क्या हो रहा है हमारी एकता को

भारत एक ऐसा देश है, जिसमें अनेक मज़हबों के लोग रहते हैं। पूरी दुनिया भारत की एकता के आगे नतमस्तक हो जाती है। भारत में कई शहर, कस्बे, गाँव ऐसे हैं, जहाँ मज़हबी एकता चट्टान की तरह मजबूत है। ऐसा ही हमारा शहर बरेली भी है। बरेली में जिस तरह की मज़हबी एकता है, उस तरह की एकता दूसरी जगहों पर बहुत ही कम देखने को मिलती है। इस बात को जानने वाले प्रदेशवासियों के अलावा देश के अनेक लोग आज भी बरेली के भाईचारे की, एकता की, आपसी प्यार की मिसालें दिया करते हैं।

एक समय था, जब सुभाषचन्द्र बोस की फौजों में बरेली के अनेक हिन्दू-मुस्लिम-सिख एक साथ वतन के लिए कुर्बान होने के लिए भर्ती हो गये थे। वहीं अनेक गाँधीवादी चेहरे भी थे, जो पूरी तरह शान्ति के पैरोकार थे, अङ्क्षहसा के पुजारी थे। उन्हीं दिनों चुन्ना मियाँ और पंडित राधेश्याम जैसे लोग भी थे, जिनकी दोस्ती की मिसालें दी जाती थीं। ऐसी ही और भी मिसालें हैं, जिनकी दोस्ती के िकस्से काफी मशहूर हैं।

चुन्ना मियाँ और राधेश्याम के वारिसों ने उस एकता को कायम रखा है, जो दूसरी और तीसरी पीढ़ी के संवाहक हैं। इसी दूसरी पीढ़ी में कुछ एकता के हामी लोगों में मेरे गुरुजी डॉ. उमाकान्त शर्मा भी थे। वे मज़हबी और जातिवादी दायरों को इंसानी िफतरत की उपज और आपसी भेदभाव को महामूर्खता तथा पागलपन कहते थे। मेरे दूसरे गुरु जी रईस बरेलवी घर में कृष्ण और राम की तस्वीरें भी रखते थे। उन्होंने कई गीत-गज़ल लिखे इन महान् चरित्रों पर। इस बात को लेकर उन पर मुस्लिम समुदाय के कुछ कट्टरपंथियों ने एक बार फतवा भी जारी किया और मुकदमा भी; लेकिन •िाला अदालत ने उन्हें यह कहते हुए बरी कर दिया कि एक शायर या बुद्धिजीवी को किसी मज़हब से नहीं बाँधा जा सकता।

हमारी तहज़ीब, हमारी संस्कृति भी यही है; जहाँ हम एक-दूसरे से बेइंतिहाँ मोहब्बत करते हुए मिलजुलकर रहते आये हैं। एक-दूसरे के मज़हबों का सम्मान करते हैं और एक-दूसरे के जश्नों में, त्योहारों में खुशी-खुशी शामिल होते हैं। हमारे देश की नींव भी इसी मज़हबी एकता पर पड़ी हुई है, जिसके चलते एक दौर में टुकड़ों में बँटी रियासतें आज एक अखण्ड देश-भारत के रूप में, एक महाशक्ति के रूप में हमारे सामने हैं। मगर जैसे-जैसे वक्त गुज़रा है, हमारे इस भाईचारे में दरार पड़ी है, जो आज एक खाई का रूप लेती जा रही है। आज सामाजिक रिश्तों में ही नहीं, पारिवारिक रिश्तों में भी दरारें आनी शुरू हो गयी हैं। ऐसा भी नहीं है कि यह दरारें हमारे बीच बहुत लम्बे अंतराल के बाद आयी हैं। हमारे आपसी सम्बन्धों में ज़हर घुलने लगा है।

