ख़तरे में उत्तराखण्ड!

वैज्ञानिकों का दावा- ‘भूकंप से दहल जाएगा उत्तराखण्ड’

शैलेंद्र कुमार ‘इंसान’

देवभूमि उत्तराखण्ड ख़तरे में है। ख़तरा प्राकृतिक है। वैज्ञानिकों ने भूकंप की चेतावनी दी है। इसलिए सिवाय जनसंख्या घनत्व कम करने के कोई उपाय नहीं है। हर साल किसी न किसी प्राकृतिक आपदा को झेलने वाला उत्तराखण्ड इंसानों के दख़ल तथा दोहन का शिकार है। लोग पहाड़ों तथा जंगलों को काटकर बस्तियों का दायरा बढ़ाते जा रहे हैं। प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज़ से पहाड़ी क्षेत्र बेहद संवेदनशील होते हैं। पिघलते बर्फ़ के पहाड़ों, विद्युत उत्पादन के लिए बनते जा रहे डैमों, सुरंगों तथा बढ़ती आबादी ने इस संवेदनशीलता को बढ़ा दिया है। यही वजह है कि उत्तराखण्ड में हर साल तरह-तरह की आपदाओं का सामना करता है।

सन् 1991 में उत्तरकाशी में आये भूकंप से 700 से ज़्यादा की जानें गयी थीं। इसी साल जोशीमठ की घटना के दौरान 13 जनवरी जोशीमठ में ही 2.9 मैग्नीट्यूड की तीव्रता से भूकंप के झटके लगे थे। इसके एक सप्ताह बाद ही पिथौरागढ़ में 3.8 की तीव्रता से भूकंप आया था। क्या नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों की चेतावनी सच साबित होगी? क्या उत्तराखण्ड में भी तुर्की जैसा भयानक भूकंप आएगा? कई बार भूकंपों, भूस्खलन, बाढ़, पहाड़ ढहने तथा बादल फटने जैसी आपदाओं ने उत्तराखण्ड को दहलाया है। जोशीमठ की घटना के ज़ख़्म अभी ताज़ा हैं। इस बीच नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों की चेतावनी ने उत्तराखण्ड में रहने वालों के मन में एक डर पैदा कर दिया है।

नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट में सिस्मोलॉजी के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. पूर्णचंद्र राव ने भूकंप के समय और तारीख़ की भविष्यवाणी करने में असमर्थता जताते हुए इस डर को और बढ़ा दिया है। पूर्णचंद्र राव के मुताबिक, उत्तराखण्ड के नीचे काफ़ी समय से एक बड़ा दबाव बन रहा है। जैसे ही यह दबाव रिलीज होने की स्थिति में आएगा, तय है कि तुर्की जैसा एक बड़ा भूकंप आएगा। उनका दावा है कि उत्तराखण्ड में भूकंप से होने वाली बर्बादी कई फैक्टर पर निर्भर करेगी तथा एक भौगोलिक क्षेत्र से दूसरे तक अलग-अलग होगी।

फ़िलहाल उत्तराखण्ड में आने वाले भूकंप पर फोकस करने के लिए नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट ने हिमालय पर 80 सिस्मिक स्टेशन बनाये हैं। इन सिस्मिक स्टेशनों से उत्तराखण्ड में भूकंप आने के सही समय का पता लगाने की कोशिश वैज्ञानिकों की टीम कर रही है। कई जीपीएस नेटवर्क उत्तराखण्ड क्षेत्र के जीपीएस प्वाइंट सतह के नीचे हो रहे बदलावों का संकेत दे रहे हैं। बता दें कि धरती की आंतरिक सतहों की गतिविधियों को जाँचने के लिए अभी तक का सबसे विश्वसनीय तरीक़ा वेरिमीट्रिक जीपीएस डाटा प्रोसेसिंग है। दरअसल वेरिओमीटर धरती के चुंबकीय क्षेत्र में होने वाले बदलावों को मापते हैं।

जोशीमठ की प्राकृतिक घटना के तुरन्त बाद शीर्ष वैज्ञानिकों की इस डरावनी चेतावनी से उत्तराखण्ड की डबल इंजन की सरकार को तत्काल सतर्क होने की ज़रूरत है। उसे जोशीमठ की तरह घटना के घटने का इंतज़ार नहीं करना चाहिए। देवभूमि उत्तराखण्ड को बचाने की ज़िम्मेदारी जितनी राज्य सरकार पर है, उतनी ही केंद्र सरकार पर भी है। इस समय उत्तराखण्ड के तहस-नहस होने की चेतावनियों के मद्देनज़र दोनों सरकारों को मिलकर इस पवित्र भूमि को बचाने की आवश्यकता है। अगर पहाड़ सुरक्षित रहेंगे, तो समतल क्षेत्र भी सुरक्षित रहेंगे। 

