आखिर न्याय में इतनी देर क्यों?

निर्भया बलात्कार मामले में दोषियों की फाँसी को लेकर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से हर आदमी- चाहे वो लडक़ा-लडक़ी, प्रौढ़ या फिर बुजुर्ग हो; संतुष्ट नज़र आ रहा था। लेकिन दोषियों की सज़ा टल सकने की खबर से सब उदास हैं। हर किसी की ज़ुबान पर पहला सवाल यही है कि पहले से ही इस मामले में इतनी देर लगी और अब न्याय हुआ भी, तो दोषियों को बचाने की कोशिशें क्यों हो रही हैं? जनता में दोषियों के पक्ष में किसी को भी सहानुभूति नहीं है; बल्कि लोगों का यह कहना है कि ऐसी सज़ा का कानून बने, ताकि फिर कोई ऐसी घटना न घटे जो इस देश की संस्कृति पर धब्बा लगाए।

हाल ही में पंजाब विश्वविद्यालय के कई विभागों के युवक-युवतियों और अन्य लोगों से जब इस बारे में बात की गयी है, तो सबसे दोषियों की फाँसी को जायज़ ठहराया। गणित विभाग, साइकोलॉजी, हिन्दी, लॉ डिपार्टमेंट व यूआईईटी के स्टूडेंट्स ने एक आवाज़ में कहा कि जैसा अपराध किया है, सज़ा भी वैसी ही होनी चाहिए। लेकिन फैसला इतनी देर से क्यों हुआ? और हुआ भी तो अब फिर अन्याय जीतता क्यों नज़र आ रहा है? कुछ ने कहा कि चलो फैसला देर से ही सही, निर्भया के साथ-साथ न्याय तो हुआ। माने गुप्ता, शिवेंद्र, ज्योति अहलावत समेत कई स्टूडेंट्स ने बताया कि बाकी देशों की सूची देखें, तो वहाँ बलात्कार-कत्ल केस कम हैं; लेकिन हमारे देश में कोई कोई डर नहीं। विदेशों में अगर कुछ गलत होता है, तो उसकी सज़ा भी सख्त होती है। हमारे देश में भी ऐसे मामलों में जल्द फैसला होना चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जाने जाते मनोविज्ञान के वरिष्ठ प्रोफेसर डॉ. जितेंद्र मोहन के साथ इस मामले पर जब चर्चा की गयी, तो उन्होंने बताया कि 19 दिसंबर, 2012 को वह लाहौर में एक कॉन्फ्रेंस में गये हुए थे, तब एक पत्रकार ने उन्हें सूचना दी। अगले दिन जब चंडीगढ़ पहुँचे, तो सभी अखबार इस घटना से पटे हुए थे। उस वक्त पहला विचार यह आया कि देश में ऐसी स्थिति तो पहले कभी नहीं हुई। बलात्कार या कत्ल मानवीय प्रकृति से जुड़े हैं, जो होते रहे हैं; लेकिन इस तरह को जघन्य अपराध के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। उन्होंने इस थीम पर महिला सशक्तिकरण को लेकर एक जर्नल भी प्रकाशित किया था। वे मानते हैं कि सेमिनार करवा देने से, वुमेन सेंटर बना देने से समाज पर असर नहीं होता; क्योंकि मानसिकता नहीं बदल रही।

डॉ. मोहन कहते हैं कि यह एक आम केस क्यों बन गया, क्या कानून का कोई ऐसा तरीका नहीं था, जिससे निर्भया को न्याय जल्द मिल पाता? ऐसे कई सवाल ज़ेहन में उठते रहे हैं। इस बात पर वे अफसोस ज़ाहिर करते हैं कि अपने देश में ऐसा लगता है जैसे कानून को फुटबॉल की तरह खेला जाता हो। सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निर्णय के बाद भी इस मामले में दखलंदाज़ी बताती है कि कानून सियासी हाथों की कठपुतली बन चुका है। जब दोषियों ने इस जघन्य अपराध करते वक्त कोई नियम-कानून का ध्यान नहीं रखा तो उनके लिए कैसा कानून। वह कहते हैं कि जंगल के भेडि़ए को आम जानवर की तरह ट्रीट नहीं किया जा सकता। हैरानी तो इस बात की है कि छठा लडक़ा पहले ही बच गया, जिसने सर्टीफिकेट जमा कर दिया और कानून ने मान लिया। उसका डीएनए नहीं, एनालिसिस नहीं। तीन साल बाद जब वह बाहर आया, तो क्या उसमें सुधार हुआ; यह बहुत ही चिंतनीय और व्यवस्था पर सवाल खड़ा करने वाला है। डॉ. मोहन ने मीडिया की इस बात पर ऐतराज़ जताया कि इनके फोटो प्रकाशित नहीं किये जाने चाहिए; इनको हीरो की तरह पेश नहीं किया जाना चाहिए; जबकि अदालत से जेल लाने-ले जाने के वक्त इनके मुँह क्यों ढके रहते हैं? इसके पीछे उनका तर्क है कि लोग जब अखबार पढ़ते हैं, तो सबसे पहले फोटो पर ध्यान जाता है। ऐसा क्यों हुआ? कैसे हुआ? यह सब बाद में देखते हैं। दूसरी तरफ बच्चे इनको हीरो समझते लगते हैं। जेल में बन्द दोषियों को भी कई बार लगता होगा कि 15-20 अखबारों, चैनलों मे हमारी फोटो आ रही है।

प्रो. जितेंद्र का कहना है कि उम्मीद थी कि 22 जनवरी को निर्भया के साथ न्याय होगा; पर अफसोस न्याय में अड़ंगे लगते नज़र आ रहे हैं। जब सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया, तब फैसले के दिन की प्रासंगिकता थी। कुछ सवालों पर शिद्दत और गम्भीरता के साथ विचार-विमर्श किये जा रहे थे कि कि ऐसा अपराध भविष्य में ऐसा न हो, इसके लिए दिल्ली सरकार ने क्या उपाय किये? स्कूलों-कॉलेजों में कैसी जागरूकता फैलायी जा रही है? इन न्याय से अपराधी डरेंगे, आदि-आदि। पर फाँसी पर रोक लगते ही सब बदल गया। अब सवाल उठ रहे हैं कि आज देश में सडक़ किनारे खड़ी लडक़ी कितनी सुरक्षित है? क्या हमारा सफर सुरक्षित है? देश की संस्कृति में आयी विकृति को कैसे ठीक किया जाए? डॉ. मोहन और अनेक युवक-युवतियों का कहना है कि अगर हमारे देश में बलात्कार-कत्ल के ऐसे मामले ज्यादा हैं, तो हमें फिर से सोचना चाहिए कि हमारा धर्म, हमारे नेता, हमारा न्याय क्या कर रहा है?