अफगानी महिलाओं में फिर दहशत!

अमेरिका के अपने सैन्यबल हटाने के बयान के बाद अफगानिस्तान में दो महिला न्यायाधीशों की हत्या

कतर की राजधानी दोहा में अफगानी सरकार के अधिकारियों व तालिबान के बीच जारी शान्ति-वार्ता के दरमियान 17 जनवरी को अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में बन्दूकधारियों ने एक कार पर गोलीबारी की, जिसमें उच्च अदालत में कार्यरत दो महिला न्यायधीशों को मौत हो गयी। यह आलेख लिखे जाने तक किसी भी संगठन ने हमले की ज़िम्मेदारी नहीं ली थी, लेकिन अफगान सरकार का मानना है कि इस हमले के पीछे तालिबान का हाथ हो सकता है। गौरतलब है कि यह वारदात 17 जनवरी को हुई यानी ठीक दो दिन बाद जब अमेरिकी प्रशासन ने 15 जनवरी को बयान जारी कर कहा कि उसने अफगानिस्तान में अपने बलों की संख्या 5,000 से कम करके 2,500 कर दी है। यूँ तो बीते कई महीनों से अफगानिस्तान में पत्रकारों, डॉक्टरों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की हत्याओं के मामले सामने आ रहे हैं, लेकिन उच्च अदालत की दो महिला न्यायधीशों को निशाना बनाने वाली घटना से अफगानिस्तान में महिलाओं की हिफाज़त, उनके खिलाफ हिंसा, महिला अधिकारों को खतरे वाला मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बन गया है। सवाल यह है कि क्या यह घटना कतर में जारी शान्ति-वार्ता में तालिबान के ऊपर महिलाओं के प्रति उनके रूढ़ नज़रिये में बदलाव लाने के लिए दबाव डालने का काम करेगी। बहरहाल अफगानिस्तान की आधी आबादी यानी औरतें, लड़कियाँ इस समय सुकून की ज़िन्दगी नहीं जी पा रही हैं, उन्हें चिन्ता शान्ति-वार्ता के आगामी नतीजों को लेकर है कि कहीं उनके संविधानप्रदत्त अधिकारों में कटौती न हो जाए और वे आगे बढऩे की बजाय पीछे न धकेल दी जाएँ।

