क्या कभी कभार, कोई अंधेरा समय रोशनी भी होता है

कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी से साहित्य, समाज और भविष्य पर पुण्य प्रसून वाजपेयी की अभी हाल हुई बातचीत के कुछ अंश।

हम गाढ़े अंधेरे में

यों तो हाथ-को-हाथ नहीं सूझता

लेकिन साफ-साफ नज़र आता है

हत्यारों का बढ़ता हुआ हुजूम

उनकी खूंखार आंखें

उनके तेज धारदार हथियार

उनकी भड़कीली पोशाकें

मारने नष्ट करने का उनका चमकीला उत्साह

उनके सधे सोचे-समझे कदम

हमारे पास अंधेरे को भेदने की कोई हिम्मत नहीं है

और न हमारी आँखों को अंधेरे में देखने का कोई वरदान मिला है।

फिर भी हमको यह सब साफ नज़र आ रहा है

यह अजब अंधेरा

जिसमें सब कुछ साफ दिखाई दे रहा है।

जैसे नीमरोशनी में कोई नाटक के दृश्य

हमारे पास न तो आत्मा का प्रकाश है

और न ही अन्त:करण का कोई आलोक:

यह हमारा विचित्र समय है

जो बिना किसी रोशनी की उम्मीद के

हमें गाढ़े अंधेरे में गुम भी कर रहा है

और साथ ही उसमें जो हो रहा है

वह दिखा रहा है:

पुण्य पुण्य प्रसून वाजपेयी: ‘गाढ़े अंधेरे में’ आपकी कविता। यह कविता आपने कब लिखी?

अशोक वाजपेयी: मेरा ख्याल है उस ज़माने में, जिस ज़माने में बाबरी मस्जिद के बाद गुजरात के दंगे हुए थे। उस सय इस तरह का माहौल बन रहा था। लेकिन अंधेरा तो हमारे यहां वर्षों से फैल रहा है। अंधेरे के बारे में बात करना थोड़ा कम हो गया है। लोग चकाचौंध से बहुत मोहित होते है। चकाचौंध पिछले चार-पांच-छह वर्षों में बहुत बढ़ी है। वह चकाचौंध अंधेरे को छुपाने वाली है। वह रोशनी नहीं है। कम-से-कम मुझे ऐसा लगता है। राजनीतिक चेतना नहीं है।

पुण्य पुण्य प्रसून वाजपेयी: इस दौर में लिखना भी मुश्किल हो गया है।

अशोक वाजपेयी: लेखक वही होता है जो हर मुश्किल के बावजूद लिखने की हिकमत निकाल लेता है। वह लेखक क्या जो अंधेरे से डर जाए। दुनिया में और हिन्दुस्तान में भी सारी पाबन्दियों के बावजूद लोगों ने लिखा है। लिखना अपने आप में एक रोशन काम है अगर लेखक इसकी हिम्मत करता है। दूसरी बात यह कि जिस दौर में लोगों ने लिखा उस दौर में हम में से ज्य़ादा लोग युवा थे। किसी भी दौर में सबसे अधिक प्रमाणिक आवाज़ युवा की होती है।

हमारे दौर में दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। हम लोग जो बूढ़े लोग हैं, अधेड़ लोग हैं हम लिख रहे हैं। हम कोशिश कर रहे हैं कि इस अंधेरे की शिनाख्त कर सकें। हम बता सकें उन्हें जो भी हमारी बात सुनें। इस अंधेरे को भेदना ज़रूरी है। इसके आर-पार देखे बगैर हम रोशनी की तरफ नहीं जा सकते। लेकिन जो युवा हैं उनमें यह सजगता नहीं है। यह बड़े दुर्भाग्य की बात है।

पुण्य पुण्य प्रसून वाजपेयी: ऐसा क्यों?

