सबसे बड़ा दांव

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मार्च के दूसरे हफ्ते खबर आई कि बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू के मुखिया नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री पद के लिए खुद को अन्य उम्मीदवारों के मुकाबले ज्यादा योग्य बताया है. एक समाचार चैनल से बात करते हुए और इशारों में भाजपा से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए उनका कहना था, ‘जितने लोग घूम रहे हैं उनको अगर मेरे जितना एक्सपीरिएंस हो तो बता दीजिए. एक दिन भी पार्लियामेंट का तजुर्बा है? आप संसद का नेतृत्व करना चाह रहे हैं.’

नीतीश की अगुवाई में ही पुराना जनता दल परिवार एक नए मोर्चे के साथ उतरने की तैयारी में है. फेडरल फ्रंट के नाम से बन रहे इस मोर्चे में जदयू के  साथ समाजवादी पार्टी और जनता दल (सेकुलर) के प्रमुख भूमिका निभाने की बातें हो रही हैं. बीती फरवरी में सहरसा में एक रैली में नीतीश का कहना भी था, ‘देश का प्रधानमंत्री वही हो सकता है जो सभी धर्म, जाति, वर्ग के लोगों को साथ लेकर चल सके. देश में फेडरल फ्रंट आकार ले रहा है. यही फ्रंट सरकार बनाएगा.’

इससे एक दिलचस्प सवाल उठता है. राजनीति में जो राष्ट्रीय संभावनाएं नीतीश कुमार में थीं या हैं या राष्ट्रीय राजनीति में जो उनकी महत्वाकांक्षाएं रही हैं, इस बार के लोकसभा चुनाव में उनका पटाक्षेप हो जाएगा? या पल-पल बदल रहे सियासी समीकरण उनके लिए संभावनाओं के नए द्वार खोल रहे हैं?

नीतीश के पुराने साथियों में से एक और इन दिनों राष्ट्रीय जनता दल के नेता प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ‘पहले तो आप सवाल में जरा सुधार कर लें. नीतीश कुमार की राजनीति में कभी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा नहीं रही है. राष्ट्रीय चेतना या राष्ट्र का क्या नक्शा होता है, वे अब तक तो यही नहीं समझ पाए हैं तो राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा उनकी क्या रहेगी? उनके लिए राजनीति में उनकी निजी आकांक्षा-महत्वाकांक्षा ही सर्वोपरि रही है.’ विधान परिषद के सदस्य रहे मणि आगे कहते हैं, ‘पटेल, नरेंद्र मोदी जैसे कई नेता हुए हैं, जिनसे सहमत-असहमत हुआ जा सकता है. लेकिन वे क्षेत्र और प्रांत की राजनीति से होते हुए आगे आए और तब उन्होंने राष्ट्रीय फलक पर अपार विस्तार किया. लेकिन नीतीश कुमार राजनीति में उलटी दिशा के राहगीर बने. केंद्रीय स्तर पर कई बार मंत्री बनने के बाद वे खुद में राष्ट्रीय राजनीति के तत्व नहीं पनपा सके. और अंत में जब उन्हें बिहार की सत्ता मिली तो प्रांतीय और स्थानीय राजनीति को ही मुख्य आधार बनाकर और उसका ही विस्तार करके  किसी तरह सत्ता समीकरण साधने में ऊर्जा लगाने में लगे रहे, जो अब भी जारी है.’ मणि कहते हैं, ‘नीतीश कुमार अक्सर बातचीत में कहा करते थे कि जिन क्षेत्रीय नेताओं ने प्रधानमंत्री का सपना देखना शुरू किया उनका राजनीति में डाउनफाल भी शुरू हो जाता है इसलिए वे पीएम का सपना नहीं देखेंगे. लेकिन अब उनके कुछ साथियों ने फिर से उन्हें भ्रमजाल में फंसा दिया है कि वे पीएम बन सकते हैं तो रह-रहकर वे अपनी रणनीति बदलते रहते हैं.’

