किताबों की दुनिया

किताबों का हम सबके जीवन में बड़ा महत्त्व है। किताबें हमारी शिक्षा का माध्यम हैं। पिछले कुछ दशक से किताबों की पाठ्य सामग्री और पाठकों की रुचि में बदलाव हो रहे हैं। यह बात राजकमल प्रकाशन समूह के प्रकाशक ने कही। उन्होंने बताया कि पुस्तक मेले में जो भीड़ होती है, वह यूँ ही नहीं आती। इसमें सभी लोग पुस्तक-प्रेमी होते हैं। उन्होंने कहा कि हम बहुत-से नये लेखकों को मौका देते हैं, जिनमें वे कवि-लेखक भी शामिल होते हैं, जिनकी किताब पहली बार प्रकाशित होती है। हम कोशिश करते हैं कि अच्छी सामग्री नये और बेहतरीन डिजाइन में पाठकों तक पहुँचे। राजकमल प्रकाशन समूह के प्रकाशक से गोविंद झा ने बातचीत की। प्रस्तुत है उसी बातचीत के प्रमुख अंश :-

पहले जो भीड़ पुस्तक मेले में दिखती थी, अब क्यों नहीं दिखती?

देखिए, भीड़ तो काफी रहती है। पिछले पुस्तक मेले में भी थी। लेकिन थोड़ा-सा जो फर्क पड़ा है कि छात्र दूसरी चीज़ों में संलिप्त रहने लगे हैं। दिल्ली में इस तरह का माहौल बना हुआ है कि लोग घरों से निकलने में डरते हैं। एक अच्छी चीज़ यह भी है कि अब पुस्तक मेलों में युवा लेखक और युवा पाठक काफी दिखते हैं। हम बहुत-से युवा लेखकों की किताबें प्रकाशित कर चुके हैं। नयी किताबों के पाठक, खासतौर पर युवा पाठक भी बहुत हैं। बहुत-सेे नयी उम्र के बच्चे, जिन्हें नयी चीज़ों को जानने की जिज्ञासा है; किताबें खरीदते हैं। इन युवाओं में हिन्दी के नये लेखकों की किताबों को पढऩे की बहुत ही उत्सुकता है।

कुछ खास किताबें आयी हैं हाल में?

एक नयी किताब रवीश कुमार की आयी है- बोलना ही है। यह किताब अलग ढंग की किताब है। अभी दो किताबें आ चुकी हैं- आधार से किसका उधार और किस ओर; इन किताबों के पाठकों में बड़ी संख्या युवाओं की है। हिन्दनामा किताब के एक महीने में दो संस्करण आये। कृष्ण कल्पित की कविता की किताब आयी। कविता की किताब का महीने भर में दूसरा संस्करण निकालना मुश्किल काम होता है, लेकिन एकदम आया। ऐसे ही अग्नि लेख उपन्यास आया। हमने साहित्येतर विषयों की भी बहुत-सी किताबें निकाली हैं। जिनमें यात्रा वृतांत भी हैं, जैसे- मलय का यात्रा वृतांत, कच्छ का यात्रा वृतांत; ये हमारे लिए खुशी की बात है। हिन्दी को लेकर जो माहौल कई बार बनता है कि हिन्दी की किताबें नहीं पढ़ी जा रहीं या नये पाठक कम हो रहे हैं। यह भ्रम पुस्तक मेले में आने के बाद दूर होता है।

साहित्यक किताबें ज़्यादा बिकती हैं या गैर-साहित्यिक? मसलन इतिहास या प्रेम!

दोनों तरह की किताबें ज़्यादा बिकती हैं। बल्कि कह सकते हैं कि गैर-साहित्यिक किताबों की बिक्री बढ़ी है। पहले साहित्यिक किताबें, जैसे- उपन्यास, कहानी, कविता की किताबों की बिक्री ज़्यादा होती थी। लेकिन गैर-साहित्यिक किताबों की बिक्री खूब हो रही है। कुल मिलाकर दोनों तरह की किताबों की बिक्री लगभग बराबर होती है।

अभी नये कहानीकारों में सबसे ज़्यादा कौन बिक रहे हैं?

कई लेखकों की किताबें खूब बिकती हैं। हालाँकि, मैं काउंटर पर उस तरह से नहीं होता हूँ, इसीलिए पुस्तकों की खपत के बाद ही पता चलता है कि किसकी कितनी माँग है।

लेकिन कुछ तो अंदाज़ होगा, आमतौर पर कौन-सी किताबें ज़्यादा बिक रही हैं?

