कश्मीर पर दुविधा!

मोदी सरकार जम्मू-कश्मीर में धीरे-धीरे हालात बेहतर होने का दावा कर रही है। लेकिन मुख्यधारा के नेताओं को नज़रबन्द रखने और उन पर पीएसए जैसा कानून लगा देने से उसके दावों पर सवाल उठ रहे हैं। यही नहीं, विदेशी प्रतिनिधियों को तो उसने कश्मीर जाने की इजाज़त दी है, भारत के विपक्षी नेताओं को सरकार वहाँ जाने से रोके हुए है। इन सब हालत पर राकेश रॉकी की यह रिपोर्ट

यह अप्रैल, 2019 की बात है। भाजपा के समर्थन वापस लेने के बाद महबूबा मुफ्ती की सरकार गिरे कुछ महीने हो चुके थे। विधानसभा के लिए चुनाव की चर्चा हो रही थी। अनंतनाग के खानबल में एक जनसभा में नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला जनता से वादा कर रहे थे कि चुनाव के बाद सत्ता में आते ही वे पब्लिक सेफ्टी एक्ट (पीएसए) को खत्म कर देंगे और इसके तहत दर्ज सभी मामले भी हम वापस ले लेंगे। हालाँकि, तब उनका यह वादा पथरबाज़ों के लिए था। लेकिन 5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाली धारा-370 को मोदी सरकार ने खत्म कर दिया और सारा परिदृश्य ही बदल गया। अब इन्हीं उमर अब्दुल्ला पर यही कानून लगाकर उनकी नज़रबन्दी बढ़ा दी गयी है। उमर ही नहीं उनके पिता पूर्व मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला पर दो महीने पहले ही यही कानून लागू किया जा चुका है। एक और पूर्व मुख्यमंत्री और पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती पर भी यही कानून लगाया गया है। महबूबा मुफ्ती वही नेता हैं, जो जून, 2018 तक भाजपा के सहयोग से साझा सरकार बनाकर मुख्यमंत्री बनी थीं।

अब जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित राज्य है और वहाँ विधानसभा रखने के बावजूद तय नहीं है कि इसके लिए चुनाव कब होंगे? फिलहाल तो यह देखना है कि बार-बार जम्मू-कश्मीर में स्थिति सुधरने का दावा करने वाली मोदी सरकार कब इन नेताओं को नज़रबन्दी (पीएसए) से मुक्त करती है? अभी तक तो केंद्र सरकार इन नेताओं को खतरा मानकर चल रही है। इन नेताओं पर जन सुरक्षा कानून लगाने का एक कारण यह भी है कि दोनों की हिरासत छ: महीने हो  गयी थी। इसे बढ़ाने के लिए सरकार ने पीएसए लगा दिया, जिससे उन्हें और तीन महीने जेल में रखा जा सकता है। उनसे पहले अब्दुल्ला पर पीएसए लगाया गया था, जब उन्होंने अपनी प्रिवेंटिव डिटेंशन को चुनौती दी थी। इस तरह इन दिनों मुख्य धारा के तीन बड़े नेता नज़रबन्द हैं।

हैरानी की बात है कि कश्मीर में मुख्य धारा के इन नेताओं के िखलाफ पाकिस्तान ही नहीं, आतंकवादी भी रहे हैं। वे मुख्य धारा के इन नेताओं को भारत का एजेंट करार देते रहे हैं और आतंकवादियों के तो वे निशाने पर रहे हैं। इसका कारण यह है कि यह सभी भारतीय संविधान के प्रति समर्पित रहे हैं और भारत के चुनाव आयोग के तहत होने वाले चुनावों में हिस्सा लेते रहे हैं।  इनके विपरीत अलगाववादी, जिनमें हुर्रियत कॉन्फ्रेंस भी शामिल है; के नेता भारतीय संविधान को नहीं मानते और न भारत के चुनाव आयोग के चुनावों में उन्होंने कभी शिरकत की। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि केंद्र जो भी दावे करे, नेताओं को लम्बे समय तक नज़रबन्द रखना कश्मीर की जनता में भारत के प्रति अविश्वास का रास्ता खोल सकता है।

