चिकित्सा में भ्रष्टाचार

जालसाज़ी के मामले में एक बड़े अस्पताल की संयुक्त प्रबन्ध निदेशक और पाँच प्रमुख अधिकारी तलब सर्वोच्च न्यायालय ने 28 अगस्त, 2020 को अपोलो अस्पताल की संयुक्त प्रबन्ध निदेशक संगीता रेड्डी, जिनके खिलाफ वर्तमान में ज़िला अपराध शाखा, कांचीपुरम द्वारा 19 करोड़ रुपये के भुगतान में कथित धोखाधड़ी करने और फर्ज़ी दस्तावेज़ों के ज़रिये पैसे का दावा करने के आरोप में मामला दर्ज किया गया है; को समन (नोटिस) जारी किये हैं। हालाँकि यह पहली बार नहीं है कि स्वास्थ्य सेवा सवालों के घेरे में आयी है। प्रस्तुत है भारत हितेषी की विशेष रिपोर्ट :-

अपोलो अस्पताल कुछ समय पहले भी संदेह के घेरे में आया था, जब दिल्ली पुलिस ने इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के 10 लोगों को गिरफ्तार किया था और अस्पताल के गुर्दा रोग विशेषज्ञों से पूछताछ की थी; जिससे देश के मशहूर निजी स्वास्थ्य संस्थान की अनैतिक किडनी रैकेट में कथित मिलीभगत की तरफ इशारा मिलता है। क्या अपोलो अस्पताल के बारे में बहुत अधिक नकारात्मक प्रचार हो गया है? या वास्तव में वह गलत कामों में शामिल है? ‘तहलका’ ने इसे जानने की कोशिश की है।

धोखाधड़ी प्रकरण

वर्तमान मामले में अपोलो अस्पताल की संयुक्त प्रबन्ध निदेशक संगीता रेड्डी, अपोलो अस्पताल की सहायक कम्पनी अपोलो मेडस्किल्स और पाँच प्रमुख अधिकारियों- मुख्य वित्तीय अधिकारी राधाकृष्ण नल्लपति, पूर्व सीईओ के. प्रभाकर, वित्त प्रबन्धक कार्तिक राधाकृष्णन, मुख्य विपणन अधिकारी श्रीधर श्रीनिवास और सीईओ पुलिजाला श्रीनिवास राव के खिलाफ धारा-465 (जालसाज़ी), 468 (धोखाधड़ी के उद्देश्य से जालसाज़ी), 471 (असली के रूप में जाली दस्तावेज़ों का उपयोग) और 420 (धोखाधड़ी) के तहत मामला दर्ज किया गया है।

सर्वोच्च न्यायालय ने चेन्नई स्थित परामर्श फर्म स्किलटेक द्वारा दायर की गयी याचिका पर संगीता रेड्डी को नोटिस जारी किया। इससे पहले मद्रास उच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट करते हुए कि पंजीकृत एफआईआर के सम्बन्ध में जाँच चलनी चाहिए, संगीता रेड्डी को अस्थायी अंतरिम राहत दी। बाद की सुनवाई में 29 जुलाई, 2019 को मद्रास उच्च न्यायालय ने मामले की सुनवाई आठ सप्ताह में सुनने का आदेश दिया; क्योंकि यह कानून का एक स्थापित सिद्धांत है कि धारा-482 सीआरपीसी के तहत न तो सत्ता और न ही अनुच्छेद-226 के तहत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करके उच्च न्यायालय शिकायत को खारिज कर सकता है; यदि प्रथम दृष्टया उसे अपराध के रूप में पेश किया गया है। हालाँकि मुकदमे की फाइल रहस्यमय तरीके से करीब एक साल तक गायब रही और अधिवक्ताओं की एक नयी टीम नियुक्त होने के बाद ही फिर से सामने आयी।

गायब फाइलों का रहस्य

मद्रास हाई कोर्ट से फाइलों के गायब होने की खबर को मीडिया ने प्रमुखता से प्रकाशित किया और मामले में इंसाफ न होने के तौर पर इसे एक चाल करार देकर आलोचना की गयी। जुलाई, 2018 में न्यायमूर्ति जी. जयचंद्रन ने कहा कि यह बेहद चिन्ताजनक है कि मामले के बंडल (फाइल्स) जो कि सैकड़ों की संख्या में थे, इस तरह गायब हो गये, जैसे कोई जहाज़ बरमूडा ट्रायंगल में लापता हो जाता है। इसके साथ ही जस्टिस ने मामले की जाँच केंद्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई) से कराने का आदेश दिया, जिनमें दस्तावेज़ गायब होने के 100 से अधिक मामले शामिल थे। साथ ही मद्रास हाई कोर्ट ने इसी तरीके से 55 मामलों की फाइलें गायब होने की सीबी-सीआईडी जाँच के भी आदेश दिये।

