किसान-सरकार गतिरोध

यह सम्भवत: पहली बार है, जब नरेंद्र मोदी सरकार ज़मीनी स्तर पर विरोध-प्रदर्शन करने वाले किसानों के निरंतर विरोध का सामना कर रही है; जो कृषि कानूनों को निरस्त करने की माँग कर रहे हैं। आन्दोलन की जंग के बीच महिला किसानों सहित कई अन्नदाता विभिन्न कारणों से अपनी जान गँवा चुके हैं। सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर लिखित आश्वासन की पेशकश कर दी है; लेकिन यह पेशकश दोनों के बीच जमी बर्फ को पिघलाने में नाकाम रही है और किसानों तथा सरकार के बीच गतिरोध जारी है। समय की माँग है आन्दोलन और तेज़ होने से पहले केंद्र सरकार कुछ और कदम आगे बढ़ाये।

सरकार नये कृषि कानूनों को ‘सुधार’ कह रही है। लेकिन किसानों को लगता है कि ये अधिसूचित बाज़ारों को खत्म कर देंगे; क्योंकि व्यापार अविनियमित मुक्त बाज़ारों से बाहर चला जाएगा। किसानों को यह भी डर है कि प्रस्तावित बिजली संशोधन विधेयक-2020 का मतलब है कि निकट भविष्य में किसानों के लिए बिजली सब्सिडी से हाथ धोना होगा। वे यह भी मानते हैं कि बाज़ार समर्थक कानून न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था को कमज़ोर करेंगे, जबकि पराली जलाने पर किसानों को भारी ज़ुर्माना लगेगा, जो कि उचित नहीं होगा। क्योंकि किसानों के पास कोई बड़ा आर्थिक विकल्प नहीं है। उनकी एक आशंका यह भी है कि निजी व्यापारियों के लिए मुक्त बाज़ारों में न्यूनतम विनियमन के साथ मनमर्ज़ी करने का रास्ता खुल जाएगा, जबकि अनुबन्ध-खेती की शर्तों को पूरा नहीं करने की सूरत में बड़े कॉर्पोरेट घराने किसानों की ज़मीन पर नियंत्रण कर सकते हैं। किसान यह भी कहते हैं कि सरकार द्वारा पास किये गये नये कानून एपीएमसी मंडियों और अन्य छोटी मंडियों को कमज़ोर करेंगे। उन्हें यह आशंका भी है कि विवादों को सुलझाने के लिए उन्हें दीवानी अदालतों में अपील करने का कोई अधिकार नहीं रहेगा।

जैसे ही ‘भारत बन्द’ के बाद विरोध-प्रदर्शन तेज़ हो गये, केंद्र ने कुछ संशोधनों पर सहमति जतायी; लेकिन विवादास्पद कृषि कानूनों को रद्द करने की किसान संगठनों की प्रमुख माँग को स्वीकार नहीं किया। सरकार ने आन्दोलन को खत्म करने के लिए दो कृषि सुधार कानूनों और संसद में लम्बित एक विधेयक को संशोधित करने की पेशकश की; लेकिन कृषक संघों ने कहा कि वे तीन कानूनों को निरस्त करने से कम में नहीं मानेंगे। किसान इन्हें अपनी आजीविका को नुकसान पहुँचाने वाला बता रहे हैं। इस गतिरोध को देखते हुए किसान एक लम्बी लड़ाई के लिए तैयार दिख रहे हैं, जिसमें दिल्ली के सभी राजमार्गों को अवरुद्ध करना और टोल प्लाजा पर कब्ज़ा करने की उनकी चेतावनी आदि शामिल हैं।

गतिरोध खत्म करने के लिए गेंद अब सरकार के पाले में है। अब तक केंद्र सरकार नये कानूनों के लाभों पर निर्भर रही है।सत्ता पक्ष के कुछ नेता तो आन्दोलनकारियों को ही स्थिति को बिगाडऩे का दोषी ठहराने में जुटे हैं। किसान मौज़ूदा खरीद प्रणाली (तीन कानूनों से पहले की) के हक में खड़े हैं; जो समय की कसौटी पर खरी उतरी है। वे इस कानून के साथ छेड़छाड़ करने वाले किसी भी कानून को अविश्वास की नज़र से देखते हैं। कृषक समुदाय हरित क्रान्ति का अगुआ था; लेकिन अब वह कर्ज़ के बोझ तले दबा जा रहा है। उसका लाभ कम हो रहा है और जोत का क्षेत्र सिकुड़ रहा है। गौरतलब है कि किसानों को गरीबी की ओर धकेलने के बावजूद कृषि ही एकमात्र ऐसा क्षेत्र है, जिसने तालाबन्दी के दौरान अर्थ-व्यवस्था के धरातल में चले जाने पर भी वृद्धि दर्ज की। इस क्षेत्र को मज़बूत करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए, जो देश की लगभग आधी आबादी को रोज़गार देता है। जल्द-से-जल्द एक सौहार्दपूर्ण समाधान ढूँढना ही इस गतिरोध के हल का एकमात्र रास्ता है।