कोचिंग नगरी की अर्थ-व्यवस्था हुई चौपट

कोटा केवल उफनती चंबल के लिए ही मशहूर नहीं है, बल्कि यह शहर देश-परदेश से आने वाले लाखों छात्र-छात्राओं का भी आकर्षण स्थल है, जो इंजीनियर और डाक्टर बनने का सपना पाले प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए यहाँ आते हैं। रोज़गार, खपत और ग्रोथ की सम्भावनाओं के नज़रिये से देखा जाए तो कोटा की अर्थ-व्यवस्था पूरी तरह कोचिंग संस्थानों पर टिकी रही है। कोरोना की भयावह दस्तक से पहले कोटा कारपोरेट से लेकर हर स्तर के व्यापारियों का स्वर्ग था। कोटा के वैभव के िकस्से देश के हर शख्स की ज़ुबान पर थे। इस समृद्धि में कारोबारी, होटल-रेस्तरां से लेकर फुटकर कारोबारी भी बराबर के हिस्सेदार थे। ऑटो चालकों से लेकर पोहा-जलेबी के ठेले लगाने वालों के लिए भी मुनाफे के सुनहरे दिन थे। सन् 2019 की आर्थिक समीक्षा बताती है कि कोटा में ग्रोथ का परचम पूरी तरह कोचिंग क्षेत्र के हाथ में था। लेकिन मार्च, 2020 के बाद कोटा की अर्थ-व्यवस्था अपने इतिहास की सबसे तेज़ विकास दर के बाद ढलान की तरफ लुढ़कनेे लगी। कोरोना की महामारी ने जैसे ही अपने डैने फैलाये, कोटा आने वाले छात्र अपने घरो की दहलीज़ पर ही ठिठक कर रह गये। कोटा की अर्थ-व्यवस्था चोला बदल चुकी थी और छात्रों की चहल-पहल से भरे रहने वाले कोचिंग परिसर में सन्नाटा पसर चुका था। कोचिंग संचालकों ने अपना ध्यान बुनियादी चुनौतियों पर केंद्रित करते हुए ऑनलाइन पढ़ाई का वैकल्पिक मार्ग चुन लिया और अपने राजस्व के स्रोत को सुरक्षित कर लिया। लेकिन 12,000 करोड़ के समानान्तर उद्योग गति नहीं पकड़ सके। सबसे ज़्यादा बंटाधार तो रियल एस्टेट का हुआ, जिसने करोड़ों की पूँजी लगाकर छात्रों को किराये पर चढ़ाने के लिए बड़े-बड़े अपार्टमेंट बना लिये। लेकिन आज इन वीरान इमारतों में बिल्डर्स का दर्द तप रहा है।

फलते-फूलते कोचिंग उद्योग के चलते शिक्षा के पाटलिपुत्र के नाम से प्रख्यात कोटा की अर्थ-व्यवस्था में जो ठसक आयी थी, वो कोराना की चपेट में आकर अंतहीन दु:स्वप्न में बदल गयी है। गगनचुम्बी होटलों, होस्टलों, ईटिंग ज्वाइंट्स समेत कोचिंग से जुड़े लगभग 300 समानांतर उद्योगों में भारी पूँजी लगाकर दौलत उलीच रहे कारोबारी बुरी तरह पस्ती की हालत में हैं। कोचिंग के तले पूँजी की ज़मीन निहारने में जुटे रहे कारोबारियों को चाँदी की चमक ने इस कदर गाफिल किया  कि उन्हें करोडीलाल से कोड़ीलाल हो जाने का गुमान  तक नहीं हुआ। उनके आनंद की सुखसेज पर सितम तो तब टूटा, जब कोचिंग पर कोरोना का कहर टूटा। आज 24,000 करोड़ का कोचिंग उद्योग चैपट हो चुका है। एलन और रेजोनेंस समेत कोई आधा दर्ज़न मुख्य इकाइयों में बँटे कोचिंग संस्थानों ने छोटे-मोटे ऑपरेशन कर लम्बे-चौड़े स्टॉफ को उँगलियों में समेट लिया है। भविष्य में फलने की उम्मीदें सँजोये कोचिंग संचालक तो डिजिटल शिक्षा की पटरी पर उतर लाये हैं। लेकिन कोचिंग की छत्र छाया में किसी भी अनहोनी से अंजान कारोबारी तो कंगाली की दहलीज़ पर सिर पटक रहे हैं। कोचिंग उद्योग पर आँख मूँदकर भरोसा करने वाले करीब 2,500 कारोबारी कर्ज़ के बोझ में दब चुके हैं और लेनदारों की लानतें झेल रहे हैं। अर्थ-व्यवस्था की ज़रूरी बातों की अनदेखी करने वालों को अब इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। सबसे ज़्यादा मार रियल एस्टेट पर पड़ी, जिसने पिछले दो दशकों में सबसे ज़्यादा निवेश किया। छात्रों के आने की उम्मीद में बैंकों से कर्ज़ लेकर बनायी गयी इन विशाल इमारतों में अब कबूतर पर फडफ़ड़ा रहे हैं। कोई ढाई लाख लोग बेरोज़गारी की चपेट में आ गये हैं। कोटा में हर साल प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंग के लिए देश के कोने-कोने से कोई डेढ़ लाख छात्र आते हैं। 