अशोक वाजपेयी: देखिये, इस समय हिन्दी प्रदेश जो है वो काहे की चपेट में हैं। धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता, नफरत, भाईचारे के आभाव और आपसदारी का लोप। यह सब हिन्दी अंचल में बड़े पैमाने पर है। क्योंकि हम इतने बड़े अंचल हैं। दूसरी जगह भी थोड़ा बहुत होता है। सबसे ज्य़ादा यहां होता है। अब हिन्दी भाषा ही इन सब की भाषा बन गई है। गाली गलौज की भाषा बन गई है। संवाद नहीं है। उसमें विवाद नहीं है। हम आपस में मिलकर एक दूसरे से असहमत हों, फिर भी मिलकर बात तो कर सकते हैं।

विजय देव नारायण साही और नामवर सिंह एक दूसरे से असहमत थे। लेकिन दोनों का एक दूसरे से संवाद किये बिना काम नहीं चलता था। मैं और नामवर सिंह वर्षों एक दूसरे से असहमत थे लेकिन हमारा काम बिना एक दूसरे से बहस किये बगैर नहीं बनता था। यह प्रक्रिया थी प्रश्न पूछने की। हर एक को यह भ्रम होता है कि प्रश्न पूछना ही बन्द हो गया है। कौन से प्रश्न हैं जो आप पूछ रहे हैं। अपने समाज के अपनी भाषा के बारे में। यह तो कोई प्रश्न नहीं हो सकता है कि किसको कितना पुरस्कार मिला या नहीं मिला। फलाने को मिल गया। उसने तिकड़म से पा लिया। यह कोई प्रश्न है और ज्य़ादा गंभीर प्रश्न है जैसे इस देश का भविष्य, इस देश की नियति। लोकतंत्र और संविधान की नियति आज दांव पर हैं। युवा कोई प्रश्न नहीं पूछेंगे। वह भी साहित्य में नहीं तो फिर कहां पूछेंगे। साहित्य में प्रश्न पूछना जो है वह काफी परोक्ष ढंग से चालाक ढंग से। लेखक चालाक और चौकन्ने दोनों हो सकते हैं। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं या ऐसी हिकमत नहीं कर पाते है तो युवाओं पर यह बहुत बड़ा गंभीर राजनैतिक चूक का आरोप है।

पुण्य प्रसून वाजपेयी: आप जिस तरह से परिस्थिति को रख रहे हैं। उसमें हम नया परिवर्तन देख रहे हैं जो सवाल खड़े कर रहे हैं मौजूदा वक्त उसकी इजाजत नहीं दे रहा है। साहित्य कर्म से जुड़े हुए शख्स को किस बात की इजाज़त चाहिए। आप कह रहे हैं कि जागरूकता नहीं है। समझ ही विकसित नहीं हो पा रही है। क्या है यह सब?

अशोक वाजपेयी: ऐसे युवा लेखक विकसित करना या खोजना आज मुश्किल है। ऐसे प्रश्नवाचक हों, जिनमें प्रश्न करने का साहस हो।

पुण्य प्रसून वाजपेयी: साहस क्यों न हो।

अशोक वाजपेयी: देखिये, हिन्दी में आज व्यापक लेखक समाज है। उसमें जो अधेड़ और वरिष्ठ वर्ग है और महत्वपूर्ण लोग हैं उनमें से किसी ने अपना पाला नहीं बदला। जिस राह पर वे पहले थे, जिन मूल्यों को लेकर वे संघर्षरत थे उस पर आज भी है। कुल मिलाकर उन्हीं मूल्यों से वे बंधे हुये हैं। जो युवा वर्ग आया है इसमें उस तरह के मूल्य बोध की कमी है और संघर्ष की भी। इसलिए इक्का-दुक्का अपवाद मिल जायेंगे। मुझे यह लगता है कि ये जो युवा है वह हिन्दी भाषा, हिन्दी समाज और हिन्दी राजनीति इन तीनों को नज़रअंदाज करता हुआ वर्ग है। मैं अतिश्योक्ति करते हुए कहना चाहूंगा कि इनमें साथ विश्वासघात करता वर्ग भी है।

पुण्य प्रसून वाजपेयी: किनके साथ?

