आपके पसंदीदा कवि कौन हैं?
कोई एक पसंद हो तो बताऊं. मुझे अलग-अलग कारणों से कई कवि पसंद हैं. रचनाकारों में रेणु मुझे मुकम्मल तौर पर पसंद हैं. अज्ञेय जी की भी कई कविताएं काफी पसंद हैं. कुछ रचनाकार कुछ खास चीजों के लिए पसंद होते हैं. मुक्तिबोध अपनी गहरी वैचारिकता के लिए पसंद हैं. अज्ञेय विषयों को बड़ी पैनी नजर से पकड़ते हैं, उसके लिए पसंद हैं. अज्ञेय के अंदर एक आलोचक बैठा रहता है. अज्ञेय ने हिंदी की शब्दावली को काफी समृद्ध किया है. आलोचना को कई नए शब्द अज्ञेय ने दिए हैं. कई मारक सूक्तियों की रचना की है एवं बड़े ही सलीकेदार इंसान रहे हैं. आपके पूरे भाषण को अपने एक वाक्य से ध्वस्त करने की कला अज्ञेय में लाजवाब है.
नंदकिशोर नवल ने अपने एक साक्षात्कार में कहा कि धूमिल के बाद कोई मुकम्मल कवि नहीं हुआ. आप क्या कहेंगी?
ये तो पराकाष्ठा है. वे स्पष्ट करें मुकम्मल होना क्या होता है. कवि तो कवि होता है. धूमिल के बाद तो नागार्जुन भी हुए हैं. धूमिल ने तो एक ही ढर्रे की कविताएं लिखी हैं. पर धूमिल का प्रोपेगेंडा के तहत प्रचार बहुत किया गया. अगर आप किसी वाद से जुड़े होते हैं तो बहुत तारीफ की जाती है और कम उम्र में मृत्यु हो जाए तो उसे शहादत का दर्जा दे दिया जाता है. इस कारण से भी उन्हंे प्रसिद्धि मिली. बहुत-से कवियों ने उनके बराबर की कविताएं लिखी हैं.
हिंदी में साहित्यकार बनकर आप जीवन की गाड़ी नहीं खींच सकते, जबकि भारत में ही दूसरी भाषाओं के रचनाकारों के साथ ऐसी स्थिति नहीं?
यह समस्या लेखक की नहीं है. यह समस्या खरीदारों की है. अन्य भाषाओं की रचनाओं के खरीदार सोच से समृद्ध हैं, जबकि हिंदी के पाठक उधार की किताब लेकर पढ़ लेंगे पर खरीदकर नहीं. पटना के पुस्तक मेले में मैंने देखा है कि मैले-कुचैले कपड़े पहनने वाला व्यक्ति भी एक-दो किताबें खरीद कर ही निकलता है. बड़े शहरों के पाठक पुस्तक मेले को एक पिकनिक की तरह लेते हैं. जाते हैं, घूम-फिर कर, खा-पीकर और मौज-मस्ती कर वापस हो लेते हैं. हां! कोई सनसनीखेज किताब आए तो खरीद लेते हैं. तस्लीमा नसरीन की ‘लज्जा’ को ही ले लो, एक दिन में तीन हजार प्रतियां तक बिकी हैं. अश्लील या सनसनीखेज लिखो तो खरीदार मिल जाएंगे.
आलोचना दो कसौटियों पर कसी जाती है, एक सौंदर्यशास्त्र पर और दूसरी रस सिद्धांत पर. आपको क्या लगता है, नई विमर्श और नए अस्मिताओं के उभार के दौर में कसौटी बदलने की जरूरत है?
कसौटी तो इस बात से तय होती है कि रचना किस तरह की मांग करती है. अगर रचना सौंदर्यशास्त्र की है तो आप उसे कसौटी पर कस सकते हैं. पर नागार्जुन की रचना को किस कसौटी पर कसेंगे? मैंने लिखा भी है कि आलोचना के प्रतिमान रचना की प्रकृति से तय होते हैं. आलोचना की कसौटी पर बिना किसी हथियार के रचना में प्रवेश करना चाहिए. अगर पहले से ही आप तय कर और कसौटी पर कसने कि कोशिश करेंगे तो आप उस रचना के साथ न्याय नहीं कर सकते. जिसमें परंपरागत सौंदर्य है ही नहीं, उसमें सौंदर्य तलाशने लगें तो कहां से मिलेगा? बताइए.
सच तो ये है कि धूमिल को अभी अच्छे से पढ़ा ही नहीं गया है….अगर कोई ये बोले कि धूमिल “एक ही ढर्रे की कविताएं” लिखते थे तो मुझे उनकी साहित्यसच तो ये है कि धूमिल को अभी अच्छे से पढ़ा ही नहीं गया है….अगर कोई ये बोले कि धूमिल “एक ही ढर्रे की कविताएं” लिखते थे तो मुझे उनकी साहित्य सोच और समझ पे थोडा शक जरुर होगा… सोच और समझ पे थोडा शक जरुर होगा…