जम्मू-कश्मीर में बढ़ी सियासी गर्मी

जम्मू-कश्मीर फिर एक राजनीतिक दोराहे पर खड़ा दिख रहा है। वहाँ मुख्य-धारा के छ: राजनीतिक दलों ने गुपकार घोषणा करके केंद्र के खिलाफ लामबंदी कर ली है। घाटी में यह नये दौर का संकेत है। जम्मू-कश्मीर के केंद्रीय नेतृत्व के राजनीतिज्ञों और केंद्र के राजनीतिक नेतृत्व के इस टकराव से दिल्ली और श्रीनगर की राजनीतिक दूरी बढ़ी है। अनुच्छेद-370 खत्म करने के बाद मोदी नीत केंद्र सरकार के लिए यह पहली ऐसी चुनौती है, जिससे उसे पार पाना आसान नहीं होगा। इसी को लेकर विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की यह रिपोर्ट :-

कश्मीर घाटी के मौसम में ठण्ड घुलने लगी है; लेकिन सियासी पारा चढ़ रहा है। कश्मीर के कमोवेश सभी मुख्य-धारा के नेताओं को महीनों जेल में बंद रखने के बाद अब रिहा कर दिया गया है। मोदी सरकार अब वहाँ क्या पत्ते खोलती है? इस पर सबकी नज़र है। कश्मीर से आने वाली प्रायोजित खबरों से इतर घाटी में अभी भी एक अजीब-सी खामोशी है। घाटी महीनों बंद रही है। वहाँ देश के नेताओं के जाने की अभी भी पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है; भले ही विदेशी प्रतिनिधियों को इस दौरान नई दिल्ली ने जम्मू-कश्मीर की सैर ज़रूर करायी है। सूबे में अभी भी बड़ी संख्या में सेना की मौज़ूदगी है। लेकिन हाल में जेल से रिहा नेताओं ने साझा बैठक करके गुपकार घोषणा का ऐलान किया है, जो यह दर्शाता है कि श्रीनगर और नई दिल्ली के बीच दूरी बढ़ी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती है- इस खाई को पाटना।

अभी तक एक-दूसरे का नाम भी नहीं सुनने वाले घाटी के राजनीतिक दल जम्मू-कश्मीर के अनुच्छेद-370 और सूबे का पूर्ण राज्य का दर्जा छीन लेने के मुद्दे पर एकजुट हो गये हैं। दो साल पहले तक भाजपा के साथ सरकार चला रही पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती के तेवर तीखे हैं और वह मोदी की कटु आलोचक बन गयी हैं। भाजपा के नेता के रूप में जो मान्यता कश्मीर में अटल बिहारी वाजपेयी की थी, वैसी नरेंद्र मोदी नहीं बना पाये और अब तो श्रीनगर और नई दिल्ली के बीच इतनी राजनीतिक दूरी बन गयी है कि वहाँ के राजनीतिक दल नई दिल्ली को अपना विरोधी मानने लगे हैं। यह राजनीतिक दल जनता और नई दिल्ली के बीच मज़बूत कड़ी रहे हैं; लिहाज़ा इन्हें दूर करने की नीति अपनाकर मोदी सरकार कैसे सूबे की जनता से संवाद रख पायेगी? यह कहना मुश्किल है।

कश्मीर के वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक हालत ने अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का ध्यान भी तेज़ी से अपनी तरफ खींचा है। निश्चित ही कश्मीर के मुख्य-धारा के जो नेता अपने मुद्दों के लिए नई दिल्ली से बात करते थे, वे अब अंतर्राष्ट्रीय मंचों की तरफ देखने लगे हैं। बहुत-से जानकार मानते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी के पास कश्मीर को और मज़बूती से भारत के साथ जोडऩे का एक बहुत बड़ा अवसर था; लेकिन उन्होंने शायद उसे खो दिया है। वर्तमान केंद्र सरकार ने जिस तरह अनुच्छेद-370 खत्म करते हुए कश्मीर की जनता को किनारे कर दिया, उससे उसके प्रति पैदा हुआ अविश्वास समय के साथ और मज़बूत हो गया है। निश्चित ही कश्मीर में शान्ति बहाली के रास्ते में यह अविश्वास बहुत बड़ा रोड़ा रहेगा।

