जब बेटी उठ खड़ी होती है, तो जीत बड़ी होती है

पहले के दौर में कवि सुभद्रा कुमारी चौहान का लिखा यह गीत बहुत प्रचलित था जिसके बोल थे, ‘बुंदेलों के मुंह से हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।’ छदों में लिखी यह कविता उन दिनों हर जबान पर होती थी। रूपहले पर्दे पर फिल्म ‘मणिकॢणका: झांसी की रानी’ में अभिनेत्री और इस फिल्म की सह निर्देशक कंगना रानौत ने इस फिल्म में अपनी भूमिका से रानी झांसी की प्रतिभा, वीरता और बुद्धिमता को साकार कर दिया। अपने अभिनय से उन्होंने एक ऐसा मील का पत्थर गाड़ा है जिसे दशकों तक याद किया जाएगा।

रानी झांसी को फिल्मी रूप देते हुए भारतीय क्रांति के पहले दौर के साथ ऐतिहासिक न्याय की अनदेखी नहीं हुई है। उसी के अनुरूप संवाद हैं जिनकी अच्छी ‘डिलीवरी’ हुई है। यह फिल्म बताती है कि देश में महिलाओं की खासी आन, बान और शान थी। रानी झांसी का शुरू से ही धोखा देने वालों से भी पाला पड़ा और पूरे देश पर हावी हो रहे विदेशी शासन से भारत को मुक्त कराने की चुनौती भी उन्हें ही स्वीकार करनी पड़ीं। उन्होंने झांसी की रानी होने के सम्मान को भी बनाए रखा। राज-काज भी संभाला। गृहिणी और मां के रूप में अपना दायित्व निभाया और अंगे्रजी राज को अच्छा खासा नुकसान पहुंचाया। अपनी जान पर खेल कर, पीठ पर बच्चे को बांध कर उन्होंने अंग्रेजी सेना का मुकाबला किया। अपनी  युद्ध रणनीति से उनके अफसरों तक को खासा चकित किया।

इस फिल्म में संवादों पर अच्छी मेहनत होनी चाहिए थी। हालांकि नृत्य-संगीत भी खासा मधुर है। दूसरे अभिनेताओं ने भी खासा अच्छा अभिनय किया है। यह पूरी फिल्म बताती है कि कैसे ‘जब बेटी उठ खड़ी होती है, तो जीत बड़ी होती है।’ पूरी फिल्म एक तरह से रानी झांसी के बहाने अभिनेत्री कंगना रनौत का अपना जीवन संघर्ष भी है जिसे ऐतिहासिक बिंब और प्रतीकों में जताने में कंगना का जवाब नहीं। आप भी जाएं और फिल्म को देख कर सोचें।

फिल्म: ‘मणिकार्णिका: रानी झांसी’

‘हमने कोई मस्जिद कभी नहीं तोड़ी’

बाल केशव ठाकरे की भूमिका में नवाजुद्दीन सिद्वीकी ने अपनी अभिनय प्रतिभा का झंडा गाड़ दिया है। एक राजनीतिक की फिल्म को ‘डाक्युमेंटरी’ होने से बचाते हुए पूरी व्यावसायिक फिल्म के रूप में ढालने में अभिनेता की बड़ी भूमिका होती है। इस लिहाज से यह फिल्म काफी रोचक है।

अभी कुछ दशक पहले देश में घटित समसामायिक राजनीतिक घटनाओं के बरक्स बाल केशव ठाकरे ने अपनी कार्टूनिस्ट की अपनी नौकरी छोड़ी और महाराष्ट्र से वहीं के लोगों को रोज़गार दिए जाने का बिगुल बजाया। उनके तर्कों को मराठी मानुष ने पसंद किया और शिवसेना गठित हो गई। आज यही पार्टी राज्य में ही नहीं केंद्र में भी भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए में है।

फिल्म में दिलचस्प यह है कि एक गैर मराठी अभिनेता ने बाला साहेब ठाकरे की भूमिका न केवल निभाई बल्कि यह जता दिया कि अभिनय में जाति, वंश और भाषा अहमियत नहीं रखती। अच्छा कलाकार सबका होता है और बेहतर प्रस्तुति दे सकता है। शर्त यही है कि वह मौलिक अभिनेता हो। वह तार्किक हो और उसने अच्छी तरह से वह भूमिका आत्मसात की हो जिसे उसे पेश करना है।

इस फिल्म में एक जगह ठाकरे कहते हैं, ‘हमने कोई मस्जिद कभी नहीं तोड़ी।’ यह संवाद आज के माहौल पर भी एक बड़ी टिप्पणी है जो कानों में गूंजती है। आप भी फिल्म देखिए और समझिए समसामाजिक इतिहास को।

फिल्म : ‘ठाकरे’