8.0 अथवा इससे अधिक की तीव्रता वाले भूकंप से ज़्यादा बड़ा भूकंप नहीं आता है। 5.4 से 6.0 की तीव्रता वाला भूकंप काफ़ी तबाही मचा जाता है। तुर्की में 6.3 से 7.8 की तीव्रता वाले भूकंप ने भयंकर तबाही मचा कर रख दी।

उत्तराखण्ड को लेकर वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि 8.0 मैग्नीट्यूड से अधिक तीव्रता वाला भूकंप आ सकता है। यह भूकंप पूरे हिमालय क्षेत्र को प्रभावित करेगा, जिसकी तबाही से उत्तराखण्ड ही नहीं, जम्मू से अरुणाचल तक प्रभावित होंगे। स्पष्ट है कि अगर डॉ. राव की भविष्यवाणी सच साबित हुई, तो उत्तराखण्ड के अतिरिक्त पूरे हिमालय क्षेत्र में महाविनाश होगा। हिमालय क्षेत्र अब तक चार सबसे बड़े भूकंप झेल चुका है। हिमालय क्षेत्र में आने वाले उत्तराखण्ड सिस्मिक गैप कहा जाता है।

100 साल से ज़्यादा समय बाद 8.0 मैग्नीट्यूड की तीव्रता वाला भूकंप आने की वैज्ञानिक चेतावनी से उत्तराखण्ड सरकार ही नहीं, हिमाचल प्रदेश सरकार, जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश सरकार तथा नेपाल के हिमालय के आसपास के क्षेत्र को सचेत रहने की आवश्यकता है। उत्तराखण्ड क्षेत्र में लगातार बनने वाला दबाव तथा उससे आने वाले भूकंप को वैज्ञानिक रिटर्न पीरियड कह रहे हैं। इसका मतलब यह है कि 100 से 150 वर्षों के बीच इस क्षेत्र में बड़ा भूकंप आता है।

हालाँकि भूकंप आये, इसकी कोई गारंटी नहीं है। कई बार वैज्ञानिकों की चेतावनियाँ खोखली साबित हुई हैं। आये दिन धरती पर उल्का पिंड गिरने की वैज्ञानिक चेतावनियाँ खोखली साबित होती हैं। सन् 2012 में धरती के नष्ट होने की चेतावनी भी ऐसी ही थी। परन्तु अब वैज्ञानिकों के पास आधुनिक यंत्र हैं। इन यंत्रों से वैज्ञानिक भले ही धरती की आयु और इसके समाप्त होने का अनुमान न सकते हों, परन्तु प्राकृतिक आपदाओं को कुछ हद तक भाँप लेते हैं। हालाँकि प्राकृतिक आपदाओं का पहले से पता लगाने में इंसान जानवरों की अपेक्षा काफ़ी पीछे हैं। जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है, तो सबसे पहले पशु, पक्षी, कीड़े-मकोड़े तथा ज़मीन पर रेंगने वाले जीव उस स्थान को छोडऩे लगते हैं।

वैज्ञानिक इसकी खोज में लगे हैं कि आ$िखर मूक प्राणियों के पास ऐसी कौन-सी समझ है, जिसके चलते वे प्राकृतिक आपदाओं को पहले ही भाँप लेते हैं? इस प्रयोग में इंसानों का सफल होना आसान नहीं है। इसकी वजह मूक प्राणियों की चेतना की जागरूकता है, जिसमें इंसान तभी पारंगत हो सकता है, जब वह प्रकृति से गहरे भाव से जुड़ा हो। कुछ लोग कहते हैं कि मूक प्राणियों से इंसानों के पास बुद्धि ज़्यादा होती है, इसलिए उनकी संवेदनशील क्षमता कम होती है। वहीं मूक प्राणियों के पास बुद्धि नहीं होती; परन्तु उनकी संवेदनाएँ इंसानों की अपेक्षा ज़्यादा सक्रिय होती हैं। मूक प्राणी धरती के अंदर की हलचल को इंसानों की अपेक्षा जल्दी तथा ज़्यादा महसूस कर सकते हैं। यही नहीं, ज़्यादातर मूक प्राणियों की सुनने और देखने की क्षमता भी इंसानों से ज़्यादा होती है।

