साहित्य से किसका हित!

मनीषा यादव
मनीषा यादव

हिंदी साहित्य जगत में किसी किताब का एक बेस्ट सेलर हो जाना एक चर्चा लायक घटना है. शायद यही वजह थी कि मई, 2013 में सारा हिंदी साहित्य जगत अचानक चौंक गया. लोगों को पता चला कि हिंदी की एक युवा लेखिका का एक कहानी संग्रह ‘बेस्ट सेलर’ हो गया है. यह खबर लोगों के बीच तब पहुंची जब प्रकाशन गृह वाणी प्रकाशन ने इसके उपलक्ष्य में नई दिल्ली स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक आयोजन किया. वहां वाणी प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अरुण माहेश्वरी ने गर्व के साथ बताया कि दो महीने के भीतर कहानी संग्रह की 1,000 प्रतियां बिकने के बाद इसे बेस्ट सेलर घोषित किया गया है. यानी 50 करोड़ से अधिक लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली हिंदी में किसी पुस्तक की महज 1,000 प्रतियों का बिकना उसे बेस्ट सेलर का दर्जा दिलाने के लिए पर्याप्त है!

इसकी तुलना में अगर हम अंग्रेजी साहित्य पर नजर डालें तो हिंदी किताबों की बिक्री सागर में एक बूंद के समान नजर आती है. चेतन भगत के पिछले उपन्यास ‘रिवॉल्युशन 2020’ को 10 लाख प्रतियों के साथ बाजार में उतारा गया था और पहले ही दिन इसकी बिक्री लाखों में हुई. अब तक आ चुके उनके पांच उपन्यासों की बिक्री 50 लाख का आंकड़ा पार कर चुकी है. वहीं अमीष त्रिपाठी की शिवा ट्राइलॉजी (द इमॉर्टल्स ऑफ मेलुहा, द सीक्रेट ऑफ नागाज और द ओथ ऑफ वायुपुत्राज) की तकरीबन 20 लाख प्रतियां बिक चुकी हैं और इससे 50 करोड़ रुपये से अधिक की खुदरा आय हो चुकी है.

अब हम हिंदी में बेस्ट सेलर वाली घटना पर वापस लौटते हैं. दरअसल इस घटना से हिंदी साहित्य जगत की कई गुत्थियों को समझा जा सकता है. इसी से यह भी समझा सकता है कि  लेखन,पठन और प्रकाशन के खेल में प्रकाशक सारे नियम तय करने वाले कैसे बन बैठे हैं. सबसे पहले लेखक की बात करते हैं. पिछले साल जिन लेखिका की किताब बेस्ट सेलर घोषित की गई थी उनके बारे में कहा जाता है कि वे अपनी आजीविका के लिए पूर्ण रूप से साहित्य लेखन पर निर्भर नहीं हैं. यदि ऐसा किसी बेस्ट सेलर की लेखिका के लिए कहा जा सकता है तो बाकी साहित्यकारों के लिए यह मानने में कोई मुश्किल नहीं है कि केवल लेखन के जरिये अपनी आजीविका चलाना उनके लिए लगभग असंभव है. वैसे यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि हिंदी के सभी स्थापित लेखक अपनी आजीविका के लिए नौकरी या व्यवसाय पर निर्भर हैं.

उधर दूसरी तरफ पाठकों की यह आम शिकायत है कि हिंदी में उत्कृष्ट और पठनीय सामग्री कम मिलती है जबकि अंग्रेजी में शोधपरक और तथ्यात्मक रचनाओं की भरमार है. हिंदी में फिक्शन और नॉन फिक्शन किताबों के निम्न स्तर तथा हिंदी व अंग्रेजी किताबों की तुलना के बारे में कवि एवं दखल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अशोक कुमार पांडेय कहते हैं, ‘चूंकि प्रकाशक पैसे नहीं देते इसलिए हिंदी के अधिकतर लेखक पार्ट टाइम लेखक हैं. नौकरी या व्यापार से बचे हुए समय में लिखने वाले. उनके पास अंग्रेजी के लेखकों की तरह शोध करने, घुमक्कड़ी करने या मूड के हिसाब से लिखने का वक्त भी नहीं और सुविधा भी नहीं.’ अशोक ने कुछ समय पहले ही अपने कुछ साथियों के साथ प्रकाशनगृह शुरू किया है.