फॉरेंसिक रिपोर्ट

तमिलनाडु पुलिस की फॉरेंसिक रिपोर्ट में जालसाज़ी की बात साबित हो चुकी थी। बाद में जाली हस्ताक्षर वाले मूल दस्तावेज़ की इलेक्ट्रॉनिक प्रतियाँ तारीख बदलकर पेश की गयीं। इसलिए मूल दस्तावेज़ की तारीख से पहले जाली दस्तावेज़ का मिलान किया जा सका। फॉरेंसिक रिपोर्ट से यह साबित होता है कि दस्तावेज़ों में कई अन्य तरह की खामियाँ भी सामने आयीं, जो संज्ञेय अपराध की श्रेाणी में आती हैं।

पहले के किडनी रैकेट मामले

कुछ समय पहले बॉलीवुड के सुपरस्टार आमिर खान ने अपने लोकप्रिय टी.वी. कार्यक्रम ‘सत्यमेव जयते’ के माध्यम से चिकित्सा पेशे में अनियमितताओं और फर्ज़ीवाड़े को उजागर किया था। इस पर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने काफी हंगामा किया था और आमिर खान से माफी की माँग की थी। लेकिन अभिनेता ने साफ कहा था कि वह किसी भी कानूनी कार्रवाई का सामना करने के लिए तैयार हैं। आमिर ने कहा था कि अगर मेडिकल पेशे का अपमान और बदनामी किसी ने की है, तो यह सम्भवत: उन लोगों द्वारा किया गया है, जो अनैतिक तरीके से प्रैक्टिस कर रहे हैं। उन्होंने साफ किया था कि यह कार्यक्रम किसी भी तरह से डॉक्टरों या चिकित्सा व्यवसाय के खिलाफ नहीं था। इंद्रप्रस्थ अपोलो दिल्ली से 10 लोगों की गिरफ्तारी और नेफ्रोलॉजिस्टों से दिल्ली पुलिस की पूछताछ ने देश में गैर-कानूनी तरीके से किडनी रैकेट (गुर्दा तस्करी) में प्रतिष्ठित निजी स्वास्थ्य संस्थान की मिलीभगत की ओर साफ इशारा किया था। अपोलो अस्पताल के किडनी रैकेट से गुडग़ाँव किडनी रैकेट की याद आ जाती है, जिसके सरगना अमित कुमार को नेपाल से गिरफ्तार किया गया था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गरीब लोगों की किडनी निकालकर अमेरिका, इंग्लैंड आदि देशों के अमीर लोगों में किडनी प्रत्यारोपित करके बड़ी रकम ऐंठे जाने का धंधा चलाया जा रहा था। सन् 2000 के दशक की शुरुआत में अमृतसर में किडनी रैकेट सामने आया था, जिसने 200 करोड़ रुपये की कीमत में गरीब लोगों का शोषण किया था। उन्हें किडनी (गुर्दे) के बदले नाम मात्र के पैसे दिये गये। ये गुर्दे नकली दस्तावेज़ों के माध्यम से अमीर लोगों को प्रत्यारोपित किये गये थे। सन् 2015 में हैदराबाद पुलिस ने एक किडनी रैकेट का भंडाफोड़ किया और एक डॉक्टर को गिरफ्तार किया, जो 30 लाख या ज़्यादा के पैकेज में किडनी दानदाताओं की व्यवस्था और मरीज़ों को सर्जरी के लिए विदेश ले जाने का ज़िम्मा लेता था। भारतीय ट्रांसप्लांट रजिस्ट्री द्वारा संकलित आँकड़ों के अनुसार, सन् 1971 के बाद से देश में किये गये 21,395 किडनी प्रत्यारोपणों में से केवल 783 ही मृत अंग-दाताओं (कैडवर डोनर्स) से मिले। देश में दो लाख से अधिक किडनी की वार्षिक आवश्यकता स्पष्ट रूप से माँग और आपूर्ति के बीच एक बड़ा अन्तर दिखाती है और घोटालेबाज़ों द्वारा गरीबों के शोषण को उजागर करती है। गरीबों से मामूली दाम में खरीदे गये गुर्दे कहीं बड़ी रकम लेकर मरीज़ों में प्रत्यारोपित किये जाते हैं।