सन् 2001 में गुजरात के कच्छ में 7.7 की तीव्रता से तथा सन् 2005 में कश्मीर में 7.6 की तीव्रता से भूकंप आया था। हाल के वर्षों में गुजरात, दिल्ली, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड तथा उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में कई बार भूकंप के झटके लग चुके हैं। इसके अलावा 16 जून, 1819 को गुजरात में 8.2 की तीव्रता से भूकंप आया था। इसके बाद 31 दिसंबर, 1881 में अंडमान द्वीपसमूह में 7.9 की तीव्रता से भूकंप आया था। इसके बाद 12 जून, 1897 को शिलांग में 8.3 की तीव्रता से भूकंप आया था। फिर 4 अप्रैल, 1905 को हिमाचल क्षेत्र की कांगड़ा घाटी में 7.8 की तीव्रता से भूकंप आया था। 26 जून, 1941 को फिर अंडमान द्वीपसमूह में 8.1 की तीव्रता से भूकंप आया था। इसमें एक सुनामी भी आयी, जिसने श्रीलंका में भी तबाही मचायी। फिर 15 अगस्त, 1950 को अरुणाचल प्रदेश में 8.7 की तीव्रता से भूकंप आया।

इसके बाद 21 जुलाई, 1956 को गुजरात में 6.1 की तीव्रता से भूकंप आया था। फिर 19 जनवरी, 1975 को हिमाचल प्रदेश में 6.8 की तीव्रता से भूकंप आया था। इसके बाद 20 अक्टूबर, 1991 को उत्तरकाशी में 7.0 की तीव्रता से भूकंप आया। फिर 30 सितंबर, 1993 को महाराष्ट्र के लातूर में 6.2 की तीव्रता से भूकंप आया था। फिर 22 मई, 1997 को मध्य प्रदेश के जबलपुर में 6.0 की तीव्रता से भूकंप आया था। 20 अगस्त, 1988 नेपाल से लगे भारतीय क्षेत्र में 6.3 से 6.7 की तीव्रता से भूकंप आया था। 29 मार्च, 1999 को उत्तराखण्ड के चमोली में 6.8 की तीव्रता से भूकंप आया था। 26 जनवरी, 2001 को फिर गुजरात 7.6 से 7.7 की तीव्रता से भूकंप आया था। 8 अक्टूबर, 2005 को श्रीनगर, कांगड़ा, जम्मू और कश्मीर को प्रभावित करने वाला 7.6 की तीव्रता से भूकंप आया था। 10 अगस्त, 2009 को अंडमान, निकोबार में 9.7 की तीव्रता से सुनामी तथा भूकंप आया। 18 सितंबर, 2011 गंगटोक में 6.9 की तीव्रता से भूकंप आया, जिसके झटके दिल्ली, कोलकाता, लखनऊ तथा जयपुर तक महसूस किये गये थे। 25 अप्रैल, 2012 को फिर अंडमान, निकोबार में 11.2 की तीव्रता से भयंकर भूकंप आया। 21 मार्च, 2014 को भी अंडमान, निकोबार में 9.7 की तीव्रता से भूकंप आया था।

सीमावर्ती देशों की बात करें, तो 15 जनवरी, 1934 को नेपाल 8.0 की तीव्रता से भूकंप आया था। इसके बाद 31 मई, 1935 को क्वेटा और बलूचिस्तान 7.7 की तीव्रता से भूकंप आया था। 26 दिसंबर, 2004 को उत्तरी सुमात्रा के पश्चिमी तट में सबसे भयंकर भूकंप आया, जिसकी तीव्रता 9.1 थी। इस भूकंप से भारत तथा श्रीलंका दोनों तर$फ के लोग मरे थे। प्रभावित हुए थे। 25 अप्रैल, 2015 उत्तर-पूर्व भारत में भूकंप के झटके लगे, जिसका केंद्र नेपाल था। 26 अप्रैल, 2015 को भी नेपाल के कोदारी में 6.7, की तीव्रता से भूकंप के झटके लगे, जो भारत में भी महसूस किये गये।

भूकंप की दृष्टि से पहाड़ों की तरह दिल्ली भी काफ़ी संवेदनशील है। दिल्ली में 6.3 की तीव्रता का भूकंप ही तबाही ला सकता है। सन् 2020 तक राष्ट्रीय सिस्मोलॉजिकल नेटवर्क में 745 भूकंप रिकॉर्ड किये गये, जिसमें दिल्ली-एनसीआर में सितंबर, 2017 से लेकर अगस्त, 2020 तक भूकंप की 26 घटनाएँ हुईं।

वैज्ञानिक चेतावनियों तथा बार-बार आने वाले भूकंपों को देखते हुए आगामी आपदाओं से निपटने की विशेष तैयारी की आवश्यकता है। भूकंपों को रोका जाना तो सम्भव नहीं है। परन्तु संवेदनशील क्षेत्रों पर जनसंख्या दबाव को कम किया जा सकता है तथा जान-माल के नुक़सान कम किया जा सकता है।