मणि के बाद शिवानंद तिवारी से बात होती है जो ताजा-ताजा जदयू और नीतीश के दुश्मन हुए हैं. वे नीतीश के संकटमोचक और हनुमान तक कहे और माने जाते थे. तिवारी से भी हम वही सवाल करते हैं.  वे कहते हैं, ‘दो-तीन साल पहले तक देश के कई बौद्धिक लोग जिस तरह से नीतीश कुमार का नाम पीएम पद के लिए बार-बार उछाल रहे थे, क्या अब भी वैसा है? क्या हालिया दिनों में किसी ने नीतीश को करिश्माई व्यक्तित्व वाला नेता कहा है?’  तिवारी आगे कहते हैं, ‘अब अपनी राजनीति के बारे में सर्टिफिकेट या तो नीतीश कुमार खुद देते हैं या उनके चंगू-मंगू, जबकि दो-तीन साल पहले स्थिति ऐसी नहीं थी. 2010 में जब नीतीश कुमार ने विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को दिए भोज को रदद कर दिया था और गुजरात से मिली बाढ़ सहायता की राशि भी लौटा दी थी तब से ही इनकी राजनीति का डाउनफाल शुरू हुआ. राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें अगंभीर नेता की तरह देखा जाने लगा. सत्ता बचाए रखने के लिए वे अति महत्वाकांक्षी नेता के तौर पर स्थापित होते गए.’ तिवारी आगे कहते हैं, ‘अगर भाजपा के नेताओं के साथ भोज रद्द कर दिया था तो फिर आगे भाजपा के साथ बने रहने का कोई मतलब नहीं था. उसी समय भाजपा से अलग हुए होते तो बिहार में भाजपा एक मामूली पार्टी होती.’  लेकिन नीतीश कुमार ऐसा नहीं कर सके. भाजपा से अलगाव के बाद वे कांग्रेस का गुणगान करने लगे. कांग्रेस सियासत को आगे बढ़ाने में मददगार साबित होती नहीं दिखी तो फेडरल फ्रंट की कवायद में लग गए. तिवारी कहते हैं, ‘खुद ही सोचकर बताइए कि क्या इस तरह उछल-कूद करने वाले नेता को कभी राष्ट्रीय राजनीति में गंभीर तरीके से लिया जा सकता है?’

प्रेम कुमार मणि या शिवानंद तिवारी इन दिनों नीतीश से दूर हैं, इसलिए कुछ लोग कह सकते हैं कि विरोध में आ गए तो बातें भी वैसी ही कर रहे हैं. लेकिन ये दोनों नेता नीतीश के साथ रहते हुए भी उनको खरी-खोटी सुनाने के लिए जाने जाते रहे हैं. नीतीश कुमार की राजनीति को लेकर ऐसे सवाल जदयू के कई नेताओं के मन में भी हैं, लेकिन कोई खुलकर बोल नहीं पाता. सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि लोकसभा चुनाव करीब आने के बाद भी पार्टी से बिना कोई राय-सलाह किए लगातार इतनी तरह के दांव खेलकर नीतीश क्या जदयू को मजबूत कर रहे हैं. या फिर वे राष्ट्रीय राजनीति में खुद को किसी तरह मजबूत करने के लिए अंधा जुआ खेलते हुए आगे की राह भी खोखली कर रहे हैं?

बिहार में नीतीश कुमार इकलौते नेता हैं और उनकी पार्टी जदयू इकलौती पार्टी है जिसका रुख अब तक साफ नहीं हो सका है कि लोकसभा चुनाव में उसका गणित क्या होगा. लोजपा का निर्णय भला रहा हो या बुरा लेकिन उसने साफ कर दिया कि वह भाजपा के साथ रहेगी. लालू प्रसाद की चाहे जो मजबूरी रही हो लेकिन उनका स्टैंड साफ रहा है कि वे हर हाल में कांग्रेस के साथ बने रहना चाहेंगे. भाजपा ने भी साफ कर दिया है कि उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी और रामविलास पासवान की लोजपा के साथ ही वह लोकसभा चुनाव की वैतरणी पार करेगी. लेकिन जदयू का अब तक कुछ भी स्पष्ट नहीं. प्रदेश में भाकपा और माकपा के साथ उसका तालमेल होगा, यह साफ किया जा चुका है, लेकिन खुद भाकपा-माकपा वाले भी जानते हैं कि आखिरी समय में नीतीश उनका साथ छोड़ सकते हैं. शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘जिस फेडरल फ्रंट की अगुवाई नीतीश कुमार कर रहे हैं, वह टाइम पास अभियान है, उसे वे कभी भी छोड़ सकते हैं, यह सबको पता है.’

