काययाब तो हुआ है आरएसएस

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) 1925 में बना। इसका सपना रहा है भारत को हिंदुस्थान बनाना। यानी हिंदूराष्ट्र बनाना। इसका अर्थ है वर्ण, जाति, पितृसत्ता आदि ब्राह्मणवादी मूल्यों को बनाए रखते हुए दूसरे बहुसंख्यक हिंदुओं को अपने साथ जोड़ते हुए, मुसलमानों और ईसाइयों को देश में दोयम दर्ज का नागरिक घोषित करना।

संघ के इस काम में सबसे बड़ी बाधा भारतीय समाज में द्विज (ब्राहमण) और गैर द्विज का विभाजन था। गैर द्विज या कल के शुद्र (पिछड़ी जातियंा) और अति शूद्र (दलित) तथा कथित हिंदू समाज के करीब पिचासी फीसद हंै। एक लंबे समय तक संघ ब्राहमणों -बनियों के आधार पर ही सिमटा रहा। लेकिन देश की नियंत्रक स्थिति में आना है तो ताकत नहीं है। संघ ने तब रणनीति में थोड़ा बदलाव किया।

मुख्य संगठन आरएसएस को छोड़ कर अपने दूसरे अनुषांणिक संगठनों में पिछड़ी जातियों (कल के शूद्र लेकिन अस्पृश्य नहीं) के लोगों को नेतृत्व में आने का लालच देकर जोड़ा। सबसे पहले बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद में बड़े पैमाने पर पिछड़ों को लाया गया।

विनय कटियार सरीखे नेता इसी दौर में बजरंग दल के संयोजक बने। कहते हैं कि मस्जिद ढहाने के सबसे बड़े अगुवा भी वे तब बने ही थे। देश में दंगों के लिए भी पिछड़ी जातियों के लड़ाकू लोगों को भर्ती किया गया। इसका एक नमूना मुजफ्फरनगर में जाटों ने दिया।

लोकतंत्र में बहुमत पाकर सत्ता पर कब्जा भी संघ नहीं कर सकता था। भाजपा के जरिए 15 फीसद द्विज के जरिए यह संभव नहीं था, इसलिए पिछड़ी जातियों के ऐसे पैरोकारों को जोड़ा गया जो हिंदुत्व के भी प्रखर पैरोकार हुए। कल्याण सिंह और उमा भारती जैसे लोग इसके पहले उदाहरण थे। फिर भी केंद्र में भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिला।

इसके तोड़ में संघ ने पिछड़ों के प्रतिनिधि के रूप में प्रधानमंत्री पद का दावेदार मोदी को बना दिया। जाति का ही कार्ड खेलते हुए संघ ने एक दलित को देश का राष्ट्रपति भी बना दिया। सिर्फ औपचारिक तथ्यों के आधार पर कहें तो देश के शीर्षस्थ व्यक्ति राष्ट्रपति दलित (अतिशूद्र) हैं। सत्ता पर विराजमान प्रधानमंत्री पिछड़े शूद्र औपचारिक तौर पर ही सही पर द्विज तो नहीं ही हैं। यानी जाति के ही नाम पर सच्चा प्रतिनिधि तय होता हो तो देश में किसका राज रहा है यह जगजाहिर है।

समस्या फिर भी दलितों के साथ बनी हुई है। इसकी दो वजहें हैं। एक ओर संघ आज भी ऊँची और अगड़ी-पिछड़ी जातियों, दलितों को घृणा की हद तक नापसंद करता है। दूसरे डा. अंबेडकर की विचारधारा का दलितों पर प्रभाव है। फिर भी यदि कहें तो पिछली बार लोकसभा में दलितों का सबसे ज़्यादा वोट भाजपा को मिला था।

अब तथ्य यह है कि संघ ने प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर कल के शूद्र यानी पिछड़ी जातियों के एक बड़े हिस्से को अपने साथ कर लिया है। यानी वर्ण, जाति और पितृसत्ता यानी ब्राहमणवाद के कायम रखते हुए हिंदू राष्ट्र के निर्माण को संघ के सपने को भी तकरीबन पूरा कर लिया है। अब देखना है आगे क्या होती है रणनीति!