अशोक वाजपेयी: हिन्दी समाज के साथ, हिन्दी साहित्य परम्परा के साथ, हिन्दी साहस के साथ और हिन्दी की अपनी जो संस्कृति है उसके साथ। बतौल्त ब्रेख्त ने कहा था, ‘जिस जुर्म के बारे में आप चुप हैं। फिर आप उसमें शामिल हैं। आपकी चुप्पी अगर चतुर चुप्पी है, आत्मरत चुप्पी है, चालाक चुप्पी यह अवसरवादी चुप्पी है। तो यह चुप्पी साहित्य के लिए उचित नहीं हो सकती, ये अनैतिक चुप्पी है।’ लेकिन ऐसा वक्त हो सकता है। जब चुप्पी भी दहाड़ हो। अज्ञेय ने कहा था आपातकाल के दौरान ‘चुप की दहाड़।’ चुप रहकर भी आप दहाड़ सकते हैं।

ऐसा क्यों हुआ कि चार लेखक बुद्धिजीवी मारे गये वो वे सभी विंध्याचल के नीचे के थे। ऐसा क्यों हुआ कि सबसे ज्य़ादा हत्याएं और इस तरह का दंगा फसाद हिन्दी अंचल में होता है। लेकिन हिन्दी अंचल में तो कोई मारा नहीं गया। हिन्दी लेखकों को जेल में नहीं ठूंसा गया। हिन्दी में कौन सा युवा लेखक है जिन्होंने नौकरी गंवा दी। मुझे यह अवसरवादिता लगती है। एक तरह की चतुर राजनीतिक प्रतीक्षा। अगर वक्त बदला तो हम शुक्र है कि इसमें शामिल हो जायेंगे। नहीं बदला तो यह चुप्पी रहेगी।

पुण्य प्रसून वाजपेयी:मुझे लगता है खतरे और बढ़ेंगे। जो नज़र आ रहा है उससे भी बड़ा खतरा होगा या तो चीज़ें बदल जाएंगी या फिर लेखक बदल जाएंगे। क्या यह सिर्फ अवसरवादिता है?

अशोक वाजपेयी: इसे सिर्फ अवसरवादिता नहीं कहा जा सकता। इसमें और भी गंभीर संकट शामिल हैं। गंभीर संकट यह है कि वह लेखक अपनी सांस्कृतिक जिम्मेदारी न समझे। सिर्फ समाज के बने बनाये फार्मूले ज्य़ादातर वामपंथी और समाजवादी किस्म के फार्मूले बरतकर आप अपनी समाज निष्ठा प्रकट नहीं कर सकते। दूसरा यह कि जब मौका है तो आप आवाज़ उठा सकते है। आप आवाज़ उठायें और उस आवाज़ उठाने की कीमत चुकायें। जो भी कीमत होती हो, तब चुप रहना एक गहरे संकट की ओर इशारा करता है। यह अवसरवादिता ही नहीं बल्कि कायरता है। मैं हिन्दी का ही लेखक हूं। 60 वर्ष से इसी में मर खप रहा हूं और इसी में मेरी अंत्येष्टि भी होगी। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन इस भाषा ने मुझे बहुत कुछ दिया विवेक दिया, हिम्मत भी दी और साहस भी। अकेलेपन में जोखिम में पड़ जाने और जोखिम उठाने का अवसर और हौसला भी दिया। जिससे भाषा में नफरत का विरोध न हो। धर्मान्धता का विरोध न हो। व्यवस्था का विरोध न हो। पिछले 60 बरस साहित्य के सभी चारित्रिक गुण हैं।

पुण्य प्रसून वाजपेयी: समाज पर बहस आपके दौर में ज्य़ादा होती होगी। चौक-चौराहे पर बैठ कर लोग ज्य़ादा चर्चा करते होंगे। हम लोगों ने भी शायद देखी है। लेकिन ये सारी चीजें धीरे-धीरे खत्म हो गई। जि़ंदगी जीने के तरीके बदल गये। क्या शिक्षण संस्थानों की पढ़ाई इसकी वजह हो सकती है?