उल्लेखनीय है कि अमेरिका और तालिबान के बीच अफगानिस्तान से 19 साल के बाद अमेरिकी सैनिकों की वापसी सम्बन्धी समझौता 29 फरवरी, 2020 को हुआ था। समझौते में कहा गया है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी 18 महीनों के भीतर होगी, बशर्ते तालिबान आतंकवादी समूहों से लडऩे की प्रतिबद्धता का सम्मान करे। इस समझौते के अनुसार, आगामी मई तक अमेरिका अपनी शेष सेना को भी वापस बुला लेगा। लेकिन अमेरिका के नये राष्ट्रपति जो बाइडन आने वाले समय में इस सन्दर्भ में क्या रुख अपनाते हैं? यह देखना होगा। पर अफगानी महिलाओं पर उनके सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक अधिकारों में कटौती होने का खतरा मँडराने लगा है। उन्हें भय है कि सन् 2004 में बने जिस संविधान ने उन्हें मर्दों के बराबर अधिकार दिये, कहीं उनमें कटौती न हो जाए। फिर से 2001 से पहले वाला महिला अधिकारों को दबाने वाला माहौल व नियम उन पर हावी न हो जाए। दो दशक पूर्व यानी सन् 2001 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू. बुश ने अफगानिस्तान पर हमला करके इसे वैश्विक आतंकवाद के खिलाफ जंग बताया था, इसके साथ ही यह भी कहा गया था कि उनकी मंशा अफगानिस्तान की महिलाओं को बेहतर ज़िन्दगी जीने व उनके मौलिक अधिकारों की बहाली के लिए अनुकूल अवसर मुहैया कराना भी है। दरअसल सोवियत संघ के द्वारा अफगानिस्तान पर कब्ज़ा करने से पहले और युद्ध के कुछ वर्षों तक भी वहाँ महिलाओं की स्थिति अधिक खराब नहीं थी। विशेषतौर पर शहरी महिलाओं की। उन्हें शिक्षा हासिल करने का अधिकार था। वे पेशेवर करियर में भी थीं। न्यायपालिका व अफगान की संसद में भी नज़र आती थीं। सन् 1964 के अफगानी संविधान का मसौदा तैयार करने में भी उन्होंने अहम भूमिका निभायी। यह तथ्य सर्वविदित है कि सन् 1979 में सोवियत संघ के अफगानिस्तान पर कब्ज़े व उसके बाद मुजाहिदीन के उदय से, जिसने इस मुल्क को इस्लामिक स्टेट में तब्दील कर दिया; यहाँ उस दौरान बहुत कुछ बदल गया। हालात बद से बदतर होते चले गये। सन् 1990 के शुरुआत में अफगानिस्तान में तालिबान के ज़ोर पकडऩे से सिर्फ मुल्क की ही नहीं, बल्कि महिलाओं की हालत भी पिछड़ती चली गयी। उन्हें फिर से पारम्परिक लैंगिक भूमिकाओं में धकेल दिया गया। मर्द-औरत के बीच भेदभाव वाली संस्कृति ज़ोर पकड़ती गयी। लड़कियों के पढऩे पर कई पाबन्दियाँ लगा दी गयीं। नौकरी करने तक की इजाज़त नहीं थी। स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी पहुँच बहुत ही सीमित थी। बुर्काअनिवार्य कर दिया गया। घर के बाहर बिना मर्द के निकलने पर मनाही थी और यह मर्द भी परिवार का सदस्य होना चाहिए था। परम्पराओं के बोझ से लदी तकरीबन हर लड़की और फिर जल्द ही दहशत से गुलाम औरत में तब्दील होती गयी। जिसकी न तो अपनी ज़िन्दगी के अहम फैसलों में कोई सुनवाई होती और न ही किसी भी पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक फैसलों में उसे जगह मिलती थी। मर्द का साया ही उस पर शासन करता, चाहे वह घर की चहारदीवारी में हो या घर की दहलीज़ के बाहर। गृहयुद्ध में पतियों, भाइयों व पिता के मारे जाने से महिलाओं की स्थिति सामाजिक व आर्थिक रूप से और भी कमज़ोर होती चली गयी। एकल महिलाओं, विधवाओं और बच्चों की मुश्किलें तालिबान शासन में बराबर बढ़ती ही चली गयीं। युवा लड़कियों, महिलाओं पर यौन-दुराचार के झूठे आरोप लगाकर उन्हें जेलों में बन्द कर दिया गया। ऑनर किलिंग की घटनाएँ आम हो गयी थीं। अमेरिका ने जब सन् 2001 में आतंकवाद का सफाया करने की दलील देकर अफगानिस्तान के आतंकवादी ठिकानों पर हमले किये और उसके बाद वहाँ सरकार बनवाने में मदद की, तब अफगानिस्तान में 2004 में जो संविधान बना, उसे बनाने में महिलाओं ने अहम योगदान दिया।

अफगानिस्तान के अखबार ‘द डेली आउटलुक’ ने हाल ही में अपने सम्पदाकीय में लिख है-‘तालिबानी शासन के बाद के संविधान को लोकतांत्रिक मूल्यों और इस्लामी उसूलों, दोनों के आधार पर अनुमोदित किया गया था और इन दोनों के बीच के सामंजस्य को देश-दुनिया ने भी स्वीकार किया। नज़ीर के तौर पर यह संविधान संयुक्त राष्ट्र चार्टर और यूनिवर्सल डिक्लियरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स को अपनी मान्यता देता है। मानवाधिकारों की इस सार्वभौमिक घोषणा के तहत प्रत्येक मनुष्य को वो तमाम अधिकार और स्वतंत्रता हासिल हैं, जिनकी इसमें घोषणा की गयी है और किसी को भी नस्ल, रंग, लिंग, भाषा, क्षेत्र, धर्म, राजनीतिक या अन्य विचार, राष्ट्रीय या सामाजिक पृष्ठभूमि, सम्पत्ति, जन्म या अन्य किसी हैसियत के आधार पर इनसे वंचित नहीं किया जा सकता।’