अंग और ऊतक प्रत्यारोपण का कार्य मानव अंग और ऊतक अधिनियम-2011 के तहत नियंत्रित होता है। अधिनियम के अनुसार, अंगों को या तो मृत या ब्रेन डेड लोगों से ही उनके परिजनों की सहमति से प्राप्त किया जा सकता है या जीवित अंग-दाताओं द्वारा दान किया जा सकता है। जिन अंग-दाताओं को कानून द्वारा मायता प्राप्त है, वे पति-पत्नी, माता-पिता, भाई-बहन, दादा-दादी, पोता-पोती जैसे रिश्तेदार हैं। अन्य जो स्नेह और लगाव से या किसी विशेष कारण से दान कर सकते हैं; लेकिन वित्तीय कारणों के लिए नहीं।

प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट द्वारा प्रमाणित अंग-दाता और अंग-प्राप्तकर्ता, दोनों की तस्वीरों वाले हलफनामों सहित प्रलेखन का एक व्यापक सेट (करार आदि के कागज़ों की प्रतियों का संग्रह) अंग प्रत्यारोपण के लिए आवश्यक है। इसके अलावा कैमरे के सामने साक्षात्कार भी होता है। सम्बन्धित और असंबद्ध अंग-दाताओं के लिए दो अलग-अलग समितियाँ मूल्यांकन करती हैं और मामले को मंज़ूरी देती हैं। सम्बन्धित अंग-दाताओं से जुड़ी प्रक्रियाओं को देखने वाली समिति में अस्पताल के कर्मचारी शामिल हैं; लेकिन यह वे लोग होते हैं, जो इलाज करने वाली टीम का हिस्सा नहीं होते। असम्बन्धित अंग-दाताओं के लिए सरकार द्वारा नामांकित (चयनित) दो व्यक्ति होते हैं, जो मामलों का मूल्यांकन करते हैं।

अपोलो किडनी रैकेट में पुलिस ने पाया कि अस्पताल में ट्रांसप्लांट सर्जन के सहायकों ने फर्ज़ी दस्तावेज़ तैयार किये और उन मरीज़ों के लिए डोनर हासिल किया, जो अंगों के लिए मोटी रकम देने को तैयार थे। ऐसे परिदृश्य में डॉक्टर स्वाभाविक रूप से एक बच निकलने का मार्ग खोज लेते हैं और कहते हैं कि हम डॉक्टर हैं, जाँच एजेंसी नहीं। हमें उन दस्तावेज़ों के हिसाब से चलना होगा, जो हमारे सामने रखे गये हैं। हमारे पास उनकी सत्यता की जाँच करने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है।

इस मामले में अपोलो अस्पताल के तीन डॉक्टरों के नाम गिरोह के सरगना राजकुमार राव से पूछताछ के दौरान सामने आये थे, जो कथित तौर पर अलग-अलग राज्यों में काम कर रहे थे और अन्य देशों में इसी तरह के गिरोह के साथ सम्बन्ध स्थापित कर चुके थे। गिरोह के सम्बन्ध में एक गुर्दा रोग विशेषज्ञ के दो व्यक्तिगत सहायकों, कई बिचौलियों और दो महिलाओं सहित दाताओं, गिरोह के मुखिया के अलावा दो गुर्गों सहित 10 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया। इस बात की पुष्टि तत्कालीन पुलिस उपायुक्त मनदीप सिंह रंधावा ने की थी। उत्तर प्रदेश के कानपुर की दो महिलाओं और पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी के एक व्यक्ति सहित तीन दानदाताओं के साथ कोलकाता से कथित मास्टरमाइंड टी. राजकुमार की गिरफ्तारी से पता चला है कि इस कृत्य की जड़ें देश के अन्य हिस्सों में फैल गयी हैं। बृजेश चौहान (40) को पाँच किडनी प्रत्यारोपण के मामलों में शामिल पाया गया था, जिन्हें गिरोह के मुखिया टी. राजकुमार राव द्वारा लाया गया था। यह भी पाया गया कि राव अपने फेसबुक प्रोफाइल के माध्यम से जालंधर में एक पूर्व सहयोगी राज संगम के सम्पर्क में था और प्रत्यारोपण के लिए अग्रिम भुगतान भी स्वीकार कर चुका था। पुलिस को शक था कि कुछ मरीज़ अफगानिस्तान और अफ्रीका के मेडिकल पर्यटक हो सकते हैं। मुखिया पर नेपाल, श्रीलंका और इंडोनेशिया में समान रैकेट चलाने का संदेह था।