अशोक वाजपेयी: देखिये, हिन्दी अंचल के विश्वविद्यालयों पर ज़रा नज़र डालिये। उनमें से एक आध ही बनारस हिन्दू विद्यालय या अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ही ऐसे दो विश्वविद्यालय हैं जहां थोड़ी हिम्मत और कुछ खुलापन अब भी है। बाकी हमारे सारे विश्वविद्यालय ध्वस्त हो चुके हैं। विश्वविश्वविद्यालय ही थे जो ज्ञान का केन्द्र थे। विवाद और बहस के चौक थे। जहां ढंग से सोचने की लोगों में हिम्मत थी। पुराने के आने पर प्रश्न चिन्ह उठाते थे। पुराने को ठीक से जानने की कोशिश भी करते थे। यह विश्वविद्यालय का ही काम था। अब विश्वविद्यालयों की हालात क्या है? उनमें एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसका साहित्य में कोई नाम भी जानता हो। कई विभागाध्यक्ष हैं पता नहीं वे आचार्य हैं या प्रोफेसर हैं जो भी हैं। अपने-अपने तर्क से हुए हैं। बड़ी-बड़ी तन्ख्वाहे मिलती हैं। लगभग निरपवाद रूप से साहित्य और भाषा के प्रति अपनी जिम्मेदारी इनमें से कोई नहीं निभाता। कोई निभाता भी होगा तो मैं जानता नहीं। ये लोग बुलाते हैं तो मैं जाता रहता हूं। अज्ञान का ऐसा घटाटोप अगर सिर्फ राजनीति में होता और अज्ञानता के साथ विकसित होता तो आप राजनीति को दोष दे सकते थे। लेकिन आज अज्ञान इस कदर घटाटोप पैदा कर रहा है कि विश्वविद्यालयों में भी प्रश्न पूछना गलत है।

पुण्य प्रसून वाजपेयी: जब आप लोगों ने चार साल पहले साहित्य सम्मान वापस करने का निर्णय लिया तो क्या आपने कुछ महसूस किया था। क्या आपको नहीं लग रहा था कि आज भी वैसी ही प्रक्रिया है। फिर हमारा समाज आन्दोलन में नहीं जा रहा है। खामोश है। यह खामोशी या चुप्पी है वह दहाड़ में बदल भी नहीं रही है। क्यों आपको लगता है कि साहित्य के भीतर से निकलते हुए शब्दों को अब सड़क पर निकलने का वक्त आ गया है।

अशोक वाजपेयी:मेरा ख्याल है कि सविनय अवज्ञा यानी नये नागरिक अवज्ञा का समय है। पिछले पांच एक बरस में विभिन्न प्रदेशों में उपलब्धियां क्या हैं। पहले से ज्य़ादा नफरत, पहले से ज्य़ादा आपस में बंटबारा, पहले से ज्य़ादा एक दूसरे पर शक, पहले से ज्य़ादा डर, पहले से ज्य़ादा पाबंदियां का घेरा। पहले से ज्य़ादा, सारी संस्थाओं का कद और अधिकार में कटौती करने की कोशिश। ये सब पहले से ज्य़ादा है। ऐसा नहीं था कि पहले सब अनुकूल ही था। पर तब प्रतिरोध भी था। आखिर हमारे यहां शिक्षा की जो हालत है, शैक्षणिक क्षेत्र में जो हो रहा है तरह-तरह के नियम लागू किये जा रहे हैं, नये आरक्षण के नियम, फलाने नए नियम आ जाते हैं और इतना बड़ा शिक्षक समाज इसका एक प्रतिशत भी उनके विद्धध या पक्ष में अपनी आवाज़ नहीं उठाता। लाखों अध्यापक हैं, वे शिक्षा की इस बदहाली पर मौन हैं। उनमें एक प्रकार की संकीर्णता लायी जा रही है। उसमें विचित्र भारत की कल्पना की जा रही है।

पूण्य प्रसुन वाजपेयी : लेखक के तौर पर आप समाज को कैसे देखते हैं। हम देखते हैं कि शिक्षक का आंदोलन रोस्टर पर, पर्मानेंट करने पर दिखता है। छात्रसड़क पर उतरते हैं कि इतने को फ ेल क्यों कर दिया गया यूनिवर्सिटी में। इस दौर में आपका नज़रिया क्या बन रहा है इस समाज को लेकर। हम लोग किस दिशा में जा रहे हैं।

