चोर या चौकीदार: पहचाने कौन

भारत का वर्तमान आज स्वतंत्रता के ऐसे ही तमाम तात्कालिक उभरे शब्दों से गुजऱ रहा है। कभी चोर तो कभी चौकीदार। नामदा-कामदार से लेकर कांग्रेस की विधवा जैसे तमाम शब्द अपनी पूरी तल्खी के साथ भारतीय जनता के दिमाग में डाले जा रहे हैं। सभी एक दूसरे को चोर और चौकीदार मान रहे हैं और खुश हैं कि मामला यहीं पर अटक कर रह गया है। जबकि वास्तविकता कुछ और है। और यह बात कम से कम भारतीय जनता पार्टी को मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावी नतीजों से समझ मे आ जानी चाहिए थी। लेकिन अफसोस वे अपनी हार को हार ही नहीं मान रहे हैं। यही किसी व्यक्ति, संस्थान के अंत की शुरूआत होती है। यह अंत हार या जीत से आगे की स्थिति है। नरेंद्र मोदी ने स्वंय को चौकीदार कहा, लाल किले की प्राचीर से और उसी दिल्ली से राफेल के मामले में राहुल गांधी ने कहा ”चौकीदार चोर है’’। काफी दिनों बाद राफेल ऐसा प्रसंग प्रतीत हो रहा है जो महज ”नूरा कुश्ती’’ नहीं बल्कि एक वास्तविक जोर आजमाईश है। संसद के अंदर और बाहर इस मसले पर राहुल गांधी, अरुण जेटली, निर्मला सीतारमण और न मालूम कितने नेता प्रवक्ता बातचीत कर चुके हैं, सवाल-जवाब दोहरा चुके हैं। मगर मामला शांत नहीं हो पा रहा है। वजह एकदम साफ है कि इस मामले में एकमात्र भूमिका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की है और जवाब भी उन्हें ही देना होगा। फिर चाहे वे प्रधानमंत्री रहें या न रहें। वास्तविकता से सिर्फ वे ही वाकिफ हैं। प्रक्रिया, मूल्य, तकनीक आदि छोटी मोटी बातें हंै। भारत जैसे विराट राष्ट्र के लिए यदि कुछ मायने रखता है तो वह है नीयत। मिशेल को पकड़ कर अगस्ता वेस्टलैंड हेलिकाप्टर की रिश्वत या दलाली का रहस्य उद्घाटन राफेल को लेकर लगे आरोपों से स्वंमेव मुक्ति नहीं दिला सकता। चौकीदार को पहले यह समझाना होगा कि चोरी हुई ही नहीं है और यदि हुई है तो उसमें उसकी भागीदारी, साझेदारी, सहमति भी नहीं है। उनके अलावा यह मामला किसी और से संबंधित है ही नहीं और फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति के बयान ने हालात को और भी उलझा दिया है।

उपनिषद में अपने राज्य का वर्णन करते हुए एक राजा कहते है, ”मनीषी नहीं! -मेरे राज्य में विद्वान न हो ऐसी कोई बात नहीं। सिर्फ पढ़े-लिखे ही नहीं, सब विद्वान हैं।’’ यह बात आज के भारतीय लोकतंत्र पर भी अक्षरश: लागू होती है। भारतीय मतदाता प्रत्येक चुनाव में इस बात को सिद्ध भी कर रहे हैं। वित्तमंत्री अरुण जेटली कहते हैं कि नारों से नहीं नीति से परिवर्तन आएगा। एकदम दुरुस्त। परंतु उन्हें यह भी स्पष्ट करना होगा कि यह बात वह किससे कह रहे हैं, किससे संबंधित है? बेटी बचाओ- बेटी पढ़ाओ, स्वच्छ भारत, मेेक इन इंडिया। ये नारे किसने दिए? और इन्हें लेकर नीति बनाने की जिम्मेदारी किसकी थी? फिलहाल कम से कम राहुल गांधी की तो नहीं। तो फिर कारगर नीतियों के अभाव के लिए कौन जिम्मेदार है? कामदार व नामदार की बात की जाए तो, कौन किसका साथ कर रहा है यह अधिक महत्वपूर्ण है। पहला -दूसरा-तीसरा या चैथा परिवार या पीढ़ी को कोसने या सम्मान करने से भी बात नहीं बनेगी, क्योंकि आग तो दोनों तरफ लगी है, कहीं कम तो कहीं ज़्यादा। यदि भाजपा और मोदी को वंशानुगता से इतनी चिढ़ है तो उन्हें सार्वजनिक तौर पर घोषणा करना चाहिए कि वे भविष्य में रिश्तेदारों की राजनीतिक भागीदारी पर कानूनन रोक लगाएंगे? वास्तविकता तो यही है कि लोकतंत्र में तमाम विरोधाभास मौजूद रहते हैं। परंतु जब कोई मुद्दा नहीं होता तो ऐसी बातें ही उभरती हैं। हम सभी जानते हैं कि गांधी परिवार के नेतृत्व में कांग्रेस एक से अधिक बार चुनाव हारी है इसके बावजूद उनका आकर्षण उस दल में कम नहीं हो रहा है। यह भी एक विचारणीय तथ्य है।

