लेकिन मीडिया के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसका उद्योग और व्यापार तो है लेकिन वह शुद्ध उद्योग और व्यापार नहीं है. कार बनाने या टूथपेस्ट का उत्पादन करने वाले समाज के लिए उपयोगी काम करते हैंलेकिन अपने काम के जरिए वे लोगों को जानकारी देने और देश का लोकमत बनाने के कर्त्तव्य का निर्वाह नहीं करते. अखबार और चैनल भले ही खबरोंऔर मतों को बेच कर चलते हों वे निर्मूल्य और महज विक्रेता होकर नहीं रह सकते. उन्हें जिम्मेदारी लेनी पड़ती है. अपने उत्पाद की जिम्मेदारी तो उत्पादक और विक्रेता को भी लेनी पड़ती है. लेकिन मीडिया की जिम्मेदारी अपने उत्पाद से परे जातीहै क्योंकि वह प्रभाव के काम में है. इसलिए उसे किसी भी उत्पादक की तुलना में नीर-क्षीर विवेक का इस्तेमाल करना ही पड़ता है और यह तटस्थता, निस्वार्थता और न्यायशीलता के बिना संभव ही नहीं है.
इसलिए अपनी तटस्थता और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए मीडिया को विचार करना पड़ता है कि वह किससे क्या ले और किन शर्तों पर ले. उसका लेन-देन शुद्ध व्यापारिक नहीं हो सकता. जगव्यापी वित्तीय संकट और मंदी का असर मीडिया पर होगा ही और वह मुश्किल में पड़ेगा ही. लेकिन क्या इससे मुक्ति या राहत वह अपनी तटस्थता और स्वतंत्रता की कीमत पर ले सकता है? भारत में मीडिया का अनुभव है कि राज्य अपनी शक्ति से उसे अपनी तरफ रखने की कोशिश लगातार करता रहता है. और मीडिया जरूरी कीमत चुका कर अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने में सफल होता आया है. मीडिया का आग्रह रहा है कि राज्य को उसके काम में दखल नहीं देना चाहिए. लेकिनअपने संकट में वह राज्य को पुकारेगा तो मदद करने वाला राज्य क्या लक्ष्मणरेखा का सम्मान करेगा? राज्य तो प्रेस की स्वतंत्रता की सीता का अपहरण करने के लिए हमेशा ही रावण की तरह कोशिश में लगा रहता है? क्या सीता खुद ही अपने संकट से निपटने के लिए लक्ष्मण रेखा लांघ कर आएगी?
फिर नवउदार पूंजीवादी विचार को मानने वाला अपना मीडिया क्या किसानों को राज्य की तरफ से दिए गए राहत पैकेज का विरोध और उसकी आलोचना नहीं करता रहा है? सरकार ने जब देश के देहात में फैली आम बेरोजगारी से लोगों को राहत दिलाने के लिए राष्ट्रीय रोजगार योजना बनाई थी तो हमारे अखबारों ने नहीं लिखा था कि रोजगार देना सरकार का काम नहीं है. और इससे न रोजगार मिलेगा न कोई निर्माण होगा. करदाता का पैसा लोकलुभावन काम के भ्रष्टाचार में जाएगा. क्या मीडिया दलील नहीं देता रहा है किराज्य के संसाधन ऐसी अनुत्पादक योजनाओं में बरबाद नहीं किए जाने चाहिए? क्या यह सिद्धांत भारत जैसे गरीब देश को बताया नहीं जा रहा था कि राज्य का पैसा ऐसे कामों में लगना चाहिए जिससे और पूंजी पैदा की जा सके. राज्य के संसाधन उद्योग और व्यापार की सेवा में हों और गरीब-गुरबों के हित बाजार पर छोड़ देने चाहिए?
फिर देश में टीवी के दर्शकों की गणना और उनकी पसंदगी पर संसद की स्थायी समिति की रपट पर भी ध्यान देने की जरूरत है. रपट में समिति ने बार-बार कहा है कि सूचना प्रसारण मंत्रालय को अच्छी तरह से मालूम है कि टीआरपी में कितनी धोखाधड़ी, झूठ और फरेब का धंधा होता है. टीवी वाले बारह करोड़ घरों में से सिर्फ शहरों के मात्र तेरह हजार घरों में नापने-गिनने के उपकरण लगे हैं और उनसे निकली जानकारी भी सार्वजनिक नहीं की जाती. इसी फरेबी टीआरपी से कार्यक्रमों की विषयवस्तु, समय और प्राथमिकता तय होते हैं. इसी से विज्ञापन मिलते हैं. यह दर्शकों और लोकहित की सरासर आपराधिक अनदेखी है. सूचना प्रसारण मंत्रालय के पास अधिकार हैं लेकिन दर्शक और देशहित में उसने कभी हस्तक्षेप कर के इसे ठीक नहीं किया. इस बात को मानने के बावजूद कि टीआरपी उद्योग को विनियमित करने के लिए कुछ सरकारी पर्यवेक्षण अनिवार्य है, मंत्रालय कीअकर्मण्यता ने स्थिति को और बिगाड़ दिया है – समिति का निष्कर्ष है. जो सूचना प्रसारण मंत्रालय इतने वर्षों से टीवी को बिगड़ने दे रहा है वह मुंबई पर आतंकवादी हमले की कवरेज के बाद केबल टेलीविजन नेटवर्क्स रूल्स में नौ दमनकारी संशोधन लेकर क्यों आ गया? और संशोधन अगर लोकहित में जरूरी थे तो चैनलों के हल्ला मचाते ही पीछे क्यों हट गया? क्योंकि वह टीवी वालों को अपने लालच में ही गलतियां करने देना चाहता है ताकि उनकी गर्दन उसके हाथ में रहे. क्या मीडिया उद्योग को राहत देने की तत्परता इससे कोई भिन्न प्रयोजन के लिए हो सकती है? मीडिया को सोच लेना चाहिए.
(शून्यकाल, 28 फरवरी 2009 में प्रकाशित)