अशोक वाजपेयी : देखिए, मैं कहना तो नहीं चाहता। लेकिन मुझे अंधेरा बढ़ता नज़र आ रहा है। अंधेरे का प्रतिरोध तो सजग नागरिक ही करेंगे ना और अधिक सजगता नागरिकों के किस वर्ग में होनी चाहिए जो पढ़े-लिखे लोग हैं और जो ज्ञानी हैं। अगर आप हिंदी अंचल देखें तो वहां साक्षरता बढ़ती गई है। उसी अनुपात में धर्मांधता और सांप्रदायिकता भी बढ़ती है। पहले था कि पढ़े-लिखे लोग होंगे तो उनका दिमाग कुछ रोशन होगा, खुला होगा, दुनिया जहां की बातें सीखी समझी जाएंगी। किसी तरह की संकीर्णता में वे गिरतार नहीं होंगे। उस ज़माने में थोड़ी बहुत वैचारिक संकीर्णता भी थी । अगर आप कानपुर के कायस्थ हैं तो आप कायस्थ को ज्य़ादा बढ़ावा देंगे या नियुक्ति देंगे। दूसरी बात थी वैचारिक । अगर आप माक्र्सवादी हैं, फलाने हैं तो आप ठीक हैँ, नहीं तो आप गलत हैं। यह सब पहले भी होता था। परन्तु इसका इतना दुष्प्रभाव पाठ्यक्रमों पर नहीं पड़ता था। लोग फि र भी किसी न किसी तरह से एक व्यापक दृष्टि रख के पढ़ लेते थे।

अब हालत यह है कि एक नया चोंचला पैदा हो गया है वह है सोशल मीडिया और गूगल। आपको ज्ञान की ज़रूरत ही नहीं है क्योंकि सारा ज्ञान वहां है। तो हम धीरे-धीरे कमतर किस्म के नागरिक बनने पर मज़बूर हो रहे हैं। अपने लिए इस समय नागरिकता का अनिवार्य कत्र्तव्य प्रतिरोध है। जबकि नागरिकता का एक बहुत बड़ा हिस्सा मंथन, प्रंशसा और भक्ति में लगा हुआ है। हमारे जो भक्ति काव्य हैं उनमें भी प्रश्न पूछा गया है। तुलसीदास ने मानस में कहलवाया है कि अयोध्या में राम राज्य स्थापित होने के बाद, अयोध्या के नागरिकों के लिए कहलवाया है कि ‘मेरे भाईयों तुहें लगता है कि अगर मैं कोई अनीति कर रहा हूं तो बिना डर के मुझे टोकना।’ यह तुलसीदास ने लिखा है। हमारी परंपरा में तो हमने राम को भी नहीं बशा है कि तुम गड़बड़ करोगे तो हम पूछेंगे। आज इतनी अनीति व्यापक है कि नीति की तो जगह ही नहीं रह गई। इस समय अल्पसंयक क्या है। सिर्फ जातियां और भाषिक सप्रदाय नहीं है। अल्पसंयक है सच अल्पसंयक हैं अहिंसा, अल्पसंयक है ज्ञान। ये सब अल्पसंयक हो गए। यह विचित्र समय है। इनको अल्पसंयक बनाकर ये हाशिए पर चले जाएं। कुछ भी कोई कह सकता है और कह कर इतिहास की, राजनीति की तरह-तरह की व्याया है। पहले भी व्याया अलग-लग हो गई थी, परन्तु इसमें वाद-विवाद हो सकता था। परन्तु आज गाली-गलौच होती है। क्योंकि तू फ लांना है। तेरा फ लाना अतीत है। इसलिए तेरा प्रश्न पूछना गलत है। लोकतंत्र प्रश्नवाचकता पर आधारित होता है। लोकतंत्र प्रश्नवाचकता मात्र पर नहीं इसमें भागीदारी और हिस्सेदारी समझने पर आधारित होता है। जो प्रश्न पूछेगा नहीं वह लोकतांत्रिक हो नहीं सकता। इस अर्थ में लोकतंत्र हर व्यक्ति को राजनीतिक बना देता है। क्योंकि उसे प्रष्न पूछने की आज़ादी है। अब प्रश्न पूछने की इच्छा ही मर गई है अगर मान लीजिए व्यापक समाज में प्रश्न पूछना ज़रूरी नहीं रह गया है और सारे उत्तर मिल रहे हैं तो कम-से-कम साहित्य में तो प्रश्न पूछने से गुरेज नहीं होना चाहिए।

पुण्य प्रसून वाजपेयी : इंदिरा से लेकर मौजूदा मोदी काल तक के वक्त में कौन-कौन से अंधेरे थे? किस से आपको लगता है कि उस दौर में साहित्य बहुत उभर कर आया। अंधेरे में ही साहित्य को रोश्नी मिली?