केंद्र ने पिछले दिनों में सर्वोच्च न्यायालय के दखल के बाद जनता के लिए इंटरनेट जैसी सुविधाओं पर कुछ ढील तो दी है, लेकिन एक भय उसके मन में ज़रूर है, जो उसे पूरी छूट देने से रोक रहा है। लिहाज़ा केंद्र का यह दावा उतना उचित प्रतीत नहीं होता कि सारी स्थिति उसके नियंत्रण में है। सवाल यह उठता है कि क्या नज़रबन्द नेताओं को जल्दी छोड़ा जाएगा? आतंकियों और अलगाववादियों के अलावा पत्थरबाज़ों के िखलाफ भी पीएसए का इस्तेमाल किया जाता रहा है। सन् 2016 में कश्मीर में सक्रिय आतंकी कमांडर बुरहान वानी को सुरक्षा बलों ने मार गिराया था; तो कश्मीर में इसके विरोध में जो प्रदर्शन हुए थे। तब 567 लोगों को पीएसए के ही तहत हिरासत में लिया गया था। यही नहीं एक और आतंकी कमांडर मर्सरत आलम जब सुरक्षा बलों के चंगुल में फँसा, तो उसे पीएसए के ही तहत जेल में डाला गया। राज्य सभा में हाल में सरकार की तरफ से दी गयी जानकारी के मुताबिक, आज की तारीख में जम्मू-कश्मीर में पीएसए के तहत 389 लोग हिरासत में हैं। गृह राज्य मंत्री जीके रेड्डी ने इस बात की पुष्टि करते हुए राज्यसभा में एक लिखित जवाब में जानकारी दी कि अगस्त, 2019 में अनुच्छेद-370 के ज़्यादातर प्रावधान हटाये जाने के बाद से जम्मू-कश्मीर जन सुरक्षा कानून के तहत-444 लोगों को हिरासत में लेने के आदेश जारी किये गये थे।

तहलका संवाददाता की जानकारी के मुताबिक, दो पूर्व मुख्यमंत्रियों- उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती के िखलाफ जन सुरक्षा कानून (पीएसए) लगाये जाने की पीछे नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) की बैठकों के मिनट्स और सोशल मीडिया पर उनके प्रभाव के आधार पर लगाने की सिफारिश की गयी थी, जिसे स्वीकार किया गया।

वहीं उमर के िखलाफ पुलिस डॉजियर में पिछले साल जुलाई में एनसी की एक बैठक में उनके कुछ सुझावों की बात है; जिसमें उन्होंने कथित तौर पर ताकत जुटाने की बात कही थी, ताकि दिल्ली के जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 खत्म करने की कोशिशों को रोका जा सके। दिलचस्प यह है कि इस बैठक से कुछ सप्ताह पहले ही उमर, उनके पिता अब्दुल्ला दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले थे और उनसे अनुच्छेद-370 और 35(ए) को लेकर चर्चा की थी। दोनों नेता कश्मीर के अन्य नेताओं की ही तरह 370 और 35(ए) को लेकर किसी भी तरह के फैसले के िखलाफ चेताते रहे थे।

उमर, सोशल मीडिया, खासकर ट्वीटर पर बहुत सक्रिय रहे हैं। हालाँकि, डॉजियर में उमर के सोशल मीडिया पोस्ट्स को पीएसए का आधार नहीं बनाया गया है। यहाँ यह बताना बहुत दिलचस्प है कि जिस तरह भाजपा जम्मू-कश्मीर में पीडीपी की भागीदार रही है, उसी तरह एनसी के नेता उमर अब्दुल्ला भी भाजपा के नेतृत्व वाली अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में विदेश राज्य मंत्री रहे हैं। इसके विपरीत पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की नेता महबूबा के िखलाफ पीएसए का आधार पार्टी के प्रो एक्सट्रीमिस्ट रुख बनाया गया है। वैसे पीडीपी को पहले से ही एनसी के मुकाबले हार्डलाइन रखने वाली पार्टी माना जाता रहा है। लेकिन पीडीपी का यह स्टैंड तब भी था जब भाजपा उसके साथ जम्मू-कश्मीर की सत्ता में भागीदार थी। वैसे महबूबा ने अनुच्छेद-370 हटाये जाने की स्थिति में जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय को लेकर कश्मीर में सवाल उठने की बात कही थी। उनकी टिप्पणी को पीएसए का आधार बनाया गया है। पुलिस डॉजियर में आतंकवादियों को मारने पर उनकी कुछ टिप्पणियों को भी साथ जोड़ा गया है। गैर-कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत जम्मू-कश्मीर के केंद्र के जमात-ए-इस्लामिया को प्रतिबंधित करने पर पीडीपी के उसे समर्थन देने का भी ज़िक्र किया है। यदि इतिहास खँगाला जाए तो पीडीपी और एनसी भारत के संविधान के कभी विरोधी नहीं रहे हैं। मुख्यधारा के यह दोनों दल कभी पाकिस्तान समर्थक भी नहीं रहे। हां, कश्मीर मसला हल करने के लिए पाकिस्तान के साथ बातचीत के समर्थक ज़रूर रहे हैं।