उप राज्यपाल के रूप में अगस्त में एक राजनीतिक व्यक्ति मनोज सिन्हा को भेजकर केंद्र सरकार ने ज़मीनी हकीकत टटोलने की कोशिश की है; लेकिन जो घटनाक्रम वहाँ हो रहा है, वह सुखद संकेत नहीं देता। ऊपर से भाजपा पर यह गम्भीर आरोप बार-बार लग रहा है कि वह मुख्य-धारा की पार्टियों के कुछ नेताओं को तोडक़र कश्मीर में अपने मोहरे के रूप में इस्तेमाल करने की नीति पर चल रही है। कुछ महीने पहले बनी जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी को लेकर भी भाजपा पर आरोप हैं कि इसके पीछे वही है; क्योंकि वह मुख्य-धारा के दलों को किनारे करके अपने मोहरे वहाँ बैठाना करना चाहती है।

निश्चित ही इससे गलत सन्देश जा रहा है; क्योंकि कश्मीर में एक साल पहले तक लोगों में यह भावना नहीं थी कि केंद्र सरकार उन पर अपने मोहरों के ज़रिये शासन करना चाहती है। वहाँ चुनाव से बनने वाली सरकारें लोकप्रिय रही हैं और लोग बड़े पैमाने पर उनका समर्थन करते रहे हैं। यहाँ तक कि आतंकियों और अलगाववादियों के चुनाव-वहिष्कार की चेतावनियों की भी कश्मीरी अवाम ने परवाह नहीं की और जितना बन पड़ा, भारतीय चुनाव आयोग के घोषित चुनाव कार्यक्रमों के तहत इसमें शिरकत की है। इससे ज़ाहिर होता है कि लोग यहाँ नई दिल्ली से वैसी दूरी नहीं मानते थे, जैसा उसे कुछ तत्त्व और भाजपा देश के बाकी हिस्सों में अपने राजनीतिक मंसूबों के लिए बताते रहे हैं।

कश्मीर में अनुच्छेद-370 खत्म करने के साथ-साथ इसका पूरे राज्य का दर्जा जाने से निश्चित ही लोगों में बेचैनी है। अब राजनीतिक दल इस बेचैनी को समझते हुए एकजुट हो गये हैं और केंद्र सरकार के खिलाफ मोर्चा सँभाल लिया है। पीडीपी की नेता और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की जेल से रिहाई के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला के आवास पर पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती, पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष सज्जाद लोन, पीपुल्स मूवमेंट के नेता जावेद मीर और माकपा नेता मोहम्मद यूसुफ तारिगामी, जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट के शाह फैसल आदि जुटे और दो घंटे बैठक करके गठबंधन बनाने का फैसला किया। अब्दुल्ला के मुताबिक, गठबंधन का नाम पीपल्स अलायंस फॉर गुपकार डिक्लेरेशन रखा गया है।

बता दें कांग्रेस जैसा देश का बड़ा राजनीतिक दल जम्मू-कश्मीर को लेकर मोदी सरकार के फैसलों से सहमत नहीं रहा है। हाल में इसके वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम ने उन छ: दलों को सलाम किया, जिन्होंने केंद्र के इस निर्णय के खिलाफ एकजुट होने का प्रयास किया है। कांग्रेस नेता ने कहा- ‘मुख्य-धारा की छ: विपक्षी दलों की एकता और साहस को सलाम! जो अनुच्छेद-370 के खिलाफ लडऩे के लिए एक साथ आये हैं; मैं उनसे अपनी माँग के साथ पूरी तरह से खड़े होने की अपील करता हूँ। स्वयंभू राष्ट्रवादियों की तथ्यहीन आलोचना की उपेक्षा करें, जो इतिहास को नहीं पढ़ते हैं। लेकिन इतिहास को फिर से लिखने की कोशिश करते हैं। अगर मोदी सरकार विशेष प्रावधानों के खिलाफ है, तो फिर नागा मुद्दों को कैसे सुलझाएगी?’