30,000 करोड़ के धक्के सेे घबराये हुए कारोबारियों को कर्ज़ का मर्ज बुरी तरह सता रहा है। जोखिम भरे असुरक्षित कर्ज़ के चलते कुछ कारेाबारी आत्महत्या भी कर चुके हैं। बाज़ार टूटने से कारोबारियों के हाथ इस कदर जल गये हैं कि उन्हें कोई मरहम भी नहीं सूझ रहा। कोटा की अर्थ-व्यवस्था को बड़ा आघात तो नौंवे दशक के उत्तराद्र्ध में भी लगा था। इस दौर में कोटा के सबसे बड़े उद्योग जे.के. सिन्थेटिक्स के कपाट बन्द हो गये थे। कोढ़ में खाज तो तब पैदा हुई, जब ओरिएंटल पॉवर और राजस्थान मेंटल सरीखी आधा दर्ज़न औद्योगिक इकाइयों के शटर भी गिर गये। कोटा की अर्थ-व्यवस्था पर बड़ा आघात 2017 में लगा, जब कलपुर्जे बनाकर विदेशों तक में निर्यात करने वाले इंस्ट्रूमेंटेशन लिमिटेड के दरवाज़े बन्द हो गये। नतीजतन कोई 10,000 कर्मचारी बेरोज़गार हो गये। आखिर कोटा की अर्थ-व्यवस्था का नया युग गढऩे की शुरुआत आठवें दशक में हुई। जब जे.के. सिन्थेटिक्स से बेरोज़गार हुए वी.के. बंसल ने एक कमरे में कोचिंग सेंटर की शुरुआत की। बंसल की मेहनत रंग लायी और कोटा वैश्विक फलक में शैक्षिक नगरी की धुरी पर स्थापित हो गया। कोटा व्यापार महासंघ के महासचिव अशोक माहेश्वरी कहते हैं कि कोरोना के आघात ने कोटा की अर्थ-व्यवस्था की चूलें हिला दी हैं। उनका कहना है कि व्यापारियों के इर्द-गिर्द कर्ज़ संकट के पलीते जल रहे हैं। माहेश्वरी कहते हैं इस भयंकर संकट के घाट पर फिसलने की बड़ी ज़िम्मेदारी भी व्यापारियों की है। आखिर क्योंकर वे इस व्यावसायिक मंत्र को भुला बैठे कि निवेश का लक्ष्य सिर्फ एकतरफा नहीं होना चाहिए। ऐसे में अगर किसी एक कारोबार में घाटा हो जाए, तो दूसरे कारोबार से उसकी भरपाई की जा सकती है। माहेश्वरी कहते हैं कि इस घटना ने व्यापारियों को बड़ा सबक दे दिया है कि एक ही कारोबार में भारी भरकम निवेश कर देने का मतलब खुद अपने लिए ही व्यावसायिक बर्बादी का पेचीदा जाल बुन लेना है। हालाँकि इस संताप की बेला में उम्मीदें अभी ज़िन्दा हैं। लघु और मध्यम औद्योगिक इकाइयों के संगठन के संस्थापक अध्यक्ष गोविंदराम मित्तल कहते हैं कि हर रात की सुबह होती है। उनकी आशावादी सोच इस तथ्य से जन्मी है कि जे.के. सिंन्थेटिक्स समेत अनेक औद्योगिक इकाइयों के पराभव के बाद भी कोटा की अर्थ-व्यवस्था औंधी हो गयी थी। लेकिन आखिर वापस पटरी पर लौटी। हालाँकि तमाम नकारात्मक कारकों के चलते कोटा की चरमराती अर्थ-व्यवस्था अवमूल्यन की तलहटी छू रही है। फिर भी आपदा के इस गुबार में उद्धार की आशावादी झिलमिल तो करती ही है कि शायद कोई हवा चले और पासा पलट जाए; लेकिन कभी उद्योगों का सरताज होने वाला कोटा सिर्फ कोचिंग संस्थानों को ही व्यवसाय की धुरी क्यों बना बैठा? कोटा की अर्थ-व्यवस्था कुछ ज़रूरी सुधारों की अनदेखी करने की बड़ी कीमत चुकाने की तरफ बढ़ गयी है। सन् 2015 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की खास योजना मेक इन इंडिया की कड़ी में शिक्षा नगरी कोटा को रक्षा उत्पादों के विनिर्माण का मैन्यूफैक्चरिंग हब बनाना भी शामिल था। इस निर्माण पक्षधर योजना के तहत निजी क्षेत्र के डीसीएम उद्योग समूह की श्रीराम रेयन्स में लाइट बुलेट प्रूफ व्हीकल तथा अनमेड एयर व्हीकल्स का निर्माण किया जाना