पाठकों कमी बस एक बहाना है

यह एक बड़ा सवाल है कि तकरीबन आधा अरब लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा हिंदी जिसमें देश के सर्वाधिक प्रसार वाले अखबार प्रकाशित होते हैं, उसमें किताबों की बिक्री की दशा इतनी शोचनीय क्यों है? अगर पढ़ने वाले इतने ही कम होते तो हिंदी में इतने सारे अखबार हर साल प्रसार संख्या का नया रिकॉर्ड नहीं बना रहे होते. पिछले दिनों तहलका समेत हिंदी की प्रमुख राजनीतिक और विमर्श पत्रिकाओं ने साहित्य-संस्कृति पर केंद्रित जो विशेषांक निकाले उन्हें पाठकों ने खूब पढ़ा और सराहा. इसी तरह हिंदी में साहित्य और विचार पर आधारित अनेक मासिक पत्रिकाएं निकलती हैं जिनकी अच्छी-खासी प्रसार संख्या है. ऐसे में किसी को भी इस बात पर आश्चर्य हो सकता है कि क्या ये पाठक साहित्यिक किताबों में रुचि नहीं रखते?  दरअसल किताबें की बिक्री का सीधा संबंध उनकी कीमतों से जुड़ता है. यदि आप एक ही किताब, जो अलग-अलग प्रकाशनगृह ने छापी है को ही देख लें तो आप समझ सकते हैं कि हिंदी साहित्यजगत में कीमतों का कोई नियम नहीं है. एक प्रकाशनगृह अगर 150 पृष्ठ की किताब को 70 रुपये में बेच रहा है तो दूसरा उसी को 200 रुपये में और तीसरा 500 रुपये में भी बेच सकता है. हिंदी के प्रतिष्ठित कवि विष्णु खरे ने कुछ अरसा पहले अपने एक आलेख में हिंदी प्रकाशन जगत पर जबरदस्त प्रहार करते हुए कहा था कि वे अपनी पुस्तकों का दाम लागत से कम से कम छह गुना अधिक रखते हैं और इस तरह वे केवल संस्थागत खरीद के ही लायक रह जाती हैं. इसी आलेख में खरे यह सुझाव भी देते हैं कि पुस्तकों के मूल्य निर्धारण के लिए एक समिति का गठन किया जाना चाहिए जिसमें लेखक, प्रकाशक और सरकार सभी के प्रतिनिधि शामिल हों. ऐसा करने से इसमें कुछ हद तक पारदर्शिता लाई जा सकती है.

आधिकारिक तौर पर इस बात को कोई स्वीकार नहीं करना चाहता है लेकिन हिंदी प्रकाशन जगत की एक बड़ी सच्चाई यह है कि पाठक बड़े प्रकाशकों की सोच की जद से पूरी तरह बाहर हो चुके हैं. हिंदी के एक बड़े कहानीकार नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, ‘ हमारे लेखन का मकसद है कि वह ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे. लेकिन हमारी तमाम शिकायतों पर प्रकाशकों का एक ही जवाब है कि हिंदी में साहित्य के पाठक नहीं हैं.’ प्रकाशकों के संबंध में इन कहानीकार की बात बिल्कुल सही प्रतीत होती है. औपचारिक-अनौपचारिक हर तरह की चर्चा में तमाम बड़े प्रकाशक पाठकों की कमी को हिंदी प्रकाशन उद्योग के लिए एक खतरे की तरह बताते हैं. यदि इस बात में सच्चाई है तो पिछले सालों दर्जनों प्रकाशन गृहों को बंद हो जाना चाहिए था? लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उल्टे बीते एक दशक में कई प्रकाशन गृह न सिर्फ स्थापित हुए बल्कि छपने वाली किताबों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है. इस उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि प्रकाशक किताबों के प्रकाशन के वक्त पुस्तकालयों और सरकारी खरीद को ही ध्यान में रखते हैं. यही वजह है कि उनकी किताबों के दाम बहुत ज्यादा होते हैं. प्रकाशन जगत के एक और स्याह पहलू को उजागर करते हुए अशोक कहते हैं, ‘कुछ बड़े लेखक जो सत्ता प्रतिष्ठानों पर काबिज होते हैं वे बड़े प्रकाशकों के साथ होते हैं. वे सारे इंतजामात में मदद करते हैं. पाठकों की कमी का रोना दरअसल लेखकों को उनकी हद में रखने और रॉयल्टी आदि से बचने के लिए किया जाता है. इससे प्रकाशक बहुत बड़ा और लेखक बहुत छोटा बनता चला गया है.’ अशोक अपनी बात आगे बढ़ाते हुए हिंदी में बेस्ट सेलर की असलियत बताते हुए एक और बात उजागर करते हैं, ‘ हिंदी में बेस्ट सेलर जैसा कुछ नहीं होता, इसे प्रकाशक गढ़ता है. पिछले दिनों एक युवा लेखिका की बेहद औसत किताब को जबरदस्ती चर्चा में लाया गया. बेस्टसेलर घोषित किया गया. बाद में पता चला कि वह हिंदी के दो बड़े प्रकाशक भाइयों की प्रतिद्वंद्विता का फल था.’

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  1. साहित्य से साहित्यकार का अहित होता है। यदि वह अपने ही मानको पर चलने लगे तो कहीं का नहीं रह जाता। इसीलिए परिदृश्य में कौशल का हित होता है। मज़ेदार यह है कि एक पत्रकार भी मानकर चलता है कि वह किसी कृति को बेस्टसेलर बना सकता है लेकिन लेखक को पता नहीं होता कि वह अपने लेखन से दो जून का खाना खा पायेगा या नहीं। पहले संपादक हुआ करते थे। अब संस्थानों के वेतनभोगी हैं। अज्ञेय ने तारसप्तक निकाले। तो उनकी सूझ बूझ और स्थापनायें देखी जा सकती हैं। आज पत्रिकाओं के संपादक पहले पूछते हैं आप चर्चित हैं कि नहीं? यदि हाँ तो क्यों? एक चर्चित से दूसरे चर्चित का नाम पूछ लेते हैं। अंक निकल जाता है। उन्हीं रचनाओं की किसी प्रकाशन से किताब निकल जाता है। फिर वह किताब चर्चित हो जाती है। मैने तुम्हारी पढ़ी तुम मेरी पढ़ना जैसे शिष्टाचार और मैंने तुमपर लिखा तुम मुझपर लिखना जैसी व्यवहारिकता से आलोचना कर्म भी संपन्न हो जाता है। कुलमिलाकर उपयोगी मित्रता बड़ी कसौटी है। प्रकाशक, लेखक, आलोचक, संपादक मिलकर आज संबंधों का हित कर रहे हैं।

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