फेडरल फ्रंट के कभी भी छोड़ने, कांग्रेस के साथ कभी भी जाने की बातें बिहार के सियासी गलियारे में कोई भी आसानी से कह देता है तो यूं ही नहीं कहता. नीतीश कुमार के बीते 30 साल के राजनीतिक सफर की जानकारी रखने वाले लोग जानते हैं कि वे आसानी से ऐसा करते रहे हैं. नीतीश दांव बदलने मेंे उस्ताद नेता के रूप में देखे जाते रहे हैं और उनके तीन दशकों के राजनीतिक करियर में यह बार-बार देखा जा चुका है कि वे एक रुख पर कभी भी लंबे समय तक कायम नहीं रहते. न ही वे किसी एक मित्र को भरोसेमंद मानकर लंबे समय तक उसके साथ चलते हैं. कभी वे लालू प्रसाद के सिपहसालार माने जाते थे. उनसे अलग हुए तो लालू विरोध का आधार बनाते हुए जार्ज फर्नांडिस के सहयोग से उन्होंने समता पार्टी का गठन किया. समता पार्टी का तालमेल भाकपा माले जैसी घोर वामपंथी पार्टी के साथ हुआ. अक्टूबर, 1994 में समता पार्टी की सात सीटें आईं. नीतीश कुमार ने घोर वामपंथी साथी को छोड़ा और दो साल बाद 1996 में दक्षिणपंथी चरित्र रखने वाली पार्टी भाजपा के साथ जा मिले. 2000 में सात दिन के लिए बिहार की सत्ता में भी आए. भाजपा के साथ बने रहे. 2002 में गुजरात दंगा हुआ. नीतीश कुमार केंद्र में मंत्री थे. लेकिन वे चुप्पी साधे रहे. 2005 में बिहार में फिर विधानसभा चुनाव की बारी आई. नीतीश और भाजपा ने जीत का परचम लहराया. सरकार बनी. 2009 का लोकसभा चुनाव आया. नीतीश के सामने गुजरात दंगे का सवाल आया. उन्होंने कहा कि गुजरात दंगा काठ की हांडी है, एक बार चढ़ाई जा चुकी है, बार-बार नहीं चढ़ाई जा सकती. नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी को एक तरीके से क्लीन चिट दी और सरपट आगे बढ़ गए. 40 में से 32 सीटों पर भाजपा-जदयू गठबंधन ने कब्जा जमा लिया. 20 नीतीश की पार्टी के खाते में आईं, 12 भाजपा के खाते में.

लेकिन यह बात 2009 की थी. जानकारों की मानें तो अगले ही साल नीतीश कुमार को यह लगा कि 2010 में प्रदेश की सियासत को साधने के लिए और सत्ता को फिर से प्राप्त करने के लिए कुछ दांव बदलने होंगे. तो उन्होंने भाजपा से दोस्ती जारी रखते हुए नरेंद्र मोदी के विरोध का अभियान शुरू किया. वह अभियान रंग लाया. लालू प्रसाद से छिटककर मुसलमान नीतीश की ओर आ गए. नीतीश फिर से चैंपियन बन गए. 2010 के विधानसभा चुनाव में जब उनकी पार्टी को ठीक-ठाक सीटें मिल गईं तो नीतीश कुमार ने लोकसभा चुनाव का गणित लगाना शुरू किया और भाजपा से अलगाव के लिए रास्ता तलाशने लगे ताकि सारे पुराने धब्बे दूर हों, राष्ट्रीय राजनीति में उनका महत्व बढ़े और लोकसभा चुनाव आते-आते वे बड़े धर्मनिरपेक्ष नेता के तौर पर उभरें.

एक हद तक वे कामयाब भी रहे. नीतीश, नरेंद्र मोदी को सबसे पहली चुनौती देने वाले नेता के तौर पर उभरे और छा गए. लेकिन वे मोदी की तरह भाजपा को चुनौती नहीं दे सके. नीतीश कुमार आखिरी समय तक नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने से रोकने में लगे रहे. सफल नहीं हुए तो भाजपा से अलग हुए. भाजपा का साथ छोड़ा तो भाकपा और कांग्रेस के सहयोग से राज्य में सरकार बचाने में उन्हें कोई अतिरिक्त कवायद नहीं करनी पड़ी.

राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो दरअसल नीतीश की यह खासियत भी रही है  कि वे एक साथ दो ध्रुवों की राजनीति साधते रहते हैं. वाम से दक्षिण और दक्षिण से वाम की ओर जानेे में उन्हें महारत रही है. भाजपा से अलगाव के बाद सियासत के गलियारे में उन्होंने जो कहानी लिखनी शुरू की, उसकी अहम परीक्षा अब सामने है. इस अलगाव के बाद नीतीश कुमार और उनकी पार्टी अब तक कोई ठोस रास्ता तय नहीं कर सके हैं. नीतीश जानते हैं कि धर्मनिरपेक्षता का ज्यादा राग उनके लिए नुकसानदाई भी हो सकता है. यही वजह है कि वे सबसे बड़ा दांव विशेष राज्य दर्जे पर लगाना चाहते हैं. इसलिए वे कांग्रेस के प्रति कभी नरम, तो कभी गरम होने की राजनीति लगातार करते रहते हैं. जानकारों के मुताबिक नीतीश मानते हैं कि तमाम बुरे वक्त के बावजूद उनके लिए कांंग्रेस अब भी उम्मीदों वाली पार्टी है, जो भाजपा के अलग होने के बाद उन्हें हुए नुकसान की भरपाई कर सकती है. इसलिए कुछ दिन पहले तक भी स्थिति यह रही कि कांग्रेस अगर विशेष राज्य दर्जे पर सिर्फ आश्वासन भी दे देती तो नीतीश उसके साथ सटकर इस बार का चुनाव पार कर लेना चाह रहे थे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. वे बीच में पासवान की ओर भी टकटकी लगाए रहे, दिल खोलकर उनकी तारीफ करते रहे, कहते रहे कि रामविलास पासवान बहुत ही अच्छे नेता और इंसान हैं. कोशिश थी कि किसी तरह पासवान उनके खेमे में आ जाएं. इसके दो कारण थे. नरेंद्र मोदी का विरोध करने में उन्हें दोगुनी ऊर्जा मिलती. साथ ही महादलितों की राजनीति करने में पासवान जाति जो उनके लिए विरोधी-सी हो गई है और जिसकी आबादी कुल वोटरों की करीब चार प्रतिशत है, उसे भी साधने में सहूलियत होती. लेकिन सत्ता की सियासत में किसी तरह बने रहने के अभ्यस्त रामविलास पासवान उस्ताद निकले. नरेंद्र मोदी का विरोध करते-करते वे खुद ही मोदी के पाले में चले गए. नीतीश कुमार अब कहते हैं कि रामविलास पासवान का राजनीतिक चरित्र शुरू से ऐसा ही रहा है, वे ही ऐसा कर सकते हैं. इस पर लोजपा के प्रवक्ता रोहित सिंह कहते हैं कि नीतीश अब रामविलास पासवान के राजनीतिक चरित्र पर अब उंगली उठा रहे हैं लेकिन कुछ दिन पहले तक तो वे पासवान के साथ जुड़ने के लिए बेचैन से थे.

हालिया दिनों में नीतीश कुमार की राजनीति पर सबसे ज्यादा सवाल तब उठे जब उनकी पार्टी ने सारे नियम-कानूनों को ताक पर रखकर लालू प्रसाद यादव की पार्टी के 13 विधायकों को अपने पाले में करने का खेल किया. अलग गुट के तौर पर राजद के विधायकों को मान्यता देने के लिए कम से कम 15 की संख्या चाहिए थी. लेकिन जदयू नेता व विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी ने 13 को ही मान्यता दे दी. वे 13 भी जदयू के साथ नहीं रह सके. लालू प्रसाद ने खेल बदल दिया. वे नौ को फिर से अपने पाले में लेकर चले आए. लालू प्रसाद को चार विधायकों का नुकसान हुआ लेकिन उससे ज्यादा नुकसान नीतीश कुमार की छवि को हुआ. नीतीश के सिपहसालार व पूर्व राज्यसभा सांसद साबिर अली कहते हैं, ‘हर दल अपनी मजबूती चाहता है. हमारी पार्टी ने किया, क्या गलत किया?’ नीतीश कुमार ने पहले कहा कि उन पर बेजा आरोप मढ़ा जा रहा है, वे कुछ नहीं जानते. इस पर शिवानंद तिवारी का कहना था, ‘नीतीश की ऐसी मासूमियत पर तो कुर्बान हो जाने को जी चाहता है. सभी विधायकों से बात कर वही सेटिंग-गेटिंग किए, अब कह रहे हैं, कुछ नहीं जानते.’ बाद में नीतीश कुमार की ओर से बयान आया, ‘लालू प्रसाद तो जिंदगी भर जोड़-तोड़ ही करते रहे हैं, अब उनको क्यों बुरा लग रहा है?’

प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ‘नीतीश कुमार अगर ऐसा सोचते हैं कि जो लालू प्रसाद ने किया है, वही वे करेंगे तो फिर यह भी स्वीकार करें कि लालू की तरह ही वे भी सत्ता साधने और सियासत करने के उस्ताद हैं और इसके लिए कुछ भी कर सकते हैं.’

नीतीश कुमार पर ऐसे आरोप इन दिनों लगातार लग रहे हैं. इसका नुकसान उन्हें अगले चुनाव में उठाना पड़ सकता है. अब उनकी पार्टी के कांग्रेस के साथ जाने की संभावना पर बात हो रही है तो जनता दल के कई नेता घबरा भी रहे हैं. एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘नीतीश कुमार ने तो पेंडुलम की तरह बना दिया है. कभी कहते हैं, कांग्रेस का विरोध करो, कभी इशारा देते हैं, कांग्रेस को पुचकारो. अब लोकसभा चुनाव में एक माह रह गया है, कांग्रेस के साथ गए भी तो जनता को क्या समझाएंगे.’ एक और वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘जैसे रामविलास पासवान ने रातों-रात पलटी मारकर नरेंद्र मोदी का गुणगान शुरू कर दिया, क्या नीतीश कुमार भी वैसे कांग्रेस का गुणगान शुरू करेंगे और अगर ऐसा करेंगे तो क्या जनता हजम कर पाएगी?’

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