दु:खद है कि यह ज़हर सिर्फ दो-तीन पीढिय़ों के अंतराल में ही भरने लगा है, जो आज कई लोगों के खून में घुल चुका है। यानी हम प्यार और एकता की गाड़ी को दो-तीन पीढ़ी तक भी नहीं चला पाये और उसके चारों पहिये हमने खोलने शुरू कर दिये। क्या वजह है इसकी? क्यों हम नहीं समझ रहे कि हमारे इस तरह बिखरने से, लडऩे से, मनमुटाव से पूरा देश टूट जाएगा। वह देश जिसे हमारे बुजुर्ग प्यार, भाईचारे और एकता की धागों में बाँधकर गये। क्या हम अपनी पीढिय़ों को एक बिखरी हुई, उजड़ी हुई नफरत भरी •िान्दगी देकर जाना चाहते हैं? आज क्यों कुछ लोगों के बहकावे में आकर हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई एक दूसरे से इतनी नफरत करने लगे हैं? आिखर क्यों बदल रही है हमारी िफतरत? क्यों हम इंसान से हैवान होने पर उतारू हैं? क्यों हम एक-दूसरे के खून के प्यासे हैं? क्या यह सब करके हमारी आने वाली पीढिय़ाँ हमें माफ करेंगी? क्या वे कभी चैन-ओ-अमन से रह पाएँगी? क्या उनका जीवन कभी शुकून से कट सकेगा?

अगर आज हम इन सब सवालों पर विचार नहीं करेंगे, तो हमारा कल न तो सुरक्षित रह सकेगा और न ही आने वाली पीढिय़ाँ चैन-ओ-सूकून से रह सकेंगी। और यह हमारी •िाम्मेदारी है कि हम इंसानियत को •िान्दा रखें, प्यार को •िान्दा रखें।  बुराई से दूर रहकर ऐसे काम करें, जिससे प्रकृति का भी भला हो, मानव जाति का भी भला हो, संसार के समस्त प्राणियों का भी भला हो। हमें सोचना पड़ेगा कि आिखर हम ईश्वर को बाँटने की नाकाम कोशिश में कब तक मज़हबी दीवारों में कैद होकर आपस में लड़ते-झगड़ते और एक-दूसरे से नफरत करते रहेंगे।

क्या हम आसमान बाँट सकते हैं? क्या हम पृथवी के टुकड़े कर सकते हैं? क्या हम हवा, पानी, आग, खुशबू, पक्षियों आदि पर पहरा लगा सकते हैं? जब हम एक ही हवा में मिलकर साँस लेते हैं, एक ही ज़मीन पर रहते हैं, एक ही तरह की जीवनचर्या जीते हैं, एक ही तरह से पैदा होते और मर जाते हैं, तब फिर अलग-अलग सोच के चलते एक-दूसरे के खून के प्यासे आिखर क्यों हो जाते हैं? क्या हम और तरक्की नहीं कर लेंगे, जब मिलकर रहेंगे? क्या दुनिया को हम स्वर्ग नहीं बना सकते? ज़रूर बना सकते हैं। हर मज़हब के अनेक लोग इस काम को कर भी रहे हैं। अन्यथा यह दुनिया आज एक जंग का मैदान ही होती।

हमें सिर्फ इतना ही सोचना और समझना काफी है कि अगर हम चैन-ओ-सुकून से जीना चाहते हैं, तो दूसरों को भी चैन-ओ-सुकून से जीने भी देें। जिस दिन इस बात पर सभी अमल करने लगेंगे, उस दिन हर आदमी इंसान बन जाएगा। सबकी •िान्दगी चैन-ओ-सूकून से गुज़रेगी। जब सभी लोग एक-दूसरे के मज़हब का आदर करेंगे, तब ही मज़हबी दीवारें किसी के लिए भी बाधा नहीं बनेंगी। हम मज़हबी दीवारों में खुद को जितना बन्द कर लेंगे, उतनी ही संक्रीणता हमारे दिलों पर हावी हो जाएगी और हम आपसी अपने ही दुश्मन हो जाएँगे।