लिहाज़ा ऐसे में भाजपा के लिए रास्ता उतना सरल नहीं है। भले भाजपा कुछ मुद्दों को लेकर कांग्रेस को पाकिस्तान के साथ खड़ा करने की कोशिश करती रही है; लेकिन यदि जम्मू कश्मीर में हालत सामान्य नहीं होते हैं, तो देश की जनता के सामने उसे अपने फैसले को लेकर रक्षात्मक होना पड़ सकता है। इसमें कोई दो-राय नहीं है कि भाजपा किसी भी सूरत में अनुच्छेद-370 को लेकर फैसला नहीं पलटेगी, उलटे वह बिहार की चुनाव सभाओं में कांग्रेस पर अब आरोप लगाने लगी है कि वह सत्ता में आयी, तो अनुच्छेद-370 को बहाल कर देगी। गुपकार की घोषणा में छ: मुख्य-धारा के दलों ने माँग की है कि केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को लागू कर पूर्व स्थिति बहाल करे।

इस गठबन्धन का कहना है कि वह जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में संवैधानिक स्थिति बहाल करने के लिए प्रयास करेगा। फारूक अब्दुल्लाह साफ कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर और लद्दाख से जो छीन लिया गया, उसकी बहाली के लिए हम संघर्ष करेंगे। हमारी लड़ाई संवैधानिक है। हम संविधान की बहाली के लिए (जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में) प्रयास करेंगे; जैसा कि 5 अगस्त, 2019 से पहले था। गठबंधन जम्मू-कश्मीर के मुद्दे के समाधान के लिए सभी संबंधित पक्षों से वार्ता भी करेगा। आने वाले समय में हम भविष्य की योजनाओं को लेकर फैसला करेंगे।

5 अगस्त, 2019 को मोदी सरकार ने जब एक चौंकाने वाले फैसले में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटा लिया था और राज्य को दो हिस्सों में बाँटकर दो केंद्र शासित प्रदेश बना दिये थे, तब हर कोई हैरान रह गया था। इतने बड़े बदलाव से पहले प्रदेश के सभी कद्दावर नेताओं को नज़रबन्द कर दिया गया और सैलानियों को कश्मीर से वापस भेज दिया गया। इंटरनेट सेवाएँ बन्द कर दी गयीं, और राज्य को एक तरह के लॉकडाउन में बन्द कर दिया गया। तब भी बहुत-से जानकारों ने इसे बहुत जल्दबाज़ी का फैसला बताया था और कहा था कि इसके दूरगामी नतीजों की चिन्ता नहीं की गयी।

यह माना जाता है कि जम्मू-कश्मीर को लेकर मोदी की केंद्र सरकार की नीति पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजीत डोभाल का बड़ा प्रभाव रहा है। गृह मंत्री अमित शाह भी इस तरह का बड़ा फैसला करके अपनी छवि लोहपुरुष जैसे नेता की बनाना चाहते थे। इसमें कोई दो-राय नहीं कि शाह इस फैसले को लेकर भाजपा के भीतर एक मज़बूत नेता के रूप में खुद को स्थापित करने में सफल रहे हैं। उनके समर्थक तो उन्हें सोशल मीडिया पर अब लोहपुरुष के रूप में ही प्रचारित करते हैं। जम्मू-कश्मीर पर मोदी सरकार के फैसले के बाद ऐसा नहीं कि इसका देश में विरोध नहीं हुआ है।

लोगों ने स्वायत्तता और मानवाधिकार को लेकर आवाज़ें उठायी हैं। अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी मसला उठा है। हालाँकि भारत सरकार यह कहती रही है कि यह उसका आंतरिक मामला है। जम्मू-कश्मीर को लेकर मीडिया के बड़े हिस्से में आने वाली एकतरफा रिपोट्र्स के विपरीत सच यह है कि राज्य के हिन्दू बहुल जम्मू में भले अनुच्छेद-370 को लेकर ज़्यादा समर्थन नहीं रहा हो, लेकिन वहाँ भी पूर्ण राज्य का दर्जा खत्म होने से नाराज़गी है। तहलका की जानकारी कहती है कि जनता प्रशासन से संतुष्ट नहीं है; क्योंकि उसके मुद्दे और पेचीदा हो गये हैं तथा समस्याएँ बढ़ी हैं। इसका एक कारण जनप्रतिनिधयों की अनुपस्थिति होना भी है।

इस बार की गर्मियों में जम्मू क्षेत्र में जनता ने बिजली से लेकर स्वास्थ्य सम्बधी बहुत समस्याएँ झेली हैं और कोई उनकी आवाज़ सुनने वाला भी नहीं था। जम्मू के नानक नगर में रहने वाले रविंद्र सिंह कहते हैं- ‘जब हमारे एमएलए थे, तो हम उनके सामने अपनी मुश्किलें रखते थे। समस्या हल हो जाती थी। बिजली की इस बार बहुत ज़्यादा िकल्लत रही, पर कोई सुनने वाला नहीं था।’