अशोक वाजपेयी : देखिए, एक तो आपातकाल था। आपातकाल में कुछ लोगों ने स्पष्ट विरोध किया। ये मत भूलिए कि कुछ वामपंथी लेखक ों ने समर्थन भी किया। पर कुल मिलाकर उस दौर में रधुवीर सहाय, धर्मवीर शास्त्री, श्रीकांत वर्मा। श्रीकांत वर्मा का ‘मगध’ कविता संग्रह उसी दौरान लिखा गया है। उस समय वह कांग्रेस पार्टी में महासचिव थे। वे बड़े शक्तिशाली थे। उन्होंने लिखा कौशल अधिक दिनों तक टिक नहीं सकता। कौशल में विचारों की कमी है। यह श्रीकांत वर्मा कह रहे हैं अस्सी के दशक में। अपनी मृत्यु से पहले।

पूण्य प्रसुन वाजपेयी : उनका सवाल वसन्त सेना को लेकर था?

अशोक वाजपेयी : वह भी है। ‘मगध’ काव्य संग्रह है। रधुवीर सहाय, विष्णु खरे ऐसे बहुत सारे कवि थे। अज्ञेय में स्वयं अलग ढंग से रोशनी को व्यक्त किया । दूसरा बाबरी मस्जिद ध्वंस हुआ उसके बाद हम में कई का अन्त:करण विचलित हुआ। हम में से अनेक ने लिखा। तीसरा काल आता है जब 2002 के दंगे होते हैं। उस समय महाश्वेता देवी, के सच्चिदानंदन, अपूर्वानंद और हम गुजरात के दौरे पर गए थे। हालत देखने और उसके बाद फि र बहुतों ने उसके बारे में लिखा। उसके बाद फि र समय बदल गया। लेकिन इस बीच जो लगातार होता रहा है उसमें वह तीन बातें हैं। एक भारतीय प्रशासन जिसकी शुरूआत इंदिरा गांधी के ज़माने से शुरू हुई और प्रशासन धीरे-धीरे पालतूपन यानी एक तरह की स्वामी भक्ति बढ़ी। धीरे-धीरे उसके निर्णय की स्वतंत्र बुद्धि को प्रभावित करने लगी।

सामूहिक रूप से, अपवाद इधर-उधर थे सो हमेशा थे। दूसरी बात हुई राजनीति में विचारों की विदाई। राजनीति प्रबन्धन का मामला हो गया। कौन कैसे मैनेज कर सकता है उसमें विचारों की भूमिका लगभग नहीं है। ये बात हुई। तीसरी बात जो हुई एक तरह से उत्साह जनक हुई कि दलित स्त्रियों ने अपनी आवाज़ उठानी शुरू की। फि र उसके इर्द-गिर्द वोट बैंक की राजनीति घुस गई। ये तीनों बातें होती रही।

इस बीच साहित्य और उपन्यासकार बड़े-बड़े लेखक थे। कृष्णा सोबती, बालदेव वैद, श्रीकांत शुक्ल वगैरह। इन सबने अपने को समाज में क्या हो रहा है बिना आत्मबोध को गवाए हुए, बिना अपनी आत्मिक अद्विता से कोई समझौता किए हुए सबने कुछ-न-कुछ ऐसा किया। कहानी में हुआ, कविता में हुआ। जब यूपीए की सरकार ढगमगाने लगी, भ्रष्टाचार आदि के आरोप लगे। एक भी आरोप आज तक तो सिद्ध नहीं हुआ आरोपों का एक घटाटोप तैयार कर दिया गया था।