पिछले दिनों राजस्थान की छात्र राजनीति को लेकर किताब आयी- जनता स्टोर। उसकी बिक्री खूब हो रही है। एक नयी लेखिका सुजाता उनका पहला-पहला उपन्यास- ‘एक बटा दो’ खूब बिका है। यह महिलाओं पर आधारित उपन्यास है। मतलब यह है कि युवा लेखकों पर युवा पाठकों का आकर्षक चल रहा है। आमतौर पर यह माना जाता है कि कविता संग्रह की कम बिक्री होती है और पेपर बैक तो बहुत कम छपते हैं। इधर, हमने केदारनाथ सिंह, धुमिल, विजय बहादुर सिंह जैसे कुछ बड़े लेखकों और कवियों की किताबें निकाली हैं, तो प्रभात, हितेज़ श्रीवास्तव, सुधांशु फिरदौस जैसे नये कवियों की किताबें भी आयी हैं। हमने यह एक प्रयोग किया है। काफी सफलता  भी मिली है। हमने पिछले मेले में कुछ कविता संग्रहों के पेपर बैक संस्करण निकालकर एक और प्रयोग करने की कोशिश की।

आपने बताया कि युवाओं का रुझान युवाओं की तरफ जा रहा है। इससे आपको क्या लगता है?

इसको इस ढंग से देखना चाहिए कि एक जो पहले कहें कि विमल चन्द वर्मा वो अपनी जगह हैं। एक क्लासिक लेखक के रूप में स्थापित हैं। उनकी किताबें पहले भी बिकती थीं और अभी भी बिक रही हैं। लेकिन मेरा यह मानना है कि हिन्दी एक ज़िन्दा भाषा है, जो समय को लेकर बदल रही है। अपने आप को नये समय में ढाल रही है। आप कई बार सुनते हैं हिंग्लिश हो गयी, नयी हिन्दी हो गयी; मैं उसको नहीं मानता हूँ। न तो मैं हिंग्लिश पसन्द करता हूँ, और न ही नयी हिन्दी की बात मानता हूँ। मुझे लगता है कि भाषा अपने आप को नये ढंग से ढालती है। नये पाठक के हिसाब से चलती है और उसमें जो परिवर्तन हो रहा है, उसे हम उस भाषा में परिवर्तन कह सकते हैं। मैं कहता हूँ कि हिन्दी में नयापन आ रहा है। पुस्तक मेलों के लिहाज़ से अगर हम इसको देखें, तो पिछले विश्व पुस्तक मेले में हिन्दी की किताबें कम-से-कम हमारे यहाँ तो बड़े बदलाव के साथ आयीं। हमने अपने यहाँ कम-से-कम तीन-चार सौ पुरानी किताबों के कवर डिजाइन बदले हैं। नये पाठकों को आकर्षित करने के लिए। लेकिन जो नयी किताबें आ रही हैं, उन्हें आप बिल्कुल नये रूप में ही देखेंगे। इसके अलावा आप देखेंगे कि प्रभात रंजन की किताब ‘पालतू बहू’ का कवर बिल्कुल नये ढंग का है। ऐसा कवर शायद आपको अंग्रेजी कि किताबों का भी न मिले। अभी ‘कश्मीरी पण्डित’ किताब देखें। इसके कवर के लिए, फोटोग्राफ के लिए कितनी कोशिश करके अधिकार लिये गये। उसके बाद ये फोटोग्राफ का कवर छपा है। इस पर शायद हम बैठकर इतनी बातें नहीं कर सकते, जितनी किताब को देखकर कर सकते हैं। ‘अग्निलेख’ एक उपन्यास आया है। उसका कवर बिल्कुल अलग ढंग का है। हर एक किताब को देखकर एक डिजाइन और उसके पाठक को देखकर और उस किताब के विषय को देखकर उसकी अपनी एक प्रस्तुति हिन्दी के लिए बिल्कुल अनूठी बात है। इसके लिए पहले या तो हम अंग्रेजी किताबों की नकल करते थे या हम बिल्कुल आसान परम्परागत तरीके अपनाकर काम चलाते थे। अब इन सब चीज़ों से हिन्दी बहुत आगे बढ़ गयी है। किताबों के कवर नये ढंग से आ रहे हैं। किताबों के आकार बदल रहे हैं। पहले केवल दो आकार की किताबें मिलती थीं- एक काउन में और एक डिवाइन में। लेकिन अब कई आकार में किताबें आने लगी हैं। सचित्र किताबों का दौर बीच में खत्म हो गया था। अब इलस्ट्रेटेट किताबें आ रही हैं। कहानी की किताबें चित्रों के साथ आ रही हैं। पहले यह बिल्कुल खत्म हो गया था। दूसरे प्रकाशकों में शायद अभी भी नहीं है।

