आँसू बनकर बह गयी नफरत

यह बात उन दिनों की है, जब रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विवाद चल रहा था। हालाँकि इस विवाद से रामपुर के शाहबाद गेट मोहल्ले में हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच कोई तनाव नहीं था। इस मोहल्ले में रामसूरत और जब्बार नाम के दो लोग अपने-अपने परिजनों के साथ रहते थे। रामसूरत नगर निगम से सेवानिवृत्त हो चुके थे। उनका इकलौता बेटा महेश स्नातक की पढ़ाई करके घर पर ही खाली रहता था। वहीं जब्बार ठेली पर शृंगार का सामान रखकर फेरी लगाते थे। इस नाते उन्हें मोहल्ले की तकरीबन सभी औरतें जानती-पहचानती थीं। उनके तीन बेटे थे, जिनमें बड़ा बेटा उस्मान एक फैक्टरी में नौकरी करता था, जबकि मँझला इस्लाम साइकिल सँभालने की दुकान पर और छोटा करीम चाय की दुकान पर। वैसे दोनों ही परिवारों में न तो पहले कभी विवाद हुआ था और न ही किसी तरह का कोई ऐसी मिलीभगत ही थी कि वे एक-दूसरे से किसी तरह जुड़े हों। यानी एक-दूसरे को मोहल्ले में होने के नाते जानते थे, पर करीब से जानते नहीं थे।

एक दिन महेश उसी चाय की दुकान पर अखबार पढ़ रहा था, जिस पर करीम काम करता था। अखबार के पहले पन्ने पर ही रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विवाद की खबर छपी हुई थी। कुछ और लोग भी वहीं बैठे थे। जैसा कि अमूमन होता है कि ऐसे संवेदनशील मामलों में लोगों में जगह-जगह बहस होने लगती है; इस मामले में भी ऐसा ही हुआ। पहले वहाँ बैठे कुछ लोग चर्चा करने लगे और देखते ही देखते बहस करने लगे। महेश ने इसी बहसा-बहसी में विवादित बयान दे दिया। दूसरी तरफ से भी विवादित बयानबाज़ी हुई और मामला तूल पकड़ गया। इस बयानबाज़ी में करीम भी पीछे नहीं रहा। उसका भी खून नया था, भला चुप कैसे रहता। कुछ लोगों ने दोनों पक्षों को समझाने का भी प्रयास किया पर बात बिगड़ती ही गयी। खैर, वहाँ से कुछ लोग एक-दूसरे को भला-बुरा कहते हुए, एक-दूसरे को देख लेने तक की धमकियाँ देकर चले गये। दूसरे दिन सुबह-सुबह महेश और करीम मोहल्ले की एक गली में फिर टकरा गये। पता नहीं दोनों ने एक-दूसरे से क्या कहा कि दोनों में झगड़ा शुरू हो गया। देखते-देखते यह झगड़ा घर तक पहुँच गया। थाने में दोनों पक्षों ने एक-दूसरे िखलाफ रिपोर्ट लिखायी। पुलिस दोनों तरफ के लोगों को थाने ले आयी। महेश और करीम को जेल भेजने की धमकियाँ पुलिस की तरफ से मिलने लगीं। अब दोनों ही पक्ष परेशान थे। क्या किया जाए। दोनों पक्ष फैसला करने को राज़ी हो गये। शायद, पुलिस को कुछ ले-देकर फैसला हो गया। पुलिस ने आगे कभी झगड़ा करने पर दोनों पक्षों को हवालात में बंद करने की धमकी देते हुए जाने दिया। इस एक घटना का नतीजा यह निकला कि महेश और करीम की दोनों के पिताओं ने घर में पिटाई कर दी। महेश घर छोड़कर कहीं चला गया।

इस बात की चर्चा  शाम तक पूरे मोहल्ले में आग की तरह फैल गयी। शाम को जब्बार महेश के घर पहुँचे और रामसूरत से अपने बेटे की गलती के लिए माफी माँगने लगे। रामसूरत ने बिना गिला-शिकवा किये अपने ही बेटे की गलती बतायी। महेश तो नहीं लौटा, पर इस झगड़े से दोनों परिवारों में दुआ-सलाम शुरू हो गयी। एक दिन रामसूरत हाईवे पर किसी ट्रक की चपेट में आ गये। जैसे ही यह खबर उनके घर पहुँची, जब्बार के घर वाले भी दौड़ पड़े। शाम को जब्बार के तीनों बेटों को भी खबर मिली। जब्बार और उनका बड़ा बेटा उस्मान अस्पताल पहुँचे। पता चला कि रामसूरत के सिर से काफी खून बह गया है, जिसके चलते उन्हें खून चढ़ाना पड़ेगा। उस्मान उन्हें अपना खून देने को तैयार हो गया। उस्मान ने अपना खून दिया। रामसूरत को खून चढ़ गया। सुबह कहीं खबर सुनकर महेश अस्पताल आ गया। वह रामपुर में ही कहीं किसी दोस्त के साथ रहने लगा था और अपने परजिनों से गुस्सा था। लेकिन पिता की दुर्घटना की खबर उसे अस्पताल खींच लायी। अस्पताल आकर जैसे ही उसे पता चला कि करीम के भाई उस्मान ने उसके पिता को खून देकर उनकी जान बचायी है। वह फूट-फूटकर रोने लगा और जब्बार के पैर पकड़कर माफी माँगने लगा। जब्बार ने उसे उठाकर गले से लगा लिया और खुद भी रोने लगे। अस्पताल के बेड पर घायलावस्था में लेटे रामसूरत और उनकी पत्नी की भी आँखें भर आयीं। कुछ दिन बाद रामसूरत ठीक होकर घर आ गये। इस एक और घटना ने दोनों परिवारों को इतना एक कर दिया कि उसके आगे सगे परिजनों की एकता भी फीकी लगे।

अब दोनों परिवारों के बीच कोई मज़हबी दीवार थी और न ही कोई मज़हबी चर्चा होती थी। दोनों ही परिवार एक-दूसरे के घर खूब आया-जाया करते थे और हर त्योहार और घरेलू कार्यक्रम में मिल-जुलकर भाग लेते थे।

यह बात भले ही आपको एक कहानी की तरह लगे; लेकिन इस सच्ची घटना से आज हम सबको सीखने की ज़रूरत है। हमें समझना होगा कि आिखर हम सब इंसान हैं और एकता तथा प्यार से रहने में ही हमारी भलाई है। आिखर हम यह क्यों नहीं समझना चाहते कि इस दुनिया में हम कुछ खास •िाम्मेदारियाँ निभाने के लिए आये हैं। क्या हमें कुछ ऐसे काम नहीं करने चाहिए, जिससे हमें पूरी दुनिया प्यार करे और हमारे न रहने पर हमें सिद्दत से याद करे? क्या हम यहाँ मरने-कटने के लिए आये हैं? क्या ऐसा करके हम ईश्वर की सत्ता के िखलाफ काम नहीं कर रहे हैं? क्या हम अपनी आने वाली पीढिय़ों को ऐसी विरासत सौंपकर दुनिया से जाना चाहते हैं, जिसमें नफरत हो, मारकाट हो, परेशानियाँ हों, साँस लेना दूभर हो। यदि नहीं, तो हमें आज से और अभी से भाईचारे और प्यार से रहें। शायर बशीर महताब ने बहुत खूब कहा है-

मोहब्बत बाँटना सीखो मोहब्बत है अता रब की।

मोहब्बत बाँटने वाले तवील-उल-उम्र होते हैं।।