तब एक नया दौर आया जिसमें कुछ लोगों को लगा कि यह दौर असहिष्णुता बढ़ाने वाला होगा। हमारे समाज में अनेक तरह की असहिष्णुता शुुरू से ही रही है। लेकिन उस असहिष्णुता का इस तरह से मुखर वाचाल होने का, सक्रियता का और सत्ता द्वारा चुप रहकर उसका समर्थन करने का अवसर भारतीय राजनीति में पहले कभी नहीं था। अवसरवादी राजनीति हो या वामपंथी । लोग भले उससे सहमत रहे हो लेकिन नक्सलवादी हिंसा का समर्थन कभी नहीं करते थे। हिंसा के लिए राज्य को भले ही वह दोषी ठहराते हों, लेकिन वामपंथियों ने कभी नहीं कहा कि वे हत्या कर रहे हैं तो ठीक है, जायज है, मगर हम चुप रहे। आज अब यह दौर आया जहां जैसे लेखक चुप हैं वैसे ही सत्ता भी। बहुत सारी चीजों पर लेखक चुप हैं। उसकी अनदेखी होने लगी लोग मारे जाने लगे। जो मारा गया उसके हत्यारों का पकडऩे की बजाए उसके रिश्तेदारों को ही पकडऩे लगे। यानी वह मारा क्यों गया। जैसे उसके मारे जाने में भी उसका दोष हो, हत्यारों का नहीं। वगैरह-वगैरह ऐसी घटनाएं हुई।

2015 में हम लोगों को लगा कि अब इसका विरोध करना ज़रूरी है। अब लेखकों के पास विरोध करने के साधन क्या हैं। देखिए लिखे को पढऩे वाले कितने हैं? व्यापक समाज में लेखक कुछ कहना चाहते हैं ये बात आए कैसे? नयनतारा सहगल ने मुझसे बात की न उदय प्रकाश ने हमसे कुछ कहा। हम तीन लोग थे, आगे बढ़े सबसे पहले । और बाद में जिन्होंने वापस किया उनमें से किसी ने हमसे बात नहीं की। कोई संवाद किसी से नहीं हुआ। लेकिन अपने आप 60 ये अधिक लेखकों ने अपने पुरस्कार वापस किए। कुछ लोगों ने कहा कि ये पुरस्कार साहित्य अकादमी का है। लेकिन साहित्य अकादमी भी तो भाारत सरकार द्वारा ही घोषित संस्था है। वह अगर लेखकों की हत्या पर चुप रहती है। तो हम उसका विरोध कर रहे है।

उनमें से कुछ पहले पृष्ठ पर आते ही नहीं, अगर वह मर न जाते। अमूमन जीवित लेखक प्रथम पृष्ठ पर नहीं आते और न टीवी चैनल पर आते हैं। उन दिनों जाना था फ्र ांस और कनाडा। सो चला गया था। यही या नहीं ज्.यादातर वक्त । लेकिन फि र भी यह था लेखकों का स्वत: स्फूर्त अभियान। जिसे सत्ताधारियों ने कहा, ‘मैनुफै क्चर्ड इंटालरेंस’ है। जबकि अपनी जगह जाकर सब कह रहे हैं। हमारे यहां कोई असहिष्णुता नहीं है। विश्व की फ ोरम पर जाकर लोग कह रहे हैं। आखिर आज तक कलबुर्गी, पंसारे, गौरी लंकेश की हत्या के किसी कथित अपराधी की पहचान नहीं की गई। चार पांच बार सुप्रिम कोर्ट, हाईकोर्ट पुलिस को फ टकार लगा चुकी है। लेकिन कुछ हुआ नहीं । यह क्या लेखकीय मुद्दा नही? यह एक व्यापक मुद्दा था।

पूण्य प्रसुन वाजपेयी : ये आप सही कह रहे हैं लेकिन आपको मौजूदा वक्त को देखते हुए जो एक गुस्सा हुआ। जो भी त्रासदी थी। वह लेखन के तौर पर क्यों न आ सकी। आपने इस दौर में क्या लिखा है। कविता के तौर पर। जिस अंधेरे का जि़क्र हम बार-बार कर रहे हैं । इसमें यह भी आ रहा है कि युवा तबका कुछ लिख ही नहीं रहा है। जो रोशनी दिखा दे।

अशोक वाजपेयी : आई कुछ तो आई। इस दौर में मैं तो एक साप्ताहिक स्तंभ भी लिखता रहा।

उमीद का घर

उन्होंने सब कुछ ढहा दिया है

और अब जगह बिल्कुल साफ ़ है

वहां पहले क्या था

इसका कोई निशान बाकी नहीं रह गया है

हमारे समय में

कोई जगह खाली नहीं छोड़ी जाती थी

सो देर सवेर

प्रस्तुति: गोविंद झा

साभार: सूर्य टीवी चैनल