भले मोदी सरकार कश्मीर को लेकर अपने फैसलों को उचित ठहराती रही हो, मुख्यधारा के नेताओं को नज़रबन्द रखने के उसके फैसले से बहुत से राजनीतिक जानकार सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि यह नेता वास्तव में कश्मीर की जनता की आवाज़ रहे हैं, लिहाज़ा उन्हें लम्बे समय तक नज़रबन्द रखने से कई पेचीदगियाँ पैदा हो सकती हैं। यहाँ दिलचस्प यह है कि विदेशी प्रतिनिधियों को कश्मीर का दौरा करने की मोदी सरकार ने इजाज़त दे दी, जबकि भारत के विरोधी दलों को कश्मीर जाने की इजाज़त नहीं है।

भाजपा की कश्मीर-रणनीति!

तहलका संवाददाता की जानकारी के मुताबिक, भाजपा दरअसल कश्मीर में अपना एक नेतृत्व उभारना चाहती है। हाल में पद्म भूषण पाने वाले मुजफ्फर हुसैन बेग जैसे नेताओं पर उसकी नज़र है। बेग सुप्रीम कोर्ट में वकालत करते रहे हैं और पीडीपी के संस्थापकों में से एक हैं। कहते हैं भाजपा की उन पर नज़र है। बेग को पद्म भूषण मिलने से बहुत से लोगों को हैरानी हुई है।

साल 2002 जब पीडीपी ने कांग्रेस से मिलकर सरकार बनायी थी, तब बेग उस सरकार में वित्त मंत्री बने थे। उन्हें इक प्रभावशाली मंत्री माना जाता रहा। हालाँकि, जब तीन साल बाद समझौते के मुताबिक कांग्रेस के नेतृत्व में गुलाम नबी आज़ाद की सरकार बनी, तो पीडीपी ने बेग को अपने कोटे से उप मुख्यमंत्री बनाया। कुछ महीने बाद एक समय ऐसा आया, जब बेग मुख्यमंत्री आज़ाद के काफी करीब हो गये। यह माना जाता है कि बेग आज़ाद के हिसाब से चलने लगे थे।

पीडीपी के तब सर्वेसर्वा और पहले तीन साल में सीएम रहे मुफ्ती मोहम्मद सईद को जब इसकी भनक लगी, तो वो इससे बहुत विचलित हुए। इसके बाद उच्च महीने में ही बेग को पद छोडऩा पड़ा। बेशक वे उसके बाद भी पीडीपी में ही रहे।

ज़ाहिर है बेग को पद्म भूषण मिलने के बाद राजनीतिक हलकों में इसे भाजपा की राजनीति से जोड़कर देखा जा रहा है। इसमें संदेह नहीं कि बेग कश्मीर की राजनीति में एक स्वीकार्य नेता रहे हैं, लेकिन उनकी सोच और विचारधारा महबूबा मुफ्ती और पीडीपी से अलग नहीं रही है। ऐसे में यदि, महबूबा को नज़रबंदी मिलती है और बेग को पद्म भूषण, तो इस पर सवाल तो निश्चित ही उठेंगे ही। यह माना जाता है कि केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर में डीलिमिटेशन की प्रक्रिया शुरू करेगी। भाजपा-जम्मू की सीटें पहले से ज़्यादा करना चाहती है। इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि आने वाले वर्षों में जम्मू-कश्मीर को फिर पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया जाए।