इसी तरह अनाज मण्डी के रमन खजुरिया ने कहा- ‘बहुत बुरा हाल है। हमें तो लगता था कि अब सारा कुछ बदल जाएगा; लेकिन उलटा ही हुआ है। हमने मोदी को वोट दिया था; लेकिन जम्मू में कोई बदलाव नहीं आया है। हम निराश हैं। हल नहीं होंगी, तो अफसरों के पास कौन समस्याएँ लेकर जाएगा? हमारा पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल होना चाहिए।’

एक लोकतांत्रिक देश में फैसलों को लेकर सवाल उठना स्वाभाविक है। यही मोदी सरकार के कश्मीर को लेकर फैसलों पर हुआ है। भाजपा सहित सभी राजनीतिक दल कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग तो कहते हैं, लेकिन राजनीतिक मजबूरियों से बाहर नहीं निकलते हुए कश्मीर के साथ महज़ एक ज़मीन के टुकड़े की तरह पेश आते हैं। कांग्रेस और कुछ अन्य विरोधी दलों ने जम्मू-कश्मीर के फैसले को लेकर भले विरोध दर्ज़ कराया; लेकिन यह उतना मज़बूत नहीं था, जितना उसे होना चाहिए था। कांग्रेस के तीन नेताओं ने तो अनुच्छेद-370 को खत्म करने का स्वागत ही कर दिया था, जिनमें से एक भाजपा में जा चुके ज्योतिरादित्य सिंधिया भी हैं।

गुपकार घोषणा

बता दें पिछले साल 4 अगस्त को गुपकार घोषणा का खाका तैयार हुआ था। उस समय अनुच्छेद-370 को लेकर चर्चा चल रही थी। इसमें तब सात पार्टियों ने सर्व-सम्मति से फैसला किया था कि जम्मू कश्मीर की पहचान, स्वायत्तता और उसके विशेष दर्जे को संरक्षित करने के लिए वे मिलकर प्रयास करेंगे। नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी, जम्मू-कश्मीर पीपुल्स कॉन्फ्रेंस, अवामी नेशनल कॉन्फ्रेंस, कांग्रेस, सीपीआईएम और शाह फैसल के जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट के लोगों ने इस पर हस्ताक्षर किये थे। इस घोषणा के एक दिन बाद ही मोदी सरकार ने संसद में प्रस्ताव लाकर जम्मू-कश्मीर को संविधान से मिला विशेष दर्जा खत्म कर दिया था और साथ ही कश्मीर के नेताओं को नज़रबन्द कर दिया था।

फारूक अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला को तो मार्च में रिहा कर दिया गया, पीडीपी की महबूबा मुफ्ती की रिहाई अक्टूबर में जाकर हुई। इसके तुरन्त बाद एक बैठक करके इन दलों ने गुपकार घोषणा-पत्र को दोहराया गया और इसकी माँगें सामने रखी गयीं। महबूबा मुफ्ती ने रिहाई के बाद कहा- ‘जो दिल्ली (केंद्र) ने हमसे छीना है, वो हम वापस लेंगे और काले दिन के काले इतिहास को मिटाएँगे।’

नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दू बहुल जम्मू में भी नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी का अच्छा खासा वजूद रहा है। खासकर, नेशनल कॉन्फ्रेंस का। पीडीपी के नेता दिवंगत मुफ्ती मोहम्मद सईद तो विधानसभा का चुनाव जम्मू के आरएसपुरा से जीत चुके हैं। ऐसे में इन दलों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। भले जम्मू में भाजपा और कांग्रेस ही प्रमुख राजनीतिक दल हैं। जम्मू के राजनीतिक नेता, खासकर भाजपा नेता राजनीतिक रूप से कश्मीरी भेदभाव का आरोप लगाते रहे हैं। उन्हें लगता है कि अब परिस्थितियाँ बदलेंगी। हालाँकि पिछले एक साल में जम्मू में कुछ खास बदलता नहीं दिखा है।

