अच्छी होती है। साथ ही जड़ी-बूटी और महुआ के जो बाई प्रोडक्ट है, वह भी स्वास्थ्य के लिए अच्छा है। इसने धीरे-धीरे विकृत रूप ले लिया है। हडिय़ा-दारू के साथ महुआ की अवैध बिक्री रुकनी चाहिए। सरकार को इसके विकृत रूप को समाप्त कर वैध बनाना चाहिए। इसके बाई प्रोडक्ट पर ध्यान देना चाहिए। इसका बाई प्रोडक्ट काफी लाभदायक साबित होगा। महिलाओं को रोज़गार से जोड़कर ही इस पर काबू पाया जा सकता है।वासवी किड़ो

आदिवासी मामलों की जानकार व

पूर्व सदस्य, राज्य महिला आयोग

राज्य में हडिय़ा-दारू अवैध है। इसका बड़े पैमाने पर जहाँ भी निर्माण होता है, विभाग द्वारा कार्रवाई की जाती है। राज्य में समय-समय पर छापा मारा जाता। बड़ी मात्रा में अवैध रूप से चल रहे हडिय़ा-दारू को नष्ट किया जाता है। क्योंकि यह परम्परा में शामिल है, इसलिए छोटे-छोटे स्तर पर कार्रवाई सम्भव नहीं है। इसके लिए सरकार की ओर से जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है। महिलाओं को हडिय़ा-दारू बेचना छोड़कर दूसरे रोज़गार से जुडऩे के लिए प्रेरित किया जा रहा है। सरकार उन्हें दूसरा रोज़गार शुरू करने में भी मदद कर रही है।विनय कुमार चौबे

सचिव, उत्पाद एवं मद्य निषेध विभाग,

झारखण्ड