‘अपने सामने’ कविता और दृश्य की अनिवार्य टकराहट से बचकर बनाई गई फिल्म

हरफनमौला कवि, रंगकर्मी, चित्रकार, संगीत शास्त्र के ज्ञाता एवं फिल्मकार गौतम चटर्जी ने भारतीय ज्ञानपीठ तथा पद्मभूषण से सम्मानित वरिष्ठ कवि कुंवर नारायण की कविताओं को लेकर ‘अपने सामने’ शीर्षक से एक लघु फिल्म बनाई है जिसका प्रदर्शन पिछले दिनों लखनऊ में प्रत्यूष द्वारा किया गया।

गौतम चटर्जी ने अब तक नौ गैर कथाचित्र और तीन कथाचित्रों का निर्माण किया है। कथाचित्र ‘कुहासा’ का विश्व प्रीमियर पिछले वर्ष हुआ था। वे बीसवीं शती के विश्व के दस कवियों पर फिल्म श्रृंखला पूरी कर चुके हैं जिसमें शामिल हैं मार्सेल प्रूस्त, डब्लू एच आडेन, हैंस मैग्नस अँजेसबर्गर, होरहे लुइस बोर्हेस, रेनर मारिया रिल्के, श्री अरविंद, रबीन्द्रनाथ ठाकुर, ओ एन वी कुरूप, श्रीकांत वर्मा और कुंवर नारायण।

हिंदी के कवि कुंवर नारायण की कविताओं पर बनी फिल्म ‘अपने सामने’ का प्रदर्शन इसी श्रृंखला की एक रोचक कड़ी है। गौतम चटर्जी का कहना है कि जीवन के प्रति अपनी अर्जित या उद्घाटित दृष्टि को लोगों से साझा करना ही कवि का जीवन उद्देश्य होता। कवि कुंवर नारायण की ऐसी ही कविताओं को फिल्म के लिए चुना गया है।

वे आगे कहते हैं कि फिल्म रचना में फिल्मभाषा का विकास फिल्म के उन कवियों का केंद्रीय सरोकार रहा है जिन्होंने कमर्शियल की जगह क्लासिक फिल्में बनायीं। मैंने इसी दिशा में सांध्यभाषा फिल्में या ट्विलाइट फिल्म्स की रचना की हैं। ‘अपने सामने’ इसी भाषा मे बनी फिल्म है।

उनका मानना है कि क्लासिक सिनेमा की दुनिया मे कुछ फिल्मकारों ने ब्रेसां और बर्गमैन से और आगे आकर काव्यात्मक फिल्मों की परिकल्पना की जैसे आंद्रे तारकोवस्की। सिनेमैटोग्राफी को एक कवि की प्रतीक्षा रहती है। कवि की तरह इस माध्यम को देखना फिल्म भाषा का अनवरत विकास है। मैं स्वयं इसी भाषा मे लगभग एक दशक से फिल्म बनाने की कोशिश करता आ रहा हूँ।

कुंवर नारायण ने येव्तुन्शको का कथन उद्धृत करते हुए कहीं लिखा था कि अ पोएट्स ऑटोबायोग्राफी इज हिज पोएट्री एनीथिंग एल्स कैन ओनली बी अ फुटनोट।

अज्ञेय के तारसप्तक के कवि कुंवर नारायण की कवितायें व्याकुल कर देने वाली और संक्रामक हैं। जैसे एक कविता की आखिरी पंक्तियाँ हैं फिर कभी कागज़़ हुआ तो चेष्टा करूँगा कि जिन्दगी किसी पत्र का इंतज़ार हो जिसे कोई प्यार से लिखे सम्भाल कर लिफाफे में रखे और होंठों पर चिपकाकर देर तक सोचे कि उसे भेजे या न भेजे।

अपने सामने के प्रदर्शन कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने प्रदर्शनोपरान्त कहा कि कुंवर नारायण मूलत: आध्यात्म जीवन मृत्यु और दार्शनिकता के कवि हैं। उनकी कविताओं में न तो हस्तक्षेप दिखता है और न ही प्रतिरोध। वे कभी जन आंदोलनों में शामिल नहीं हुए। उनकी रुचि कला संस्कृति में रही है। उनके सम्बन्ध समाजवादियों से थे। कुछ महत्वपूर्ण कविताओं को अगर इस फिल्म में सम्मिलित किया गया होता तो उनके रचनाकार को और अधिक प्रभावी ढंग से उजागर किया जा सकता था  जैसे घर रहेंगे हमीं उनमें रह न पायेंगे, समय होगा हम अचानक बीत जायेंगे।

कविता और दृश्य की अनिवार्य टकराहट से बचकर बनाई गई अपने सामने लघु फिल्म में हर शब्द अपने बिम्ब स्वयं लेकर आता है। कुंवर नारायण की कविताओं में दार्शनिकता की अभिव्यक्ति खूब हुई है जिसे फिल्मकार ने उसी लय के साथ चित्रान्कित किया है।

‘लमही’ पत्रिका के सम्पादक विजय राय का कहना था कि गौतम चटर्जी ने कुंवर जी की कविता की मूल आत्मा को इस फिल्म में जिंदा और बरकरार रखा है। कोई भी दृश्य भागता हुआ नहीं है। कविता पाठ और दृश्यों की मिक्सिंग बहुत अच्छी है। ज्यादातर प्रकृति और खन्डहर  के दृश्य हैं। जैसे की कुंवर जी कहते हैं कि खण्डहरो को देखना प्रकृति में मनुष्य के हस्तक्षेप को फिर से प्रकृति होते देखना है।

नाद वाचस्पति अवार्ड से सम्मानित गौतम चटर्जी की लघु फिल्म अपने सामने को बहुत सराहा जा रहा है। इस कार्यक्रम में उपस्थित कात्यायनी सुभाष राय जय कृष्ण अग्रवाल दीपक शर्मा रेखा तनवीर गज़़ल जैगम विजय पुष्पम अशोक बनर्जी सुशील कुमार सिंह सुशीला पुरी नाइश हसन एबंधु कुशावर्ती दीपक श्रीवास्तव प्रवीण चन्द्र शर्मा अरुण सिंह सत्यम वर्मा और सुशील सीतापुरी उपस्थित थे जिन्होंने आखिर में हुई बातचीत में हिस्सा लिया।