वर्तमान काल की सबसे चमत्कारिक घटना यह है कि हाल-फिलहाल राहुल गांधी राजनीतिक एजेंडा तय कर रहे है और नरेंद्र मोदी और भाजपा उसका जवाब देने में व्यस्त है। इसीलिए विरोध लगातार व्यक्तिगत और स्तरहीन होता जा रहा है। कांग्रेस मुक्त भारत की परिकल्पना पर कांग्रेस युक्त भारत या सशक्त कांग्रेस का विचार विजय पाता जा रहा है। और इसे सिर्फ भाजपा नहीं, समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज दल के वर्तमान रवैये से भी जांचा जा सकता है। सपा-बसपा को भी आज कांग्रेस की आंशिक वापसी से घबराहट महसूस हो रही है और वे अपने एकमात्र किले उत्तरप्रदेश के दरवाजे कांग्रेस के लिए बंद कर देना चाहते हैं। इस बात की पूरी संभावना है कि उनका यह कदम उनके पैरों के नीचे से बची खुची ज़मीन भी छीन ले। इसका फायदा भाजपा-कांग्रेस में से किसी को भी हो सकता है। परंतु चोर और चौकीदार की लुकाछुपी के इस खेल ने प्रधानमंत्री मोदी को पहली बार बचाव की मुद्रा में ला दिया है। इसीलिए वे बेहद जल्दबाजी भरे निर्णय ले रहे हैं। उन्होंने समय के पहले ही अघोषित रूप से यह घोषित कर दिया कि अगला आम चुनाव भी, ”मोदी विरुद्ध अन्य’’ होगा। भाजपा को महज साथ देना होगा। इसका नवीनतम उदाहरण है कि आचार संहिता लागू होने से पहले 20 राज्यों में 100 आम सभाएं करना। यहां प्रश्न उठता है कि वे ये सभाएं भारत के प्रधानमंत्री के नाते करेंगे या भाजपा के नरेंद्र मोदी के नाते? हम लगातार देख रहे हैं कि प्रधानमंत्री के रूप में योजनाओं आदि के उद्घाटन के दौरान दिए गए उनके भाषण उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के ज़्यादा प्रतीक दिखाई देते हैं। उन्हें भारतीय जनता को यह स्पष्ट करना चाहिए कि उनकी इन 100 सभाओं के पीछे के उद्देश्य क्या है? यदि आम जनता को यह प्रतीत हो कि ये राजनीतिक प्रचार खासकर चुनाव पूर्व तैयारियों को लेकर हो रही हैं तो अवाश्यक है कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा के अलावा सारे खर्च भाजपा के चुनावी खर्च में डाले जाएं। हम मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की नर्मदा यात्रा के दौरान इसी तरह की परिस्थिति का सामना कर चुके हैं। वैसे इन दोनों में एक और समानता भी है। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान को प्रदेश की राजधानी भोपाल में रहना पसंद नहीं था, इसीलिए वे स्थायी तौर पर दौरे पर रहते थे और ज़रूरत पुर्ता ही भोपाल में रहते थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी दिल्ली में रहना पसंद नहीं है, इसीलिए वे अक्सर विदेश दौरे पर रहते हैं। अब चुनाव नजदीक हैं, इसलिए देश के दौरे पर रहेंगे, दिल्ली में नहीं मिलेंगे। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि निर्णय प्रक्रिया कमोवेश थमी रहती है, और काम नहीं होगा तो बदनामी भी कम होगी। परंतु इन हल्के-फुल्के स्पष्टीकरण के बीच यह जानना महत्वपूर्ण है कि इन सभाओं पर कुल किला खर्च होगा? विदेश यात्राओं व विज्ञापनों पर होने वाले अनाप -शनाप खर्चों को हम जान ही चुके हैं। ऐसा इसलिए भी आवश्यक है कि प्रसार भारती ने आर्थिक तंगी को रोना रोते हुए आकाशवाणी का मुख्य चैनल व पांच आंचलिक चैनल बंद करने की घोषणा कर दी है। आकाशवाणी के इस केंद्रीय चैनल (प्रसारण) की वजह से ही भारत-का शास्त्रीय संगीत, लोकसंगीत, आज तक अपना स्वरूप बचा पाया है। वहां गंभीर सामयिक व सारगर्भित चर्चाएं होती रहीं हैं।

फिर से चोर और चौकीदार पर लौटते हैं। आज की स्थिति में यह समझ लेना आवश्यक है कि यदि भारतीय लोकतंत्र के पतन से रोकना है तो हमें भाषा का प्रयोग बेहद सावधानी से करना होगा। वहीं दूसरी ओर सत्ता में बैठे दल को यह अनिवार्यता रूप से स्वीकारना होगा कि विपक्ष और जनता के मन में उठे संशय को दूर करना उसकी नैतिक व संवैधानिक दोनों तरह की जिम्मेदारी है। भारतीय लोकतंत्र को चोर सिपाही (चौकीदार) के खेल में कोई दिलचस्पी नहीं हैं राफेल का मामला उलझाकर नरेंद्र मोदी के हाथ कुछ नहीं लगेगा। साथ ही एक बार फिर से एकला चलो रे की उनकी नीति कितनी कारगर सिद्ध होगी यह तो समय बताएगा लेकिन इससे भाजपा के टूटने की शुरूआत अवश्य शुरू हो जाएगी। सहयोगी दलों ने इस ओर इशारा कर भी दिया है। विनोबा कहते हैं, सेना में एक नाई को दूसरे के सिर से मैल निकालने में ज्ञान हुंआ,’देखों मैं दूसरें के सिर का मैल तो निकालता हूं। परंतु क्या कभी खुद अपने सिर का, अपनी बुद्धि का मैल मैंने निकाला है’’?