उग्रता की अफ़ीम

आजकल हर कोई ख़ुद को सबसे बड़ा धार्मिक सिद्ध करने में लगा है। धर्म के मर्म को समझे बग़ैर लोग अपने-अपने धर्म का आडम्बर कर रहे हैं। चाहे वे किसी भी धर्म के लोग हों। उन्हें लगता है हो-हल्ला करना, हिंसक होना, नारे लगाना, धार्मिक लिबास पहनना और ढोंग करना ही धर्म है। इससे उनका धर्म मज़बूत होगा।

यह अब चलन में है। इसलिए हर धर्म के लोग अपने-अपने धर्म को मज़बूत करने की तुच्छ सोच से इसी तरह की बेहूदगी करने में लगे हैं; जो ख़ुद को एक दिलासा देने जैसा एक दिवास्वप्न है। लेकिन इसमें बुराई यह है कि सभी धर्मों के कट्टरपंथी एक-दूसरे पर हमलावर हैं। आज इसाई और कैथोलिक की लड़ाई प्रोटेस्टेंट से है। इसाइयों और मुसलमानों के बीच लड़ाई है। भारत में सनातनी और मुसलमान लडऩे-मरने को तैयार हैं। जिस जगह मुसलमान नहीं हैं, वहाँ सनातनियों का झगड़ा अपने ही धर्म के कथित निम्न वर्ग के लोगों, जिन्हें वे दलित कहते हैं; से रहता है। इसी तरह सुन्नी और शिया मुसलमानों में दुश्मनों की तरह लड़ाई रहती है। यह लड़ाई हर धर्म और हर जाति में है। अगर कहीं किसी दूसरे धर्म या दूसरी जाति के लोग नहीं हैं, तो वहाँ आपसी लड़ाई है।

दरअसल यह वर्चस्व की लड़ाई है, जिसकी वजह वे चंद लोग हैं, जो केवल और केवल ख़ुद को सबसे ऊपर रखना चाहते हैं। ऐसे लालची और बिना काम किये दूसरों की मेहनत पर पलने वाले लोग हर धर्म और हर जाति में हैं। इन लोगों की एक ख़ास अभिलाषा यही रहती है कि वे सब पर शासन करें; दूसरों पर अत्याचार करें और दूसरे सब उनकी गुलामी करें। वे (बाक़ी लोग) इतना अत्याचार सहें कि इन कथित ऊँचे लोगों के लात-घूँसे खाकर भी पैरों में पड़े रहें। यह मानसिकता सत्ताओं में मिलने वाली मुफ़्त और हराम की मलाई मिलने की आदत के कारण पैदा हुई है। यही कारण है कि लोगों के पथ-प्रदर्शक बने ये चंद लोग बड़े ओहदों से नीचे नहीं आना चाहते; चाहे वे धर्म की सत्ता पर विराजमान हों, चाहें राजनीतिक सत्ता पर जमे बैठे हों। ये लोग कभी नहीं चाहते कि लोगों में समरसता रहे, मानवता की भावना बढ़े और वे प्यार से मिलजुलकर रहें।

असल में गड़बड़ लोगों के भीतर है। ख़ुद को झूठमूठ का श्रेष्ठ और ऊँचा दिखाने की होड़ में सब फँसे हुए हैं। धर्मांधता और घमण्ड ने सबको मूर्ख, क्रोधी और आपराधिक प्रवृत्ति का जानवर बना दिया है। लोगों के दिमाग़ में घुसा हुआ है कि वे ईश्वर और धर्म के रक्षक हैं। एक मांस का लोथड़ा लेकर घूमने वाले ये नाज़ुक लोग उस ईश्वर की रक्षा का दम्भ भरते हैं, जिसके इशारे पर पूरा ब्रह्माण्ड चलता है। जिसने सबको पैदा किया है, लोग उसकी सृष्टि में दख़ल डालकर दूसरे धर्म या अपने ही धर्म के कमज़ोर और मानवता की राह पर चलने वालों की हत्या करके ख़ुद को सृष्टि का संचालक समझने की भूल कर रहे हैं।

दरअसल धर्म और सत्ताओं की ठेकेदारी करने वाले लोग अपना हित साधने के लिए, दुनिया भर में हिंसा और ख़ून-ख़राबा करा रहे हैं। ये लोग मौत से इतने डरे हुए हैं कि ख़ुद को अनेक सुरक्षा घेरों में छिपाकर रखते हैं। परन्तु यह तो सामान्य लोगों को सोचना होगा, जो मूर्खों की तरह उनके अनुयायी और भक्त बने हुए हैं। रक्षा कर रहे हैं। परन्तु वे पाखण्डी पूरी दुनिया में हिंसा, दु:ख और तबाही फैला रहे हैं। क्या ऐसे दुष्टों की रक्षा करनी चाहिए? अगर दुनिया के सभी लोग अपने-अपने धर्मों के मठाधीशों, सत्ताधारियों और अपने मार्गदर्शकों के कहने पर हिंसा न करें और उन्हें ऐसा करने के लिए उकसाने वालों को ही दण्डित करें, तो दुनिया में शायद इतनी हिंसा न हो। सोचिए कि सामान्य लोग किसी के दुश्मन कहाँ होते हैं? भले ही वे अपने धर्म के अनुरूप किसी भी नाम से ईश्वर को मानते और पूजते हों। असली दुश्मन तो वे लोग हैं, जो इंसानों के बीच ज़हर घोल रहे हैं। सामान्य लोग, ख़ासकर बुद्धिहीन आसानी से भ्रमित हो जाते हैं। इसलिए पाखंडी लोग धर्म के नाम पर उग्रता की अफ़ीम उन्हें बहुत आसानी से खिला देते हैं; और वे धर्म के नाम पर आसानी से गुमराह हो जाते हैं। फिर उग्रता से झूठ फैलाने लगते हैं।

आजकल तो यह तय कर पाना आसान नहीं है कि सच क्या है और झूठ क्या है? दुनिया में झूठों की भरमार है। झूठ की एक मंडी-सी सजी हुई है। यही कारण है कि अब सच बोलने वालों की जान तक ले ली जाती है। यह अब बड़ा आसान हो गया है। लोग क्रूरता से भरे पड़े हैं। उनमें यह चलन बढ़ रहा है। इसलिए भी बढ़ रहा है, क्योंकि उन्हें सज़ा के बजाय सुरक्षा मिलती है। और इन्हें बहकाने वालों को तो इतना सम्मान मिलता है कि देवताओं को भी न मिले। बस अपने कुकर्मों को छुपाने और लोगों के बीच धार्मिक अफ़ीम बाँटने का हुनर आना चाहिए। आजकल अनेक पाखंडी इसी तरह अपने-अपने धर्म की अफ़ीम बाँट रहे हैं। इसे धार्मिक जाल फेंकना कहते हैं, जिसमें फँसने वाले अपनी स्वतंत्रता के लिए फडफ़ड़ाते नहीं हैं, बल्कि पाखंडियों के हर इशारे पर नाचते रहते हैं।