अपोलो हॉस्पिटल्स ने एक बयान में कहा था कि सभी सावधानियों को बरता गया था। नकली और जाली दस्तावेज़ों का इस्तेमाल आपराधिक इरादे से इस रैकेट ने किया था। अंग-दान, विशेष रूप से गुर्दा-दान, जो अक्सर एक बड़े रैकेट में तब्दील हो जाता है; ज़ाहिर करता है कि कालाबाज़ारी के कारण प्रत्यारोपण के लिए अंगों की उपलब्धता की कमी रहती है। अंग दान की प्रक्रिया और दस्तावेज़ों की स्क्रीनिंग एक समिति करती है। दिसंबर, 2015 में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री जे.पी. नड्डा ने संसद में इस समस्या पर प्रकाश डाला था। उन्होंने कहा था कि प्रत्यारोपण के लिए मानव अंगों की माँग और आपूर्ति के बीच एक बड़ा अन्तर है। सरकार माँग और आपूर्ति के अन्तर को पाटने के लिए कैडेवर अंगों के दान को बढ़ाने के लिए उच्च प्राथमिकता देती है और बड़ी संख्या में उन लोगों के जीवन को बचाती है, जो समस्या के अंतिम चरण में हैं। नड्डा ने वास्तव में सही जगह निशाना साधा था।

अन्य अस्पतालों में गलत काम

शीर्ष रैंकिंग अस्पतालों के गलत कामों ने अक्सर लोगों के विवेक को हिला दिया है। लेकिन शोर धीरे-धीरे कम हो जाता है और अस्पताल का पाँच सितारा कारोबार फल-फूल रहा है। इस तरह की एक जाँच रिपोर्ट कुछ समय पहले हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर सरकार को सौंपी गयी थी। इसमें गुडग़ाँव के फोर्टिस अस्पताल में सात साल की बच्ची आद्या सिंह की डेंगू से हुई मौत में चिकित्सा लापरवाही के आरोपों पर तीन सदस्यीय विशेषज्ञ समिति ने पाया था कि एम्बुलेंस में अस्पताल द्वारा जीवनदायी सपोर्ट (वेंटिलेटर) वापस लेने जैसी लापरवाही बरती जा रही है और यह कानून के खिलाफ है। बता दें 15 दिन आईसीयू में रखने के बाद लड़की की मौत हो गयी थी, जबकि अस्पताल ने इलाज के खर्च के रूप में परिवार को 16 लाख से अधिक का बिल थमा दिया था। रिपोर्ट कहती है कि चिकित्सा सलाह के खिलाफ छुट्टी की आड़ में अस्पताल अनैतिक तरीके से रोगियों से पेश आता है; जबकि परिचारक अब उपचार जारी नहीं रखना चाहते हैं। रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि यह गम्भीर लापरवाही और अनैतिक आचरण है; क्योंकि बच्ची से ऑक्सीजन और जीवन स्पोर्ट को वापस ले लिया गया था। हालाँकि उपचारकर्ता डॉक्टर के ही बयान के अनुसार रोगी न तो ब्रेन डेड था और न ही कोमा में था, बल्कि जीवित था। इसलिए मामले को कार्रवाई के लिए मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया को भेजने की सिफारिश की जाती है, जबकि लड़की का इलाज करने वाले सभी वरिष्ठ डॉक्टरों को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज ने कहा कि राज्य सरकार ने हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण (हुडा) को फोर्टिस अस्पताल की ज़मीन का पट्टा रद्द करने के लिए कहा था। उन्होंने कहा कि सभी डेंगू रोगियों के बारे में सरकार को सूचित करने के निर्देश थे; लेकिन अस्पताल ऐसा करने में विफल रहा और इस सम्बन्ध में एक नोटिस भी जारी किया गया था। यह मामला सरकारी अस्पतालों में सस्ती और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने में उनकी विफलता की तरफ भी अधिकारियों का ध्यान खींचता है, जिसकी मजबूरी के कारण लोगों को इन महँगे पाँच सितारा निजी अस्पतालों में जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। एक सभ्य समाज लोगों को सस्ती और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने में सक्षम होना चाहिए। मैक्स अस्पताल, शालीमार बाग के मामले में, दिल्ली सरकार द्वारा गठित एक पैनल ने पाया है कि अस्पताल ने नवजात शिशु को मृत घोषित करने से पहले निर्धारित चिकित्सा मानदंडों का पालन नहीं किया था। इस मामले की रिपोर्ट में पाया गया कि यह जाँचने के लिए कोई ईसीजी नहीं किया गया कि बच्चा जीवित था और बॉडी को बिना किसी लिखित निर्देश के सौंप दिया गया था। रिपोर्ट के मुताबिक, मृत और जीवित जुड़वा बच्चों को अलग-अलग नहीं रखा गया था।

