पांच राज्यों के चुनावी नतीजों की धूल अब बैठ चुकी है. अब यह देखने का समय है कि इन चुनावों ने हमारे लोकतंत्र के रक्तचाप पर क्या असर डाला है. उत्तर प्रदेश में यह लगातार दूसरी बार है जब वोटरों ने किसी एक दल को साफ बहुमत दिया है. 2007 के पहले बीते बीस सालों में ऐसा नहीं हुआ था. पंजाब में 40 साल में पहली बार है जब किसी दल या गठबंधन को लगातार दूसरी बार विधानसभा में बहुमत मिला हो. उत्तराखंड में किसी को बहुमत नहीं मिला और सिर्फ एक सीट के अंतर से सबसे आगे निकलने वाली कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए दूसरों की मदद लेनी पड़ी.
यूपी-पंजाब को देखते हुए एक बात कही जा रही है कि भारतीय मतदाता अब स्थिर सरकारें चाहता है, इसलिए उसने दलों को स्पष्ट बहुमत दिया है. लेकिन क्या स्पष्ट बहुमत कोई ऐसी चीज है जिससे लोकतंत्र या राजकाज के बेहतर होने की गारंटी मिलती हो? मायावती से पहले आखिरी बार उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की जिस सरकार को बहुमत हासिल हुआ था उसके रहते और उसकी भागीदारी से बाबरी मस्जिद गिरी. गुजरात में दंगों के बावजूद नरेंद्र मोदी को विराट बहुमत मिला और अब तो वे खुद को गुजरात का गौरव बताते हैं. 2004 में अपने सहयोगियों पर कहीं ज्यादा निर्भर यूपीए सरकार कहीं ज्यादा जिम्मेदार नजर आती रही, लेकिन 2009 की मजबूत हैसियत ने उसे आज की तारीख में ज्यादा गैरजिम्मेदार बनाया है.
वोटर को अपने इलाके के दल और नेता चाहिए. राहुल गांधी जनता की निगाह में बाहरी थे जिसके मुकाबले अखिलेश बिल्कुल लोकल थे
मतलब यह कि स्पष्ट बहुमत वह चीज नहीं है जिस पर लोकतंत्र को बहुत खुश होना चाहिए. बेशक, इसकी वजह से विधानसभाओं में दिखने वाली घोड़ा मंडी बंद हो जाती है, कई बार सरकारें बेजा दबाव झेलने से भी बच जाती हैं, लेकिन अक्सर बड़ा बहुमत सत्ताओं को निरंकुश बनाता है और ताकतवर तबकों के बहुसंख्यकवाद को मजबूत करता है. जब कांशीराम कहा करते थे कि उन्हें मजबूत नहीं मजबूर सरकारें चाहिए तो वे दरअसल यही बताया करते थे कि मजबूत सरकारें कमजोर लोगों और तबकों की नहीं सुनतीं. यूपी में मजबूर सरकारों के सहारे ही वह दलित राजनीति परवान चढ़ पाई जिसने इस राज्य को आजादी के बाद पहली बार ऐसा मुख्यमंत्री दिया जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया. विडंबना बस यही है कि मायावती खुद को मिले स्पष्ट बहुमत को दीर्घावधिक जनादेश में नहीं बदल सकीं. भरोसा करना चाहिए कि अखिलेश यादव मायावती का हश्र याद रखेंगे.
बहरहाल, अब दूसरे मुद्दे पर लौटें. यह सच है कि उत्तर प्रदेश के चुनावों में राहुल गांधी नहीं चले, जबकि उनकी मदद के लिए सोनिया भी आईं और प्रियंका भी. लेकिन सारा दम लगा लेने के बावजूद कांग्रेस 30 सीटों तक भी नहीं पहुंच सकी. नेहरू-गांधी परिवार के विरोधी मानते हैं कि जनता ने राहुल गांधी के नाटक को नकार दिया है. लेकिन क्या यह राहुल गांधी या वंशवाद की हार है? बेशक, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को उतनी सीटें नहीं मिलीं जितनी उसे उम्मीद थी, लेकिन कायदे से राज्य में उसके वोट भी बढ़े हैं और सीटें भी. इसलिए यह नतीजा जल्दबाजी भरा लगता है कि वे यूपी में अंतिम तौर पर खत्म हो गए हैं या खारिज कर दिए गए हैं. आखिर 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को यहीं से 22 सीटें मिली थीं.
दूसरी बात यह कि नेहरू-गांधी परिवारवाद की भले हार हुई हो, उत्तर प्रदेश और पंजाब दोनों राज्यों में परिवारवाद ही जीता है. मुलायम सिंह यादव की जगह अखिलेश यादव ले रहे हैं और प्रकाश सिंह बादल की जीत का सेहरा सुखबीर सिंह बादल के सिर बांधा जा रहा है. जाहिर है, पार्टियों में वह आंतरिक लोकतंत्र नहीं है जिसमें परिवार के बाहर किसी नेता के उदय की गुंजाइश बने.
सवाल है, इन चुनावों का क्या कोई सकारात्मक पहलू है? एक तो यह कि जनता ने इन चुनावों में, जहां-जहां क्षेत्रीय विकल्प दिखे, उन्हें तरजीह दी. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बीएसपी के बाद ही बीजेपी-कांग्रेस को जगह मिली है. पंजाब में अकाली-बीजेपी गठजोड़ का जो बहुमत है वह अकालियों के बूते आया है, बीजेपी की सीटें भी घटी हैं और उनके वोट भी. उत्तराखंड में चूंकि ऐसा कोई विकल्प नहीं था, इसलिए लड़ाई कांग्रेस-बीजेपी के बीच बनी रही. गोवा में बीजेपी ने कांग्रेस को शिकस्त दी, लेकिन अपनी राष्ट्रीय छवि से अलग उसने वहां एक उदार चेहरा पेश किया और चर्च का भरोसा जीतने में कामयाबी हासिल की. मणिपुर में कांग्रेस के दबदबे को चुनौती देने की स्थिति नहीं थी, लेकिन वहां भी तृणमूल कांग्रेस ने अपनी लक्ष्य की जा सकने लायक मौजूदगी दर्ज करा दीं.