चींटी के बराबर भी नहीं हमारी हैसियत

बचपन में कबूतरों और आखेटक यानी शिकारी की कहानी पढ़ी थी। अपनी चतुराई और चूहे की मित्रता के दम पर कबूतर न केवल खुद आज़ाद हो गये, बल्कि आखेटक का जाल भी ले उड़े। आज हम इंसान आपस में इतने बिखर गये हैं कि एक-एक करके आखेटकों के जाल में फँसते जा रहे हैं और आखेट होते जा रहे हैं। ताज्जुब इस बात का है कि हम एक-दूसरे के फँसने और फडफ़ड़ाने पर खुश हैं और उछल रहे हैं। हम खुश इस बात पर भी हैं कि फँसने वाले दूसरे- हिन्दू हैं, मुसलमान हैं, सिख हैं, ईसाई हैं, पारसियन हैं, बौद्ध हैं, जैन हैं, फलाँ हैं-फलाँ हैं। सच तो यह है कि हम सब कुछ हैं, लेकिन इंसान नहीं हैं। क्योंकि हममें एकता नहीं है। अगर कोई ईमानदारी और सच की बात कह दे, तो उसके लाखों दुश्मन! किसी दूसरे मज़हब को मानने वालों से ही नहीं, बल्कि अपने ही मज़हब के मानने वालों से भी। हैरत की बात है न! पहले हम दूसरे मज़हब वालों से लड़ें और अगर कोई यह कह दे कि यह गलत है, हमें मज़हबी होने की बजाय इंसान होना चाहिए, तो अपने ही मज़हब वाले को भी दुश्मन साबित कर दें और उसका जीना हराम कर दें कि आखिर उसने अखलाक और मोहब्बत की बात की कैसे?

क्या अजीब िकस्म है हम इंसानों की? हम सच का ढिंढोरा तो पीटते फिरते हैं, लेकिन हममें से अधिकतर को सच हज़म नहीं होता। शायद हम सब अपने झूठ को सच साबित करने की होड़ कर रहे हैं। और जैसे ही हमारा सामना सच से होता है, हम तिलमिला उठते हैं। ठीक वैसे ही जैसे एक बिगड़ी औलाद को माँ-बाप सुधरने के लिए कह दें, तो उसे बेहद बुरा लगता है।

आज ईश्वर भी हम इंसानों को देखता होगा, तो सोचता होगा कि काश उसने हम इंसानों को भी जानवर ही रखा होता। सच ही है! कम-से-कम जानवरों ने अपनी प्रवृत्ति और प्रकृति तो नहीं खोयी है। हम तो दिमागदार हैं, अक्लमंद हैं, पढ़े-लिखे हैं; तो पढ़-लिखकर हमने आखिर हासिल किया भी क्या है? हमने अपने-अपने अस्तित्व को बचाने के लिए न केवल पृथ्वी के समस्त प्राणियों को, वरन् खुद को भी संकट में डाल रखा है। इसकी जगह अगर हमने सम्पूर्ण मानव जाति के साथ-साथ पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा की होती, तो शायद आज हम कहीं ज़्यादा स्वस्थ, सुखी और समृद्ध होते। कह सकते हैं कि हमने पढ़-लिखकर खुद को इतना आधुनिक बना डाला है कि हम एक-दूसरे के अस्तित्व को नकारने लगे हैं। और खुद को इतना बड़ा सिद्ध करना चाहते हैं कि कई बार तो ईश्वर को भी छोटा सिद्ध करने की भूल कर बैठते हैं। सच तो यह है कि बड़ा बनने के चक्कर में हमारी हालत उस पागल या शराबी जैसी हो चुकी है, जिसके जिस्म में जान नहीं है; लेकिन वह अपने जुनून में किसी को भी नहीं गिनता है।