एक और बात, हिन्दी किताबों में आपको संस्करण का उल्लेख नहीं मिलेगा। वे लिखेंगे- संस्करण : 2019, संस्करण : 2012, जिससे संस्करण का पता ही नहीं चलेगा। हमारी हर किताब में पहला संस्करण मिलेगा और फिर ये 19वाँ संस्करण है या 20वाँ संस्करण; इसका उल्लेख भी मिलेगा। उसकी नैतिकता का पालन हम करते हैं। अनुवादक का नाम हम कवर पर देने की कोशिश कर रहे हैं। कोशिश रही है कि किताब के आर्टिस्ट का नाम, चित्र का नाम भी दिया जाए। जो विश्व के मानकों को सामने रखकर हर किसी को साथ में लेकर चलने की कोशिश हम कर रहे हैं, वह हिन्दी में नया है।

अभी जो विश्वविद्यालयों मेंं, पुस्तकालयों पर जो हमला हो रहा है, उससे प्रकाशकों पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

देखिए, जब मैं साधारण आदमी की तरह इन कैम्पस को देखता हूँ, तो साफ देखता हूँ कि छात्रों पर हमले से किताबों की बिक्री पर असर पड़ेगा ही पड़ेगा। हमारे सबसे बड़े पाठक तो छात्र ही हैं। अब जब छात्र दूसरे काम में शामिल हो गये और जब छात्र छात्रावास छोडक़र घर चले गये, तो वह किताबें लेने कैसे आएँगे? इसका असर तो होगा ही। असर है और रहेगा। मैं तो सबसे हाथ जोडक़र निवेदन करूँगा कि छात्र जो हमारे बच्चे हैं, जिसमें मेरा बच्चा भी हो सकता है; आपका बच्चा भी हो सकता है; किसी का भी बच्चा हो सकता है; उनके साथ अपराधी की तरह नहीं, एक अच्छे नागरिक की तरह से व्यवहार करना चाहिए। छात्र देश के कर्णधार हैं; हम सबको इस पर सोचना चाहिए। हर बच्चा किताब खरीद नहीं सकता। जब किसी छात्र को बेहतर माहौल मिलेगा; शान्ति से पढ़ाई करने का मौका मिलेगा; सुरक्षा मिलेगी; उसके बाद ही वह किताब खरीद सकेगा, पढ़ सकेगा।

इस दौर में अनेक तरह की साहित्यिक रचनाएँ हो रही हैं। मसलन दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य, स्त्री विमर्श साहित्य, इस तरह के साहित्य के बारे में आपके प्रकाशन का क्या सोचना है?

राजकमल प्रकाशन हमेशा से समाजोन्मुख प्रकाशन रहा है। हम समाजिक दायित्वों को समझते हुए ही पुस्तकों का प्रकाशन करते हैं। इस समय दलित साहित्य में जो महत्त्वपूर्ण है, मसलन मराठी का दलित साहित्य – अजय पवार से लेकर ओम प्रकाश बाल्मिकी, जय प्रकाश कर्दम तक – सारा श्रेष्ठ दलित साहित्य हमारे राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। स्त्री विमर्श की महत्त्वपूर्ण किताबें राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं। 2020 के पुस्तक मेले में ग्लोरिया स्टाइना की किताब आयी। स्टाइना अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिला-अधिकारों की सबसे बड़ी पैरोकार मानी जाती हैं। इसी तरह आदिवासी विमर्श पर भी पैरियर एलिविन के अनुवादों से लेकर रमणिका गुप्ता की किताब ‘महुआ माझी’ आयी। इसके अलावा वंदना टेडे की सभी किताबें हमारे राजकमल प्रकाशन समूह से ही प्रकाशित हैं।

मैं हमेशा कहता हूँ-  ‘अपनी प्रशंसा के तौर पर नहीं, बल्कि गर्व से कहता हूँ कि हम एक प्रकाशक के दायित्व को समझते हुए हमेशा सामयिक, स्थायित्व, सैद्धांतिक और व्यावहारिक रूप से, प्रासंगिकता को देखते हुए यह कोशिश करते हैं कि उस समय की ज़रूरतों को पूरा करने वाली अच्छी किताबों का प्रकाशन करें और अपना उत्तरदायित्व मानकर करें।’