राहुल के संगठन, उनकी युवा कांग्रेस, उनकी सरकार सभी में 127 साल पुरानी जड़ता है जिसे दूर करने की काव्य में रची-बसी ढेर सारी बातें तो राहुल खूब करते हैं, लेकिन उन्हें दूर नहीं करते. या करने में असफल हो जाते हैं. चार विधानसभा चुनावों में हारने के बाद वे एक छोटी सी मीडिया बाइट में कह तो देते हैं कि ‘आप’ से हमको सीखना चाहिए, लेकिन उसी रात टीवी के पैनल डिस्कशन में उनके सत्यव्रत चतुर्वेदी यह कहना परम आवश्यक मानते हैं कि हमारी संस्कृति में तो पशु-पक्षियों से भी सीखा जाता है. राहुल गांधी चाहते तो वे कांग्रेस को आज की ‘आप’ बना सकते थे. वे चाहते तो उनकी पार्टी में से चुनाव जीतने वालों के नाम राखी बिरला, कमांडो सुरेंद्र सिंह, प्रकाश और संजीव झा हो सकते थे. लेकिन पार्टी और संगठन में युवाओं को आगे लाने के नाम पर राहुल ने अपने जैसे ही विचारधारा वाले सियासी परिवारों से निकल कर आने वाले रईस नौजवानों को ही आगे किया.
आशीष नंदी ने एक बार कहा था, ‘कांग्रेसी नेहरु-गांधी परिवार और उनके वंशवाद को सिर्फ इसलिए पसंद करते हैं क्योंकि यह परिवार उन्हें वोट दिलवाता है. जिस दिन इसने उन्हें वोट दिलवाना बंद कर दिया उस दिन कांग्रेसी इन्हें भूल जाएंगे.’ राहुल की वोट दिलाने की क्षमता सबके सामने है. ऐसे में प्रियंका ही वह आखिरी बचा गांधी चेहरा है जो अब कांग्रेस को वोट दिला सकता है. रशीद किदवई भी दावा करते हैं, ‘अभी सबसे ज्यादा जरूरत पार्टी को प्रियंका गांधी की ही है. उनके राजनीति में आने का यही सही समय है. अभी कांग्रेस बीमार है और उसकी दवा सिर्फ और सिर्फ प्रियंका है.’ एक वाजिब बात मणिशंकर अय्यर भी करते हैं, ‘फासीवादी ताकतों से लड़ने के लिए देश को प्रियंका की जरूरत है और यह बात वे भी जानती हैं. लेकिन उन्हें खुद तय करना होगा कि वे राजनीति में अभी आना चाहती हैं या नहीं.’
आज जब हिन्दुस्तान ‘मोदीचूर’ के लड्डू खाने के लिए इतना बेचैन है कि उसे मोदी का फासीवादी चेहरा भी याद नहीं रहता, इस देश को एक ऐसी पार्टी और उसका ऐसा मजबूत चेहरा चाहिए जो फासीवादी ताकतों के सामने तगड़ी चुनौती पेश करने की हिम्मत रखता हो. और यह दुखद है कि राष्ट्रीय स्तर पर अभी ‘आप’ वह पार्टी नहीं है. ऐसे में हमें लौटना कांग्रेस पर ही पड़ता है. हालांकि प्रियंका गांधी को आगे लाने की बातें करना है तो वंशवाद को बढ़ावा देना है, लेकिन हमारे देश की राजनीति बरसों से ऐसी ही है. हमें कुछ साधारण विकल्पों में से चुनाव करना पड़ता है. ऐसे में प्रियंका गांधी को भी आजमा लेने में कोई हर्ज नहीं है. अरस्तू ने अपने विख्यात ग्रंथ ‘पॉलिटिक्स’ में लिखा भी था, ‘जो मुमकिन है लेकिन श्रेष्ठ नहीं, से बेहतर वह नामुमकिन होता है जो श्रेष्ठतर होता है.’ सही लिखा था. प्रियंका वही नामुमकिन हैं.
shayad ab der ho gai, yah nirnay ek saal pahle lena tha