जुड़वाँ बहन-भाई 30 नवंबर को पैदा हुए थे और दोनों को मृत घोषित कर दिया गया और माता-पिता को एक पॉलिथीन बैग में सौंप दिया गया। हालाँकि अन्तिम संस्कार से ठीक पहले, परिवार ने पाया कि नर शिशु साँस ले रहा था। कुछ दिन के बाद पीतमपुरा के एक नर्सिंग होम में शिशु की मृत्यु हो गयी। पुलिस ने इस सिलसिले में एक मामला दर्ज किया है। दिल्ली सरकार ने कथित चिकित्सा लापरवाही के आधार पर तत्काल प्रभाव से मैक्स अस्पताल, शालीमार बाग का लाइसेंस रद्द कर दिया था। इसके अलावा अस्पताल के कीपर को किसी भी नये इनडोर रोगी को स्वीकार करने से रोकने और परिसर में सभी बाहरी उपचार सेवा को तत्काल प्रभाव से बन्द करने का निर्देश दिया गया था। एक ट्वीट में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि हम निजी अस्पतालों के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते हैं; लेकिन अगर मरीज़ों को लूटा जाता है, उन्हें धोखा दिया जाता है और अस्पताल आपराधिक लापरवाही के दोषी हैं, तो एक ज़िम्मेदार सरकार होने के नाते हम ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करेंगे।

मैक्स हेल्थकेयर के अधिकारियों ने लाइसेंस रद्द करने के घंटों बाद जारी एक बयान में कहा कि हमें सुनने का पर्याप्त अवसर नहीं दिया गया है। हम दृढ़ता से मानते हैं कि यह निर्णय कठोर है, भले ही निर्णय एक व्यक्तिगत त्रुटि का नतीजा हो। अस्पताल को ज़िम्मेदार ठहराना अनुचित है और यह रोगियों के उपचार तक पहुँचने की क्षमता को गम्भीर रूप से सीमित कर देगा। यह राष्ट्रीय राजधानी में अस्पताल की सुविधाओं की कमी को बढ़ायेगा। इस बीच अस्पताल ने इस मामले में कथित रूप से शामिल दो डॉक्टरों की सेवाएँ समाप्त कर दीं। बड़े अस्पताल खुद को कैसे समृद्ध कर रहे हैं, यह भारत के प्रतिस्पर्धा आयोग के उप महानिदेशक द्वारा की गयी जाँच से समझा जा सकता है। उन्होंने जाँच में पाया कि मैक्स सुपर-स्पेशियलिटी अस्पताल, पटपडग़ंज, डिस्पोजेबल सिरीज़ की बिक्री पर 275 फीसदी से 525 फीसदी लाभ कमा रहा है। रोगियों को अपने स्वयं के फार्मेसी से ऐसे उत्पादों को खरीदने के लिए मजबूर करने के लिए अपनी स्थिति का दुरुपयोग कर रहा है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि इन मरीज़ों से इस तरह के भारी मुनाफे को निकालना मैक्स समूह के सभी 14 अस्पतालों में प्रचलित था। रिपोर्ट इंगित करती है कि कार्पोरेट अस्पतालों द्वारा मरीज़ों से भारी मुनाफा बनाने की प्रथा व्यापक रूप से प्रचलित है।

चौंकाने वाली बात यह है कि दिल्ली मेडिकल काउंसिल स्वीकार करती है कि उसे मिलने वाली अधिकांश शिकायतें चिकित्सा लापरवाही को लेकर हैं। डीएमसी अध्यक्ष अरुण गुप्ता के अनुसार, लगभग 70 फीसदी शिकायतें निजी अस्पतालों और बाकी सरकारी अस्पतालों के खिलाफ हैं। पिछले दो साल में हमें 521 शिकायतें मिली हैं। उद्धृत प्रत्यक्ष कारण गलत उपचार या अनावश्यक चिकित्सा प्रक्रिया है, जबकि शिकायतों का एक बड़ा कारण अक्सर अधिक बिलिंग है। गौरतलब है कि डीएमसी को सभी राज्य चिकित्सा परिषदों में से सबसे ज़्यादा शिकायतें मिलती हैं। पिछले दो साल में 48 डॉक्टरों को उनके गलत कामों की गम्भीरता के आधार पर अलग-अलग अवधि के लिए परिषद् से उनका पंजीकरण खत्म कर दिया गया है।