मौज़ूदा संविधान में लैंगिक भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं है। और संवैधानिक रूप से मर्द और औरत, दोनों को बराबर हक हासिल हैं, और ऐसे हक बताते हैं कि औरतें सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक गतिविधियों में भागीदारी और फौज व पुलिस सेवा में योगदान की हकदार हैं। उल्लेखनीय है कि इस मुल्क के मौज़ूदा संविधान के अनुच्छेद-83 में संसद के निचले सदन में महिलाओं के लिए 27 फीसदी तथा ऊपरी सदन के लिए 50 फीसदी सीटों के आरक्षण की व्यवस्था की गयी है। आज यहाँ पर महिलाएँ टैक्सी ड्राइवर हैं, टीवी एंकर हैं, संसद में हैं, बैंक में भी नज़र आती हैं और न्यायाधीश की कुर्सी पर भी। अपने राष्ट्र को आगे ले जानी वाली प्रगतिशील नीतियों को बनाने वाली समितियों व उन्हें लागू कराने वाले बोर्ड का हिस्सा भी हैं। सन् 2003 में यहाँ प्राइमरी शिक्षा में नामांकित लड़कियों की दर 10 फीसदी से भी कम थी, जो सन् 2017 में यह बढ़कर 33 फीसदी तक पहुँच गयी। यह उल्लेखनीय नहीं है, लेकिन दर बढ़ रही है। इसी तरह सैंकडरी शिक्षा में यह दर छ: फीसदी से बढ़कर 39 फीसदी तक पहुँच गयी है। 2020 तक अफगान सिविल सेवकों में 21 फीसदी महिलाएँ थी, जबकि तालिबान शासन के दौरान यह तादाद लगभग शून्य थी। इस 21 फीसदी में 16 फीसदी महिलाएँ वरिष्ठ प्रबन्धन स्तर पर अपनी सेवाएँ दे रही हैं। अफगान संसद में 27 फीसदी महिलाएँ हैं। सवाल यह है कि जब अफगानी अधिकारियों और तालिबान के नुमाइंदों के बीच शान्ति वार्ता का दौर जारी है, तो क्या इस शान्ति वार्ता की मेज पर महिलाओं को हासिल मौज़ूदा हकों को संवैधानिक तौर पर बरकरार रखने का लिखित ठोस आश्वासन तालिबान से लिया जाएगा? इसके अलावा भविष्य में भी मुल्क की लड़कियों, औरतों को आगे बढऩे के लिए प्रोत्साहित करने वाली सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक नीतियों व कार्यक्रमों में उनकी हिस्सेदारी को और मज़बूत करने पर भी बातचीत होनी चाहिए। लेकिन मौज़ूदा हकीकत यह है कि दोहा में जारी शान्ति-वार्ता में तालिबान अफगानी औरतों के हकों और उनकी स्वतंत्रता के बारे में बात करने से कतरा रहा है।

अफगान सरकार की ओर से वार्ता के लिए गठित कमेटी में चार महिलाएँ हैं, लेकिन तालिबान की वार्ता टीम में कोई भी महिला नहीं है। इस बाबत वह खामोश है। पर यह गम्भीर मुद्दा है और इस मुल्क की शिक्षित, जागरूक, सशक्त महिलाएँ उनके अधिकारों को कमज़ोर करने वाली किसी भी शान्ति-वार्ता को मनाने से इन्कार करती हैं। क्योंकि वे ऐसी शान्ति-वार्ता चाहती हैं, जिसमें तालिबान कमज़ोर स्थिति में नज़र आये। वे नहीं चाहतीं कि तालिबान इतना मज़बूत होकर सामने आये कि वह मौज़ूदा संविधान को फिर से लिखे और महिलाओं को गुलाम बना डाले।

अफगानी महिलाएँ इस बात से भी भयभीत हैं कि तालिबान अगर हावी हो गया, तो उनकी ही ज़िन्दगी नहीं, बल्कि छोटी बच्चियों का भविष्य भी तबाह हो जाएगा और वे फिर से यौन तथा शारीरिक शोषण की शिकार होने लगेंगी। आज भी अफगानिस्तान के कुछ इलाकों में तालिबान का दबदबा है और वहाँ की लड़कियों-औरतों पर कई तरह की पांबदियाँ साफ नज़र आती हैं। अमेरिका में राष्ट्रपति जो बाइडन ने 20 जनवरी को कार्यभार सँभाला है, वह अफगानी महिलाओं को हासिल अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता को बरकरार रखने के लिए क्या हस्तक्षेप करेंगे? क्या वह कोई रणनीति अपनाएँगे? इस पर अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की नज़र है। क्या इसका खुलासा 29 फरवरी से पहले हो सकता है? क्योंकि करीब 18 महीने की बातचीत के बाद 29 फरवरी, 2020 को अमेरिका व तालिबान के बीच सैन्य समझौता हुआ था, इस 29 फरवरी इसका एक साल पूरा हो जाएगा। यूँ तो तमाम अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का यह फर्ज़ बनता है कि वे तालिबान पर इतना दबाव बनाएँ कि उसे यह गारंटी देनी ही पड़े कि वह औरतों पर अपनी मानसिकता, शरिया कानून की अपनी व्याख्या नहीं थोपेगा। लेकिन अभी तक तो ऐसा नहीं हुआ है, शायद भविष्य में हो!