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बर्मिंघम में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में भारत ने कुछ नये खेलों में भी जीते पदक

इंग्लैंड के बर्मिंघम में इस बार के राष्ट्रमंडल खेल भारत के लिए कुछ नये खेलों की ज़मीन तलाशने वाले साबित हुए हैं। मसलन ट्रिप्पल जम्प। इस खेल में एक वक़्त ऐसा लग रहा था कि पोडियम पर तीनों भारतीय होंगे। ऐसा होता, तो यह अनोखी घटना होती। लेकिन भारत के प्रवीण वह चौथे स्थान पर रहे और कांस्य उनके हाथ नहीं आ पाया। कुछ अन्य खेलों में भी भारत ने पहली बार पदक (मेडल) जीते। एक और बात, पुरुष खिलाडिय़ों को चिन्ता में डालने वाली। महिला खिलाड़ी पदक जीतने में पुरुष साथियों को कड़ी टक्कर दे रही हैं। इस बार दो दर्ज़न पदक महिला खिलाडिय़ों ने जीते, जिनमें सात स्वर्ण पदक (गोल्ड मेडल) हैं।

इस बार शूटिंग राष्ट्रमंडल खेलों में शामिल नहीं थी। होती, तो भारत के पदकों का ग्राफ कहीं ऊँचा होता। लेकिन कोई शक नहीं कि भारतीय खिलाडिय़ों ने दमदार खेल दिखाया। नये क्षेत्र (खेल) भी खोजे और पहले से मज़बूत क्षेत्रों में और दमदार प्रदर्शन किया।

अंतरराष्ट्रीय खेलों में भारत के खिलाड़ी अब नये तेवर के साथ मैदान में उतरते हैं। वह प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी की आँखों में आँखें डालकर बात करते हैं और मनोवैज्ञानिक रूप से ख़ुद को एक विजेता के दावेदार के रूप में पेश करते हैं। इस बार के राष्ट्रमंडल खेलों में यह साफ़ दिखा और इसके नतीजे भी सुखद रहे हैं।
उदाहरण के लिए मुक्केबाज़ निकहत ज़रीन की फाइनल में अपनी प्रतिद्वंद्वी उत्तरी आयरलैंड की कार्ले मैकनाउल के ख़िलाफ़ बॉडी लैंग्वेज को गौर से देखें। कार्ले को 5-0 से हराने के बाद वह राष्ट्रमंडल खेलों में पहली बार मेडल जीतीं। लेकिन जीत के बाद उनका चेहरा देखने से साफ़ लगता था कि उन्हें स्वर्ण पदक जीतने का पक्का भरोसा था। हाल में निकहत ने विश्व मुक्केबाज़ी में भी टाईटल जीता था। भारतीय खिलाडिय़ों में आत्मविश्वास का यह नया स्तर है, जो उन्हें अंतरराष्ट्रीय मुक़ाबलों में और ऊँचे पायदान पर ले जा रहा है।

पदकों की संख्या से देखें, तो भले यह सन् 2010 में जीते 101 पदकों से काफ़ी कम हैं। लेकिन कई खेलों में भारत ने भविष्य के लिए बड़ी सम्भावनाओं का रास्ता खोला है। हॉकी में महिलाओं ने कांस्य पदक (ब्रांज मेडल) जीता और क्रिकेट में महिलाओं ने ही रजत पदक (सिल्वर मेडल)। लान बॉल गेम में स्वर्ण पदक, जबकि मिनिमम वेट कैटेगिरी में भी स्वर्ण। ट्रिप्पल जम्प में स्वर्ण और रजत दोनों भारत के हिस्से आये। पैरालम्पिक महिला टेबल टेनिस में भाविना हसमुख भाई ने भी स्वर्ण पदक जीतकर बता दिया कि शारीरिक बाध्यता हौसले से ज़्यादा ताक़तवर नहीं होती।

अविनाश साबले ने तो 3,000 मीटर स्टीपलचेज में भारत को राष्ट्रमंडल का पहला पदक दिलाया है। उनका रजत जीतना बताता है कि साबले लम्बी दूरी की दौड़ में भविष्य की उम्मीद हैं। वह महज़ 0.05 सेकेंड से स्वर्ण जीतने से चूक गये। लेकिन जिस तरी$के से उन्होंने फिनिशिंग की, उससे ज़ाहिर होता है कि वह कितनी योजना बनाकर ट्रैक पर उतरे थे। प्रियंका गोस्वामी ने 10,000 मीटर पैदल चाल में कांस्य जीतकर उम्मीद जगायी है।

अनु रानी भाला फेंक में पदक जीतने वाली पहली महिला खिलाड़ी बनीं, जिन्होंने कांस्य जीता। ट्रिपल जम्प में अल्डास पॉल और अब्दुल्ला अबुबकर ने जबरदस्त कमाल किया। स्वर्ण और रजत पदक जीतकर। राष्ट्रमंडल खेलों में पॉल ट्रैक इवेंट में स्वर्ण जीतने वाले सिर्फ़ छठे भारतीय हैं। सबसे पहला स्वर्ण सन् 1958 में महान् धावक मिल्खा सिंह ने जीता था।

लेकिन इस प्रदर्शन के बाद भारतीय खिलाड़ी सन्तुष्ट होकर नहीं बैठ सकते। विश्व या ओलम्पिक मुक़ाबलों में प्रतिस्पर्धा कहीं ज़्यादा कठिन होती है। वहाँ जीत का पैमाना भी ऊँचा रहता है। सबसे बड़ी बात यह कि ओलम्पिक जैसे खेलों में अमेरिका, चीन, जर्मनी, रूस, फ्रांस और इटली जैसे मुश्किल प्रतिद्वंद्वी होते हैं। लिहाज़ा भारतीय खिलाडिय़ों को वर्तमान तेवर बनाये रखते हुए और बेहतर प्रदर्शन के साथ आगे जाना होगा।

इन राष्ट्रमंडल खेलों में भारतीय खिलाडिय़ों ने सम्भावनाएँ जगायी हैं, जो विश्व या ओलम्पिक स्पर्धाओं के उन खेलों में भारत के पदकों का सूखा खत्म कर सकती हैं, जिनमें पदक का अभी तक सिर्फ़ इंतज़ार है। बहुत-से ऐसे खेल हैं, जिनमें भारत पदक पाने के लिए दशकों से तरसता रहा है। कई खेल तो ऐसे हैं, जहाँ भारत के खिलाड़ी विश्व रिकॉड्र्स के आसपास भी नहीं हैं। लेकिन इस बार के राष्ट्रमंडल खेलों को देखें, तो उम्मीद की किरण नज़र आती है।