आसान नहीं राह

फिर भी इसमें कोई दो-राय नहीं कि कश्मीर के नेताओं की राह आसान नहीं है। जम्मू में उन्हें अपने आधार को पुनस्र्थापित करने के लिए वर्तमान हालात में बहुत मशक्कत करनी पड़ेगी। भाजपा की कोशिश एनसी और पीडीपी के मुस्लिम नेताओं को तोडऩे की है; ताकि उन्हें अपने साथ मिलाकर भाजपा का राज्य-व्यापी स्वरूप बनाया जाए। बता दें पीडीपी-भाजपा गठबन्धन सरकार में पीसी के सज्जाद लोन भाजपा कोटे से मंत्री थे। एक मौके पर तो उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की भाजपा की कोशिशें भी सामने आयी थीं। भाजपा अभी तक जम्मू-कश्मीर में अपनी राजनीतिक मंशा पूरी नहीं कर पायी है। यह इस बात से भी साबित होता है कि हाल के फेरबदल में उसने लम्बे समय से जम्मू-कश्मीर में भाजपा के प्रभारी रहे राम माधव को महासचिव पद से हटा दिया गया।

कुल मिलाकर गुपकार घोषणा पर काम करने वाले नेताओं के सामने एक बड़ी चुनौती है। हालाँकि कश्मीर के नेताओं को पक्का भरोसा है कि वे इसमें सफल होने। अपना नाम नहीं छपने की शर्त पर पीडीपी के एक नेता ने तहलका से कहा कि वहाँ जनता में केंद्र के प्रति बहुत नाराज़गी है। लेकिन इस नाराज़गी को दबाने की कोशिश हो रही है; जिसमें भाजपा कामयाब नहीं होगी। ज़ाहिर है आने वाले समय में कश्मीर की सारी राजनीती अनुच्छेद-370 पर सिमटने वाली है। यदि कश्मीर के नेता इसे एक जन-आंदोलन बनाने में सफल रहते हैं, तो केंद्र सरकार के सामने पेचीदगियाँ पैदा होंगी ही।

‘मैं अगर ईमानदारी से कहूँ, तो मुझे हैरानी होगी कि अगर सरकार को कश्मीर में कोई ऐसा शख्स मिल जाए, जो खुद को भारतीय बोले। आप वहाँ किसी से भी बात कर लीजिये। वे खुद को न तो भारतीय मानते हैं और न पाकिस्तानी। पिछले साल 5 अगस्त को दिल्ली (केंद्र सरकार) ने जो किया, वह ताबूत में आखरी कील थी। कश्मीरियों को सरकार पर कोई भरोसा नहीं रह गया है। विभाजन के वक्त घाटी के लोगों का पाकिस्तान जाना आसान था; लेकिन तब उन्होंने गाँधी के भारत को चुना था; न कि मोदी के भारत को।

फारूक अब्दुल्ला, अध्यक्ष नेशनल कॉन्फ्रेंस

जब तक हमारे हाथ में जम्मू-कश्मीर का झण्डा नहीं आ जाता, तब तक हम कोई दूसरा झण्डा नहीं उठा सकते हैं। जब हमारा यह झण्डा वापस आ जायेगा, तो हम वह झण्डा (तिरंगा) भी उठा लेंगे। तिरंगे के साथ हमारा रिश्ता इस झण्डे (जम्मू कश्मीर के झण्डे) से अलग नहीं है।

महबूबा मुफ्ती, अध्यक्ष पीडीपी

दरख्शां अंद्राबी केंद्रीय वक्फ परिषद् की सदस्य और राष्ट्रीय वक्फ विकास समिति की अध्यक्ष होने के साथ-साथ कश्मीर में भाजपा का बड़ा मुस्लिम महिला चेहरा हैं। ‘तहलका’ ने उनसे विभिन्न मुद्दों पर बातचीत की। इसी बातचीत के खास अंश :-

आप कश्मीर की रहने वाली हैं। अनुच्छेद-370 खत्म होने को लेकर कश्मीर का क्या भविष्य देखती हैं?

हम एक नया जम्मू और कश्मीर बनाने के दौर में हैं। हम जम्मू-कश्मीर में पक्षपाती और पैरोकारी राजनीतिक व्यवस्था के प्रभाव से बाहर आ रहे हैं। हम धीरे-धीरे भावुकतावादी मुद्दों के ज़रिये बनी लूट, भ्रष्टाचार और शोषण की राजनीति को बदल रहे हैं; जिसने दशकों से जम्मू-कश्मीर की आबादी की मानसिकता को बर्बाद कर दिया है। भारत के संघ के साथ जम्मू और कश्मीर के वास्तविक और पूर्ण एकीकरण के बाद हम जम्मू और कश्मीर में संघ-कानूनों को लागू कर रहे हैं।

लेकिन प्रशासन पर इसका असर नहीं दिखता?