था। दो साल पहले रेयन्स को इन दोनों रक्षा उत्पादों का लाइसेंस मिल गया था। भारत के निजी क्षेत्र में लगने वाला रक्षा उत्पादों का यह पहला उद्योग था। लेकिन यह योजना अचानक कहां लापता हो गयी। उद्योगपति और राजनेता दोनों ही इस पर मुँह खोलने को तैयार नहीं है। बताते चलें कि दोनों ही रक्षा उत्पादों का डिजाइन उद्योग समूह ने स्वदेशी मॉडल के आधार पर तैयार किया था। इन उत्पादों का उपयोग सेना और अद्र्धसैनिक बलों के लिए होना था। अनमेंड  एक बड़े ड्रोन के आकार का रक्षा उत्पाद होता है। इस आयुध का इस्तेमाल हल्के स्वचालित आग्नेयास्त्रों के विरुद्ध किया जाता है। इसकी मारक शक्ति 500 से 2000 किलोमीटर तक होती है; जबकि जटिल सामरिक परिस्थितियों में शत्रुओं पर मार करने वाला महत्त्वपूर्ण आयुध माना जाता है। सूत्रों की मानें तो उद्योग को 18 महीनों की अवधि में इस आयुध का सैम्पल रक्षा मंत्रालय को सौंपना था। इस दृष्टि से रेयंस के संयत्र को त्रिस्तरीय रक्षकों के घेरे में ले लिया गया था। कोटा स्थित श्रीराम रेयंस के 11 एकड़ परिसर में नयी रक्षा इकाई की शुरुआत केंद्र सरकार के मेक इन इंडिया अभियान की शुरुआत थी। इस अभियान के तहत संयत्र में प्रति वर्ष 3000 और 500 नट निर्माण किया जाना था। सूत्रों का कहना है कि यह रक्षा विनिर्माण इकाई कई छोटी-छोटी इकाइयों के लिए भी अवसर पैदा कर सकती थी। इससे उच्च तकनीक सेवाओं में बड़े पैमाने पर टिकाऊ रोज़गार का सृजन भी हो सकता था। उद्यमियों का कहना है कि इसकी स्थापना आज की परिस्थितियों में कोटा की अर्थ-व्यवस्था को डूबने से बचा सकती थी। एक ताज़ा जानकारी के अनुसार, केंद्र सरकार द्वारा आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत करीब 100 रक्षा उत्पादों के आयात पर रोक लगाकर घरेलू रक्षा उद्योगों को प्रोत्साहित करने की है। विश्लेषकों का कहना है कि कोटा में लगने वाली आयुध फैक्ट्री की योजना का पुनर्जीवित करने का इससे अच्छा कोई मौका नहीं हो सकता। डिफेंस एयरोस्पेस कमेटी के चेयरमैन एस.पी. शुक्ला की मानें तो देश में रक्षा आयुधों का उत्पादन होगा, तो अन्य देश हमारी ताकत का अंदाज़ा नहीं लगा सकेंगे। लेकिन सवाल है कि सरकार इस विलुप्त हुई योजना को चलाने का प्रयास क्यों नहीं कर रही?

धोखाधड़ी का खेल भी

आठवें दशक में औद्योगिक सम्पन्नता के कारण कोटा को कानपुर की संज्ञा दी जाती थी। सरकारी नौकरी की अपेक्षा जे.के. सिंथेटिक्स में काम करना ज़्यादा बेहतर माना जाता था। यह दुर्भाग्य ही रहा कि पारिवारिक विवाद के कारण फैक्ट्री बन्द हो गयी। जिस समय जे.के. बन्द होने के कारण कोटा विषाद में डूबा था। अराफात कम्पनी ने एक उम्मीद की कहानी चलानी शुरू कर दी कि हम यहाँ पर नया उद्योग खड़ा करेंगे। सूत्रों का कहना है कि सिंघानिया उद्योग समूह की जे.के. सिंथेटिक्स की अरबों की सम्पत्ति को अराफात उद्योग समूह ने 69 करोड़ में खरीद लिया। अराफात ग्रुप ने अपनी सदेच्छा जताने की कोशिश में कम्पनी की धुआँ उगलती चिमनियों को भी चालू रखा। यह कोटा की जनता और ज़िला प्रशासन पर भरोसा जताने की कोशिश थी। इस ओट में कम्पनी मालिकों ने भूमि हस्तांतरण आदि की सभी औपचारिकताएँ पूरी कर लीं। यह सौदेबाज़ी भाजपा की वसुंधरा सरकार के कार्यकाल में हुई; लेकिन असल में यह मृग मरीचिका थी। अराफात उद्योग समूह की फैक्ट्री चलाने की कोई मंशा नहीं थी, बल्कि कम्पनी किसी बड़ी सौदेबाज़ी की फिराक में थी। नतीजतन कांग्रेस सरकार ने सत्तारूढ़ होते ही इस सौदे को रद्द कर दिया।