कभी छोटा बनकर देखिए। कभी दूसरों में ज्ञान की खोज करके देखिए। दूसरों को समझाने से पहले खुद इस बात को भली-भाँति समझ लीजिए कि इस पृथ्वी पर हमारा अस्तित्व एक चींटी के बराबर भी नहीं। और अगर फिर भी भरोसा न हो और अपने ज्ञान तथा बल पर घमण्ड हो, तो समुद्र को देखिए, उसकी लहरों के भयंकर शोर को सुनिए; आकाश की ऊँचाई को देखिए, उसमें रूई के फाये की तरह उड़ रहे बादलों की गर्जना को सुनिए; कड़कड़ाती बिजली की ज़मीन पर उतरती भयंकर चमक को देखिए; हिमालय की उलटती-पलटती, मौत की तरह तांडव करती कंदराओं को देखिए; ज़मीन के अन्दर की गहराई को देखिए; आग की प्रचण्डता को महसूस कीजिए और वायु के वेग का आभास कीजिए। आपको आपकी तुच्छता का अहसास स्वत: ही हो जाएगा। फिर सोचिए कि ईश्वर ने इतनी भयंकर ताकतों के बीच हम सबको एक ही तरह का जीवन दिया है। वही पैदा होने की प्रक्रिया, वही साँस लेने का तरीका, वही खाने का तरीका, वही जीने का तरीका और अन्त में मर जाने की मजबूरी। सभी को बराबर हवा, बराबर पानी, बराबर जीने का अधिकार और एक ही तरह से देखने, सुनने, सूँघने तथा, महसूस करने की क्षमता दी है। एक ही तरह का शरीर और रक्त दिया है। तब भी हम यह क्यों नहीं मानते कि हम सबका ईश्वर एक है और वह हम सबका परम् पिता है। फिर हमारे मज़हब अलग-अलग कैसे हुए? हम सब एक-दूसरे से जुदा कैसे हुए? हम एक-दूसरे के दुश्मन कैसे हुए? क्यों हमने मज़हब और ज़ात-पात की दीवारें खड़ी कर ली हैं एक-दूसरे के दरमियान? क्यों हम पाप के भागीदार बनते जा रहे हैं? क्यों हम उन्हीं धर्म-ग्रन्थों की बात नहीं मानते, जिनके लिए हम आपस में लड़-मर जाते हैं। हम सबको मरकर उसी ईश्वर के दरबार में जाना है, जिसके लिए हम सब आपस में लड़ रहे हैं। उसी ईश्वर को भाषाओं के अन्तर और बदले हुए नामों के चलते गालियाँ दे रहे हैं! कैसे मूर्ख हैं हम? इतनी बड़ी मूर्खता तो पशु भी नहीं करते। हैरत होती है कि हम उस ईश्वर की रक्षा का दम्भ भरते हैं, जिसने हम जैसे अरबों जीवन्त प्राणियों को जन्म दिया है और उसी की मर्ज़ी से, उसी के रहम-ओ-करम पर सब ज़िन्दा हैं। हैरत होती है कि हम प्यार बाँटने या प्यार करने वालों को अपराधी मान लेते हैं, उन्हें सज़ा देने तक से नहीं झिझकते; जबकि अपराधियों के पैरों में दण्डवत् हो जाते हैं। शायद यही वजह है कि हमारे अपने बच्चे भी अब हमारा सम्मान नहीं करते। हमने संस्कार खो दिये हैं और अपने बच्चों को भी वाहियात बनाते जा रहे हैं। ऐसे में हमारी यह अपेक्षा कि हमारे बच्चे हमारी इ•ज़त करें; बेईमानी नहीं, तो और क्या है? क्या अपने ही बच्चों को संस्कारहीन बनाकर हम उनके साथ अन्याय नहीं कर रहे हैं? क्या यह हमारा अक्षम्य अपराध नहीं है? क्या ऐसा करके हम अपने बच्चों और आने वाली पीढिय़ों को खुशहाल जीवन दे पाएँगे? इन सवालों का जवाब अपने ही अन्दर खोजना। शायद आपको जवाब मिल जाए।