सार्वजनिक सेवा और शासन में वास्तविक जवाबदेही शुरू हो गयी है। जम्मू और कश्मीर के बीमार ढाँचे को धीरे-धीरे ठीक किया जा रहा है। कई संगठनों का पूरी तरह से पुनर्गठन किया जा रहा है। आम लोगों की मदद से, हम जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक मुख्य-धारा की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पोषित अलगाववादी ताकतों को कुचलने में सफल हो रहे हैं। जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति के बारे में मिथकों का भंडाफोड़ किया गया है। मैं जम्मू-कश्मीर भर में युवाओं में सकारात्मकता की नयी मानसिकता देख रही हूँ। पहली बार लोगों को लगने लगा है कि जम्मू-कश्मीर में पारदर्शिता वाला शासन स्थापित होगा।

लेकिन गुपकार में कश्मीरी नेताओं ने एक प्रस्ताव पास किया है?

इसके कोई मायने नहीं। यह नेता जब जेलों में बंद थे; कश्मीर का कोई व्यक्ति इनके समर्थन में सामने नहीं आया। इन नेताओं के कारण ही आतंकवाद फैला। पथरबाज़ी इन लोगों के कारण हुई। यह नेता अपनी कुर्सी के लिए लोगों की भावनाओं को भडक़ाते रहे। इन लोगों ने युवाओं को इसी में फँसाये रखा; लेकिन अब यह बदल जाएगा। फारूक साहब की अब कुर्सी नहीं है, तो वह चीन को अपना आका समझने लगे हैं। कुर्सी रहती है, तो भारत को अपना देश बताते हैं। यही हाल पीडीपी और महबूबा मुफ्ती का भी है।

क्या अब सूबे का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल होगा? क्योंकि डी-लिमिटेशन को लेकर कश्मीर में आशंकाएँ हैं।

प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है कि धीरे-धीरे चीज़ें बदलेंगी। भाजपा स्वस्थ लोकतंत्र में विश्वास रखती है। वहाँ डीलिमिटेशन का प्रोसेस शुरू हो रहा है। यह 2011 के सेंसस के आधार पर होगा। केंद्र सरकार की योजनाएँ अब जम्मू-कश्मीर में ज़मीन पर पहुँच रही हैं। बिचौलियों की छुट्टी हो रही है। मैं व्यक्तिगत रूप से इस बात की समर्थक हूँ कि जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र खत्म नहीं होना चाहिए। सूबे के युवा अब नया भविष्य देख रहे हैं।

वरिष्ठ पत्रकार और कश्मीर मामलों की जानकार अनुजा खुशु से भी ‘तहलका’ ने बात की। प्रस्तुत हैं इसके खास अंश :-

कश्मीर में गुपकार में जो हुआ है, वह नयी मुस्लिम लीग की आधारशिला रखने जैसा  है। कश्मीरी नेताओं के इस कदम से देश को सावधान होना चाहिए। गुपकार में जो हुआ, वह देश के दुश्मनों की जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करने की चाल है। ये वही नेता हैं, जो भारतीय संविधान की स्थापित संस्थाओं के ज़रिये सत्ता में रहे हैं; पर ये उसी तर्ज पर काम कर रहे हैं, जिस पर सन् 1947 में भारत विभाजन से पहले मुस्लिम लीग ने किया था। भारतीय राज्य और उसके नीति निर्माताओं को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ये लोग भारत के संतुलन को बदलने और जम्मू और कश्मीर के दार-उल-इस्लाम में रूपांतरण की इन कोशिशों को रोकें; ताकि सन् 1990 में कश्मीरी पंडितों के नरसंहार और धर्म के आधार पर उनके पलायन जैसा दोहराव न हो। समय आ गया है कि जम्मू-कश्मीर का राजनीतिक रूप से पुनर्गठन किया जाए और हिन्दुओं को अंडरग्राउंड और ओवरग्रॉउंड इस्लामिक जिहाद से मुक्ति दिलायी जाए। यदि देश नहीं जागता है, तो गुपकार घोषणा जम्मू-कश्मीर में हिन्दुओं के सर्वनाश का रास्ता खोलेगी। सन् 1947 में भी ऐसा ही हुआ था, जब हिन्दुओं ने मुस्लिम लीग को हल्के में लिया था और परिणाम स्वरूप इस्लामिक पाकिस्तान का निर्माण हुआ।